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सीमा आजाद और विश्वविजय की रिहाई के लिए एक अपील

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सीमा आजाद और विश्वविजय की रिहाई के लिए एक अपील

प्रिय दोस्तो,
जैसा कि आप जानते हैं, मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की सांगठनिक सचिव और युवा पत्रकार सीमा आजाद को उनके जीवन साथी विश्वविजय के साथ 6 फरवरी 2010 को गिरफ्तार कर लिया गया था। उन पर लगभग उन्ही धाराओं में आरोप लगाया गया है जिन धाराओं में डाक्टर विनायक सेन को आरोपित किया गया था। यानी कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी का सदस्य होना और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना। इसके अलावा कुछ अन्य धाराओं में भी आरोप लगाए गए हैं।

डा. विनायक सेन तो रिहा हो चुके हैं लेकिन सीमा और विश्वविजय को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी है और उनपर जुर्माना भी ठोंक दिया गया है। शायद यह उन बिरले मामलों में से ही होगा जिनमें इन धाराओं के तहत आरोपित व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। स्पष्ट है कि मनमोहन सिंह की सरकार उन सभी से बदला ले रही है जो उनकी नीतियों से सहमत नहीं हैं। यह बात ध्यान देने की है कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है कि सीमा आजाद और विश्वविजय किसी भी समय हथियारों या विस्फोटकों की कार्यवाइयों में लिप्त रहे हों। उनका एकमात्र ‘अपराध’ यही है कि वे अपनी रजिस्टर्ड द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ के माध्यम से सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे थे और ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ और ‘आॅपरेशन ग्रीन हण्ट’ के खिलाफ पुस्तिकाएं निकाल रहे थे।

राज्य सीमा आजाद और विश्वविजय को किसी भी कीमत पर सजा सुनाना चाहता था। नीचे हम राज्य द्वारा उन्हें दोषी सिद्ध करने के उसके प्रयास के विभिन्न अन्तरविरोधों, असंगतियों और मनगढ़न्त बातों का एक तथ्यगत ब्योरा दे रहे हैं-

1- फैसले के पृष्ठ नम्बर 57 पर यह स्पष्ट उल्लिखित है कि रिमाण्ड के दौरान जिस सामग्री की बरामदगी की गयी थी और उसे सीलबन्द किया गया था, उसे पुलिस स्टेशन में बिना कोर्ट की अनुमति के ‘अध्ययन के उद्देश्य से’ पुनः खोला गया। लेकिन दुर्भाग्य से कोर्ट ने इस प्रक्रिया में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।

2- यह भी उल्लेखनीय है कि रिमाण्ड को दो बार अदालत द्वारा अस्वीकार किया गया और अन्ततः जब रिमाण्ड दिया गया तो यह गैरकानूनी तरीके से हुआ। इसमें उन सभी कानूनों का उल्लंघन हुआ जो किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को रिमाण्ड पर लेने के लिए कानून द्वारा तय हैं। अदालत ने इस स्पष्ट गैर कानूनी काम को क्यों होने दिया। क्या यह इसलिए था कि एफआईआर के बाद पुलिस नेे जिन मनगढ़न्त और झूठे साक्ष्योें का उल्लेख किया था उनको रिमाण्ड के दौरान तथाकथित बरामदगी के रूप में पेश किया जा सके?

3-सीमा के मोबाइल काॅल डिटेल्स को अदालत में पेश किया गया। लेकिन उनमें सिर्फ 5 फरवरी 2010 तक का ही ब्योरा था। उनमें उसकी गिरफ्तारी के दिन यानी 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स का कोई ब्योरा नहीं है। सवाल यह है कि काॅल डिटेल्स को जान-बूझ कर क्यों छिपाया गया। यदि 6 फरवरी की काॅल डिटेल्स को र्ट में प्रस्तुत किया जाता तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती कि सीमा और विश्वविजय को, सीमा के नई दिल्ली से रीवा एक्सप्रेस द्वारा 6 फरवरी को सुबह 11.45 बजे इलाहाबाद उतरते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। यानी 6 फरवरी को दोपहर 2.30 बजे हीरामनि की गिरफ्तारी के बहुत पहले। पुलिस यह कहानी क्यों गढ़ रही है कि हीरामनि द्वारा पुलिस को सीमा और विश्वविजय के बारे में दी गयी सूचना के बाद उन्होंने सीमा और विश्वविजय को 6 फरवरी को रात 9.30 बजे गिरफ्तार किया। पुलिस की क्या मजबूरी थी कि उसने जान-बूझ कर 6 फरवरी 2010 की काॅल डिटेल्स को छिपाया।

4-फैसले के पृष्ठसंख्या 58 पर यह दर्ज है कि गिरफ्तारी की जगह के बारे में पुलिस गवाहों के बयानों में बहुत अन्तरविरोध है। लेकिन फैसले में कहा गया है कि ‘ये छोटे अन्तरविरोध हैं’ और इन्हें नजरअन्दाज किया जा सकता है।

5- अदालत में जब यह पूछा गया कि क्या पुलिस ने सीमा के मोबाइल के काॅल डिटेल्स/ फोन नम्बर / मैसेज में कुछ भी आपत्तिजनक पाया है तो पुलिस का साफ उत्तर था - नहीं। लेकिन फैसले में सीमा के मोबाइल को विभिन्न तिथियों पर विभिन्न जगहों पर दर्शाया गया है। जैसे - लखनऊ, बाराबंकी (30-31.08.09), वाराणसी (4.10.09), कानपुर, फतेहपुर (21-22.11.09) (12-13.01.2010), मिर्जापुर (4.10.09), इटावा, खुर्जा एवं हिमांचल प्रदेश (22-23-24.012010)। (पृष्ठ-55)।  क्या ये जगहें ‘संदेहास्पद जगहें’ हैं? यदि हां तो किस तर्क से?

6-पुलिस ने सीमा के मोबाइल को गिरफ्तारी के वक्त प्रस्तुत क्यों नहीं किया। उन्होंने उसके मोबाइल को रिमाण्ड के बाद (गिरफ्तारी के 5 महीने से ज्यादा वक्त के बाद) क्यों प्रस्तुत किया।

7- ‘26 पेज के पत्र’, ;जिसके बारे में पुलिस दावा करती है कि वह उसने रिमाण्ड की अवधि में यानी गिरफ्तारी के 5 महीने बाद सीमा के कमरे से बरामद किया हैद्ध की बरामदगी पर किसी भी स्वतन्त्र गवाह के हस्ताक्षर क्यों नहीं हैं? सीमा के पड़ोसी और सीमा के पिता रिमाण्ड के दौरान वहां उपस्थित थे। तब इस तथाकथित ‘बरामदगी’ पर उनके हस्ताक्षर क्यों नहीं लिये गये।

8- फरवरी 2012 के पहले सप्ताह में निचली अदालत में अन्तिम गवाह की गवाही हो चुकी थी, फिर केस को अप्रैल के मध्य तक क्यों खींचा गया? जबकि सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश था कि इसमें देरी नहीं होनी चाहिए और केस को दिन-प्रतिदिन के हिसाब से सुना जाना चाहिए। न्यायाधीश अनिल कुमार (जिन्होंने पूरे केस की सुनवाई की) का स्थानान्तरण उनके द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले ही क्यों कर दिया गया? मई में केस को दूसरे न्यायाधीश सुनील कुमार सिंह को दे दिया गया। जिन्होंने अन्ततः आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

9-एक दूसरी बात भी उल्लेखनीय है कि फैसले में इस बात को नोटिस में लिया गया है कि सीमा ने एक पत्र अन्नू अर्थात कंचन को लिखा था। और इसे इस साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है कि चूंकि अन्नू अर्थात कंचन अपने पति गोपाल मिश्रा के साथ दिल्ली में समान आरोप में गिरफ्तार हुई थीं, इसलिए सीमा का माओवादियों से सम्बन्ध स्पष्ट है। मजे की बात यह है कि दिल्ली कोर्ट ने कंचन और उनके पति को बेल पर रिहा कर दिया है। जबकि वहीं सीमा और विश्वविजय को बेल देने की बात तो दूर, उन्ही समान आरोपों में सजा सुना दी गयी है।

उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि राज्य ने सभी तरह के विरोधों का गला घोंटने का निर्णय कर लिया है। भारतीय सरकार ने लोकतन्त्र के सभी रूपों से पल्ला छुड़ा लिया है। सीमा आजाद और विश्वविजय के खिलाफ यह क्रूर फैसला इसलिए सुनाया गया है ताकि जनता के सामने इसे एक उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके कि जो भी राज्य का विरोध करेगा या उसकी आलोचना करेगा उसे सीमा आजाद और विश्वविजय की तरह ही दण्डित किया जाएगा।

यह हमारा दृढ़ विश्वास और आकलन है कि इस निर्णायक मौके पर यदि हम चुप रहते हैं तो दमनकारियों और हत्यारों के ही हाथ मजबूत होंगे।

हम आप सभी से अपील करना चाहते हैं कि आप जिन-जिन मोर्चों से जुड़े हुए हैं वहां इस मुद्दे को उठायें या किसी अन्य तरीके से भी, जैसा आपको उचित लगे, इस मामले को उठायें। इसके अलावा आप इस अपील को उन सभी के पास फारवर्ड कीजिए जो इस अभियान के दायरे को बढ़ाने और तत्पश्चात सीमा आजाद और विश्वविजय के समर्थन में लोगों को एकजुट करने में मदद करें।


नीलाभ
सीमान्त (सीमा के भाई)  संगीता (सीमा की भाभी)


तनी हुई मुट्ठी को काट कर प्रतिरोध को खामोश नहीं किया जा सकता!

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जिन लोगों ने सीमा आज़ाद द्वारा सम्पादित पत्रिका "दस्तक" के अंक देखे हैं उनके लिए शीरीं कोई नया नाम नहीं है. सीमा ही की तरह शीरीं ने भी दलित शोषित वर्गों के पक्ष में दृढ़ता से आवाज़ बुलन्द की है. यहां हम उनका ताज़ा लेख दे रहे हैं

तनी हुई मुट्ठी को काट कर प्रतिरोध को खामोश नहीं किया जा सकता!
 

सीमा आजाद को दी गयी आजीवन सज़ा की खबर ने सबको सकते में डाल दिया है। लेकिन इसके पहले एक और घटना घटी जिसको राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा जगह नहीं मिली। गत 7 मई को उड़ीसा के जाजनगर की गोबरघाटी की 55 वर्षीय महिला सिनी साय को पुलिस ने माओवादी बता कर गिरफ्तार कर लिया। सिनी साय को पुलिस ने उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह बे्रन मलेरिया का इलाज कराने के लिए एक अस्पताल में भर्ती थी। सिनी एक ऐसी मां है जिसकी आंखों के सामने उसके 25 वर्षीय बेटे भगवान साय को पुलिस ने गोली मार दी थी और उसकी कलाई को काट दिया था।
यह घटना उस समय की है जब सन 2006 में कलिंगनगर में टाटा द्वारा आदिवासियों की जमीन छीनने के खिलाफ और आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ तथा आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन के हक के लिए आन्दोलन चल रहा था। उस प्रदर्शन में स्वयं सिनी साय भी शामिल थी। विस्थापन विरोधी उस प्रदर्शन पर पुलिस ने फायरिंग कर दी और उसमें 14 आदिवासी मारे गए। उन 14 मृत लोगों में उनका जवान बेटा भगवान साय भी शामिल था। पुलिस ने उनकी आंखों के सामने न केवल उसे गोली मारी बल्कि उसकी विरोध में तनी हुयी मुट्ठी को भी काट दिया। जाहिर है पुलिस उस वक्त सरकार और टाटा की रक्षा कर रही थी।
सिनी साय दो बार अपने गांव गोबरघाटी की सरपंच रह चुकी हैं। सरपंच के रूप में उन्होंने न केवल अपने गांव का नेतृत्व किया बल्कि वह अपने आदिवासी समूह की हक की लड़ाई में भी शामिल हो गयी। उसी लड़ाई को लड़ते हुए वह एक दिन अपने बेटे की कलाई कटी हुयी लाश लेकर घर लौटीं।
सिनी साय अब एक शहीद की मां भी थीं। उन्हांेने अपने बहते आंसुओं को अपने सीने में ही दफन कर दिया और समाज परिवर्तन की लड़ाई मंे कूद पड़ीं। पुलिस फाइल में वह एक माओवादी के रूप में दर्ज हो गयीं। हमें उन कारणों पर विचार करना होगा जिनके कारण एक मां को 50 साल की उम्र में माओवादी होना पड़ा। उनके दूसरे बेटे के अनुसार सरकार, पत्रकार और मीडिया के लिए वह माओवादी हो सकती हैं। लेकिन उनके लिए वह एक मां हैं। उनके लिए अपने बेटे की हत्या का बदला लेने के लिए इसके अच्छा कोई रास्ता नहीं था।
उनकी गिरफ्तारी के बाद उनसे मिलने गयी एक पत्रकार सारदा लाहंगीर से उन्होंने कहा ‘‘आप जानती हैं कि जमीन की लड़ाई, अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए मेरे बेटे ने अपने सीने पर पुलिस की गोली खाई। मेरे सामने उसे न सिर्फ बेरहमी से मारा गया बल्कि बाद में उसकी लाश के भी टुकड़े कर दिये गए। एक मां यह कैसे बर्दाश्त करती कि जिस बेटे को मैंने नौ महीने अपनी कोख में रखकर जन्म दिया, उसी बेटे को पुलिस वाले बेरहमी से एक लाश में बदल दें।’’(देखें-माओवादी सिनी साय की कहानी-ravivar.com पर )
सीमा और सिनी में एक समानता हैं। दोनो अन्याय के खिलाफ लड़ रही थीं। सिनी की तरह ही सीमा आजाद भी जल-जंगल-जमीन के लिए चल रही लड़ाई की समर्थक है। वह भी विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रही थी। दोनो की उम्र में फरक हो सकता है। लेकिन दोनो के जज्बे में कोई अन्तर नहीं है। दोनो इस समाज को बदलना चाहती हैं।
सीमा कुल 36 वर्ष की हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए करने के बाद उन्होंने एक ऐसी राह चुनी जो बहुत ही चुनौती पूर्ण थी। सामन्ती समाज की बेडि़यों को तोड़ कर उन्होंने अपना नाम आज़ाद रखा। इसी क्रम में शायद उन्हें यह समझ में आया कि व्यक्तिगत आजादी का कोई मतलब इस समाज में नहीं है। जब तक पूरा समाज नहीं मुक्त होता, वह अकेले मुक्त नहीं हो सकती। इसी समझदारी के साथ वह समाज की मुक्ति के लिए चल रही लड़ाईयों के साथ जुड़ीं। सामन्ती बेडि़यों से तो वह एक हद तक मुक्त हुयीं लेकिन राज्य की दमनकारी ज़ंजीरों ने उसे कैद कर लिया और उसकी इन्तहां तब हुयी जब लोअर कोर्ट ने उन्हंे आजीवन कारावास की सजा सुना दी।
सीमा और सिनी दोनो आपस मे कभी नहीं मिलीं। दोनो की वर्गीय पृष्ठभूमि में भी अन्तर है। सीमा पढ़ी लिखी और शहर में रहने वाली एक मध्यवर्गीय महिला है और सिनी एक अनपढ़, आदिवासी और गांव की औरत है। पर दोनो का मकसद एक ही है-अन्याय का प्रतिकार करना। एक बात मुझे नहीं समझ आती अगर अन्याय का प्रतिकार करने का अर्थ है माओवादी होना तो माओवादी होने में क्या गुनाह है? लेकिन दिक्कत यह है कि यहां की अदालतें न्याय की वही परिभाषा दोहराती हैं जिसे राज्य ने लिख दिया है। और बचाव पक्ष का वकील पूरे समय यही सिद्ध करने में उलझ के रह जाता है कि अभियुक्त माओवादी नहीं है। कानूनी दांव-पंेच की भूल-भुलैया में यह पक्ष कहीं खो जाता है की वह कौन सी परिस्थितियां थीं जिनमें व्यक्ति माओवादी बनता है।
ऐसे में मुद्दा माओवादी होने या न होने का नहीं है। मुद्दा है अन्याय की वह पृष्ठभूमि जिस पर संघर्ष की कोई भी इबारत दर्ज होती है।
मुझे नहीं पता कि सीमा को आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने के बाद सीमा की मां के कलेजे में कितने तूफान उठ रहे होंगे और वह इस तूफान को कौन सी दिशा दें। लेकिन सच्चाई यही है कि राज्य दमन के इस दौर में गोर्की की हजारों-हजार मां जन्म लेंगी। ऐसे समय में हम तटस्थ कैसे रह सकते हैं? इतिहास गवाह है कि तनी हुयी मुट्ठियों को काट कर राज्य कभी भी प्रतिरोध की आवाज को खामोश नहीं करा पाया है।


शीरीं
21.6.12


अदालती आतंकवाद

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डा. शिवमंगल सिद्धांतकर न सिर्फ़ प्रतिबद्ध कवि हैं बल्कि शब्द को कर्म में रूपान्तरित करने वाले संस्कृतिकर्मी भी. सीमा आज़ाद और विश्वविजय के पक्ष में आवाज़ बुलन्द करने वालों में वे अग्रणी हैं. यहां उनकी ताज़ा टिप्पणी दी जा रही है जो आपातकाल विरोधी दिवस 26 जून को जारी की गयी थी

अदालती आतंकवाद

कोई एक दल या संगठन या व्यक्ति अन्यायपूर्ण सरकार और सत्ता के खिलाफ यदि संघर्ष छेड़ता है तो वह संघर्ष देश और दुनिया भर में चल रहे संघर्षों का एक हिस्सा होता है और जिस दल, संगठन या व्यक्ति ने संघर्ष छेड़ा होता है वह किसी एक दल या संगठन या व्यक्ति का संघर्ष नहीं रह जाता बल्कि इस प्रकार के सभी तत्त्वों का संघर्ष बन जाता है। सत्ता विरोधी किसी दल या संगठन या व्यक्ति को यदि प्रतिबंधित किया जाता है तो वह इस तरह के अन्य तत्त्वों पर भी प्रतिबंध समझ लिया जाता है। ऐसी हालत में प्रतिरोधकारी और विद्रोहकारी एकता जरूरी हो जाती है। इसी आधार पर हमारा यह कार्यभार बन जाता है कि हम सीमा आजाद और विश्व विजय के आजीवन कारावास को खारिज कराने के लिए कानूनी रास्ते तो अपनायंे ही, आन्दोलन के रास्ते पर भी बढंे़, जो स्थानीय राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय धरातल पर संभव किया जा सके।
अंगे्रजी राज से अब तक राज्य विरोधी  क्रांतिकारी शक्तियों की अदालती हत्या का एक लंबा सिलसिला रहा है और आजीवन कारावास से भी क्रांतिकारियों को गुजरना पड़ा है जिसके विस्तार में जाने की बजाय हमारा यह मानना है कि सीमा आजाद और विश्व विजय को आजीवन कारावास दिया जाना अदालती आतंकवाद है। इस अदालती आतंकवाद के खिलाफ राज्य बंदी रिहाई अभियान चलाना जरूरी तो है लेकिन बदले हुए समय में इस रिहाई अभियान में मौजूदा राज्य सत्ता और सरकार के विरोधी राजनीतिक दलों का एकजुट होकर संघर्ष चलाना जरूरी हो गया है; क्योंकि घोषित आपाकाल से मौजूदा अघोषित आपातकाल ज्यादा क्रूर और खतरनाक बनने जा रहा है इसलिए कि साम्राज्यवादी भारत सरकार बकौल प्रधानमंत्राी कड़े फैसले लेने जा रही है; जाहिर है जिससे मेहनतकश, सर्वहारा, नव सर्वहारा, अर्द्ध सर्वहारा को बदहाली झेलने पड़ेगी।
इस अदालती आतंकवाद के खिलाफ स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अभियान चलाना बहुत जरूरी हो गया है और इसमें सूचना तकनीक के विभिन्न औजारों का इस्तेमाल तो जरूरी है ही; समाज के निचले पायदान से ऊपर के पायदान तक संघर्षशील जनसेवक ईकाइयों का निर्माण भी जरूरी हो गया है जो परिवर्तनकारी नव सर्वहारा औजार से लैस हो न कि नागरिक अधिकार आंदोलन तक ही सीमित रहे; क्योंकि हमारा मानना यह है कि सीमा आजाद और विश्व विजय को आजीवन कारावास की सजा सरकार और सत्ता के खिलाफ युद्ध के ‘अपराध’ में सुनाई गई है। ऐसे हालात में यह सजा राजनीतिक बन जाती है इसलिए इसके खिलाफ संघर्ष भी नई क्रांतिकारी राजनीतिक शक्तियों द्वारा एकताबद्ध होकर चलाना होगा।
भूमाफिया, राजनेता और पुलिस और कौशाम्बी जिले के जन प्रतिनिधियों के खिलाफ भी आंदोलन जरूरी है जहां यह सब हो रहा है। क्रांतिकारियों पर तो सदा आपातकाल रहा है 26 जून 1975 को शासक वर्ग के विरोध पक्ष पर भी आपातकाल लग गया था।
इन्हीं शब्दों के साथ 26 तारीख को आपातकाल विरोधी दिवस मनाये जाने के हम साथ हैं और सीमा आजाद तथा विश्व विजय को सजामुक्त कराने की लड़ाई के लिए हमारे पास भारतीय जनसंसद और दूसरे बहुतेरे जो सांगठनिक औजार हैं उन्हें शामिल करने के लिए तैयार हैं। इस सिलसिले में स्थानीय राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय धरातल पर अपने सांगठनिक औजारों का इस्तेमाल करने का हम साझा संकल्प करते है।
-शिवमंगल सिद्धांतकर
महासचिव: सी. पी. आई. एम. एल. न्यू प्रोलेतारियन
फोन: 011-25269471, 09810400430

क्या न्याय की लड़ाई का भी वर्गीय पहलू है ?

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8 जून को शाम हो चुकी थी जब इलाहाबाद से लेखिका नीलम शंकर ने एस.एम.एस पर वह बुरी ख़बर दी थी कि सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद में निचली अदालत ने उमर क़ैद और जुरमानों की सज़ा सुनाई है. तब से अब तक बाईस-पचीस दिन बीत चुके हैं, मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. और अन्य कई संगठन हरकत में आ चुके हैं. दिल्ली में बैठकें हुई हैं, इलाहाबाद में बैठकें जारी हैं, रणनीति विचारी जा रही है, इरादे खंगाले जा रहे हैं, सलाहों और एकजुटता के संदेसों की झड़ी लगी हुई है, जो लोग अब तक ख़ामोशी से इन्तज़ार कर रहे थे वे आन्दोलित हो चुके हैं, पूरी उम्मीद है कि हम इस बार भी संगठित हो कर राज्य शक्ति का मुक़ाबला करेंगे और सीमा आज़ाद और विश्वविजय को रिहा कराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे.

लेकिन दोस्तो, इस मुक़ाम पर जब मैं थोड़ा रुक कर सोचता हूं तो मन में कुछ सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यह है कि क्या सीमा आज़ाद और विश्वविजय की रिहाई के बाद हम अपने संघर्ष कि इति मान लेंगे ? हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भले ही प्रशान्त राही और विनायक सेन जैसे लोग रिहा होने में कामयाब हो गये हों, अभी ढेरों बन्दी कमोबेश उन्हीं धाराओं में क़ैद हैं जो सीमा और विश्वविजय पर लगायी गयी थीं. वे अभी अनाम हैं. क्या हम तब चेतेंगे जब उन्हें भी ऐसी ही कोई सज़ा सुनायी जायेगी जो सीमा आज़ाद और विश्वविजय को सुनायी गयी है.  क्या तभी हमें उनके नामों का भी पता चल पायेगा ? क्या हम उस समय फिर एक बार हलचल से भर उठेंगे और भाषणों, तजवीज़ों, एकजुटता के संदेसों, राज सत्ता के प्रति कोसनों की झड़ी लगायेंगे ?

दूसरा सवाल जो इसी पहले सवाल से जुड़ा है, वह यह है कि क्या न्याय, समता, मानवाधिकारों की लड़ाई, हिन्दुस्तान को दमन और शोषण से मुक्त कराने की लड़ाई, का कोई वर्गीय पहलू भी है ? क्या जब हम सोचते हैं कि कौन-कौन राज सत्ता के निशाने पर है और किस-किस के लिए हमें आवाज़ उठानी चाहिये तो हम अपने समाज की तरह दो हिस्सों में बंट जाते हैं ? एक हिस्सा विनायक सेन और अरुन्धती राय को ले कर आन्दोलित हो उठता है जबकि दूसरे सामान्य वर्ग में आने वाले सीमा आज़ाद और विश्वविजय जैसे लोग तब तक उपेक्षित रहते हैं जब तक कि राज सत्ता उन्हें अपनी ओर से सज़ा सुना कर सारे मानवीय अधिकारों से वंचित न कर दे ? क्या इन सभी लोगों को यह नहीं बताना चाहिये कि वह कौन सी अड़चन थी जिसकी वजह से वे चुप बैठे थे ?

दोस्तो, यह सवाल इधर बहुत शिद्दत से मुझे परेशान करता रहा है. कारण यह है कि 6 फ़रवरी 2010 से ले कर 8 जून 2012 तक -- इन दो बरसों के दौरान हम सभी कमोबेश ख़ामोश और निष्क्रिय बैठे रहे हैं. बीच-बीच में सीमा आज़ाद और विश्वविजय के बारे में और वह भी ख़ासकर हिन्दी दैनिक "जनसत्ता" में कुछ ख़बरें ज़रूर प्रकाशित हुईं; मासिक पत्रिका "समकालीन तीसरी दुनिया" ने भी कुछ लेख-टिप्पणियां प्रकाशित कीं लेकिन बाक़ी जगह सन्नाटा छाया रहा. पी.यू.सी.एल. जो इस मुद्दे पर अपनी ही इलाहाबाद इकाई की संगठन सचिव के पक्ष में एक देश-व्यापी आन्दोलन छेड़ सकता था चुप बैठा रहा या सिर्फ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ता रहा. बाक़ी बहुत-से संगठन जो अचानक सक्रिय हो उठे हैं, हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे.

लेकिन आप देखिये कि विनायक सेन वाले मामले पर एक हंगामा बरपा हो गया था. बयानों की झड़ी लग गयी थी. अपर्णा सेन और शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्रियां ही नहीं, हमारी जुझारू लेखिका अरुन्धती राय भी मैदान में कूद पड़ी थीं. यह बात दीगर है कि छूटने के बाद सबसे पहला काम "सीमा बहन को छुड़ाने" का घोषित करने वाले विनायक सेन सीधे मोनटेक सिंह आहलूवालिया और उनके योजना आयोग से जा जुड़े. सीमा और विश्वविजय जेल में सड़ते रहे और अभी तक सड़ रहे हैं. 

इन पंक्तियों के लेखक ने दो बरस के इस अरसे में कम नहीं लगभग  बारह-पन्द्रह बार अरुन्धती राय से आग्रह किया -- कभी फ़ोन पर और कभी ईमेल द्वारा कि वे सीमा के मामले को उठायें. पर वे देश-विदेश घूमती रहीं, उन्होंने किसी भी  प्रेस सम्मेलन में या टिप्पणी में इस की चर्चा करना गवारा नहीं किया. ज़ाहिर है, उनकी तरफ़ हमारी निगाहें इसलिए उठी थीं क्योंकि उन्होंने -- अगर अपने मित्र अजय सिंह के शब्दों में कहूं तो -- "हमारी अपेक्षाएं जगायी थीं." इसके साथ ही मैंने कम-से-कम पांच-छै बार गौतम नौलखा से भी इस मामले को ले कर बात की. लेकिन वे कश्मीर जाने का वक़्त तो निकाल पाये लेकिन सीमा आज़ाद का ज़िक्र करने का नहीं. यह बात मैं इसलिए ज़ोर दे कर कह रहा हूं क्योंकि अरुन्धती राय अब केवल एक व्यक्ति नहीं रह गयी हैं, वे लगभग एक संगठन का स्वरूप ग्रहण कर चुकी हैं और गौतम नौलखा तो बाज़ाब्ता एक संगठन से जुड़े हैं और जिस तरह की लड़ाई की मांग सीमा का मामला करता था वह संगठित हो कर ही लड़ी जा सकती है.

क्या यह इसलिए होता है कि न्याय, समता और मानवाधिकारों की लड़ाई को वर्गीय नज़रों से देखा जाने लगा है. बड़े लोगों की गिरफ़्तारी और सज़ाएं तत्काल हलचल पैदा करती हैं, जबकि उसी लड़ाई को लड़ने वाले साधनहीन लोग गुमनामी में डूबे रहते हैं ? राजनीति में अगर-मगर का खेल नहीं होता पर मन करता है इस अटकल पर ग़ौर करने को कि पिछले दो वर्षों के दौरान अगर विनायक सेन और अरुन्धती राय जैसे लोगों के मामलों पर आन्दोलित होने के साथ-साथ हम ने सीमा आज़ाद और विश्वविजय के मामले पर भी आवाज़ बुलन्द की होती तो शायद राज सत्ता यह सज़ा देने से पहले दस बार सोचती और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से सीमा अज़ाद और विश्वविजय की अर्ज़ियां यों लौटायी न जातीं. क्योंकि यह बात अब स्पष्ट है कि यह सज़ा इसलिए दी या ऊपर से दबाव डाल कर दिलवायी गयी है क्योंकि हमारे गृह मन्त्री और गृह मन्त्रालय एक नज़ीर क़ायम करना चाहते हैं, लोगों को बताना चाहते हैं कि राज सत्ता का विरोध करने पर आप के साथ भी क्या या क्या नहीं हो सकता. 

बहरहाल, ख़ुशी की बात है कि हमारी साथी अरुन्धती राय ने अपने अत्यन्त व्यस्त कार्यक्रम से समय निकाल कर जुलाई के पहले हफ़्ते में यानी इस सज़ा के घोषित होने के महीने भर बाद प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करना स्वीकार कर लिया है और यह भी खबरें हैं कि वे लखनऊ में भी एक प्रेस सम्मेलन को सम्बोधित करेंगी. अगर ऐसा होता है तो यकीनन लड़ाई को बल मिलेगा. अंगेज़ी की कहावत के अनुसार हमें हर छोटे-से-छोटे और हर बड़े-से-बड़े अनुग्रह के लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिये.

लेकिन साथ ही अब वक़्त आ गया है कि हम एक बार फिर बैठ कर सोचें कि हमें रुक-रुक कर हरकतज़दा होने की बजाय निरन्तर इस मुहिम को जारी रखना है जब तक कि राज सत्ता का विरोध करने वालों को इस तरह क़ैदें और सज़ाएं दी जाती रहती हैं. और जो वर्ग-भेद धीरे-धीरे हमारी लड़ाई में रेंगता हुआ या रिसता हुआ चला आया है, उसे दूर करें.

१ जुलाई २०१२

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आज खुशी का दिन है. एक मंजिल हासिल की गयी है, सीमा आज़ाद और विश्वविजय को जमानत मिल गयी है, पर अभी लम्बा रास्ता तय करना बाकी है. न्याय की लड़ाई के बहुत-से मोर्चे हैं, बहुत-से मुकाम. हमारी जानी-मानी साथी और पत्रकार शीरीं ने यह लेख हमें भेजा है. इसे हम यहां दे रहे हैं इसमें अपनी आवाज भी मिलाते हुए

सीमा आज़ाद व विश्वविजय को मिली ज़मानत का निहितार्थ

आखिरकार सीमा आज़ाद और विश्वविजय को इलाहाबाद हाईकोर्ट से ज़मानत मिल गयी। सीमा और विश्वविजय के शुभचिन्तकों ने राहत की सांस ली। पिछले दो साल छः महीने उनकी जि़न्दगी में एक पीड़ादायी अध्याय के रूप में हमेशा के लिए दर्ज हो गए। पर सम्भवतः सीमा और विश्वविजय अन्याय की इस भट्टी में तप कर और इस्पाती बन गए होंगे। उम्मीद है कि आने वाले समय में वे जनता की लड़ाई में और धारदार तरीके से शरीक होंगे।
सीमा और विश्वविजय को जमानत अनायास ही नहीं मिल गयी है। इसके पीछे उस न्यायपसंद जनता की ताकत निहित है जो सीमा और विश्व के लिए उनको उम्रकैद की सज़ा सुनाए जाने के बाद से ही उनकी रिहाई के लिए लड़ रही थी। जिस दिन से निचली अदालत ने सीमा व विश्वविजय को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी थी, उसी दिन से देश भर के तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और ढेर सारी न्यायपसंद जनता इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलन्द कर रहे थे। तमाम सारे तरक्कीपसंद ब्लागांे ने उनकी रिहाई के लिए एक मुहिम छेड़ रखी थी। सीमा और विश्वविजय के पक्ष में नेट के आभासी संसार पर भी एक मुहिम सी छिड़ी हुयी थी। ऐसे में हाईकोर्ट का यह फैसला इन तमाम लोगों की जीत है। सम्भव है चिदम्बरम की गृहमन्त्रालय से विदाई भी इस रिहाई के लिए जिम्मेदार एक कारक हो।
लेकिन सीमा व विश्वविजय के ज़मानत से न्याय-अन्याय की परिभाषा नहीं बदल जाती। यह लड़ाई यहां आकर समाप्त नहीं हो जाती। लड़ाई अभी बहुत लम्बी है। अभी भी देश के तमाम जेलों में हज़ारों की संख्या में राजनीतिक बन्दी हैं। जो धारा निचली अदालत द्वारा सीमा-विश्वविजय को आजीवन कैद का फैसला सुनाए जाने के बाद से बही थी उसका रुख अब इन तमाम राजनीतिक बन्दियों को छुड़वाने की दिशा में मुड़ जाना चाहिए।
सीमा व विश्वविजय की रिहाई का एक मायने यह भी है कि अब मसला माओवादी होने या न होने का नहीं है। मसला है, सही और गलत का। आज बुद्धिजीवियों और समाज का एक तबका अपना पक्ष तय करने लगा है। सरकार को अगर लगता है कि न्याय के पक्ष में खड़ा होना माओवाद है, हर तरह के अन्याय का प्रतिकार करना माओवाद है, अगर पत्रिका निकालना माओवाद है, अगर इस देश के जल, जंगल, ज़मीन पर जनता के कब्जे की बात करना माओवाद है, अगर हक-हुकूक की बात करना माओवाद है, अगर विस्थापन के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर भूमि के बंटवारे की मांग करना माओवाद है, अगर मंहगाई के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर ग़रीबी के खिलाफ संघर्ष करना माओवाद है, अगर सबको शिक्षा की मांग करना माओवाद है, अगर बेरोजगारी के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर छात्रसंघ की बहाली की मांग करना माओवाद है, अगर किसानों की आत्महत्या के खिलाफ खड़े होना माओवाद है, अगर मजदूरों के संघर्षों में शामिल होना माओवाद है, अगर कश्मीर, उत्तरपूर्व, बंगाल, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि की संघर्षरत जनता का पक्ष लेना माओवाद है तो ज़रूरी है माओवाद को पब्लिक बहस का एक मुद्दा बनाया जाए और उस पर खुल कर चर्चा की जाए। अगर मसला उपरोक्त सवालों पर केन्द्रित है तो कहीं न कहीं इस देश की 80 प्रतिशत जनता माओवाद की ज़द में आ जाती है।
सरकार अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए माओवाद को देश का नम्बर एक खतरा बताते हुए तमाम संघर्षाें ेमें शिरकत कर रहे लोगों का मुंह बन्द करने की मंशा रखती है। लेकिन इतिहास गवाह है कि जनता की आवाज़ को कभी भी कोई भी सरकार फौजी बूटों से नहीं कुचल पायी है। जनता की ताकत के सामने सरकार हमेशा गश खाती रहती है। उसे हमेशा अपने अपदस्थ होने का खतरा बना रहता है।
ऐसे में सीमा और विश्वविजय की ज़मानत का एक अर्थ यह भी है कि जिस माओवाद से सरकार इतना खौफ खाए हुए है उसे सिर्फ सरकारी नजरिए से और कारपोरेट मीडिया के नजरिए से न देखा जाए। ऐसे में इस आन्दोलन को ज्यादा से ज्यादा समझने, और उस पर चौतरफा बहस करने की ज़रूरत है। सीमा व विश्वविजय की क़ैद और उनको मिली ज़मानत का सम्भवतः यही निहितार्थ है।

शीरीं
6.8.12

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               भूमिका द्विवेदी की एक कहानी सभी कथा-प्रेमियों के लिए    
                 
                     रेड लाइट वर्सेज़ रेड लाइट एरिया


                    “दिमाग़ ख़राब हो जाता है स्साला हिसाब देते-देते .. अरे कैबिनेट की मिनिस्ट्री मिली है कि बनिये का बहीखाता खुल गया है ..जिसको देखो मू उठाये चला आता है ..दम मारने को भी स्साला जगै खोजनी पड़ती है .. चैन से जीने ही नहीं देते साले सब ...."
  कमरे में घुसते ही मंत्री जी बड़बड़ाने लगे।

मालविका शांति से बैठी कल हुए प्ले का रिव्यू पढ़ रही थी।
पहली बार भानु जी के साथ काम करने का मौका मिला था, देर रात एन.एस डी.से लौटी थी .
त्रिपाठी जी के बेकल स्वरों ने उसे बीच में ही उठा दिया।

  मालविका ने बोतल खोली, दो पैग बनाये .. एक बेहद लाइट, सोडा-भर गिलास में दो चम्मच रम और दूसरा ज्यादा ही हार्ड, गिलास भर रम में दो चम्मच सोडा।
रम जाने को कुछ तो चाहिये ना ..कहाँ रमे, आदमी नाम का प्राणी, इस हलाकान कर देने वाली बेतहाशा, दौड़ती-भागती दुनिया में ...
ज़हरीली, रेंगती-रिरियाती दुनिया में...
हर लम्हा हर रंग बदलती, घिघियाती, मिमियाती दुनिया में...
उसने चुपचाप दोनों गिलास टेबल पर रख दिए और मंत्री जी को देखने लगी।

   लकदक सफ़ेद कुर्ते के ऊपर पहना बुलेट-प्रूफ जैकेट उतार कर आलमारी में रखा राजशेखर त्रिपाठी जी ने, रिवॉल्वर भी वहीं रख दी। कुर्सी पर बैठते-बैठते  उनका अन्दर से उबला हुआ जी और गरमाया हुआ बेचैन जिस्म वाणी की शक्ल लेकर फिर सक्रिय हो गया,
                     
         "घर जाओ तो वो देहातिन चली आती है, टेसुए बहाती.. जब देखो झाओं-झाओं…
ये नहीं लाये, वो नहीं ख़रीदा .. इसका मुंडन, उसका जनेऊ .. ई नहीं दिया, ऊ नहीं पंहुचवाए.. ससुरी भेजा खा जाती है.. बाबूजी अलग सिर-दर्दी लिए हैं .. चउथा पेट्रोल-पम्प काहे हाथ से जाने दिए ..  तीन से पेट नहीं भरा उनका… उनके साढू के नाती के बियाह में देना है उन्हें …सी एम की भतीजी से तय कर आये हैं लपक के। तब तो मसविरा नहीं किये थे हमसे। अब काहे उम्मीद कर रहे हैं।“
   राजशेखर एक-दो घूँट हलक़ में ढनगाने को रुका दम भर के लिए, तत्क्षण उसने अपनी चिर-परिचित रौ फ़िर से पकड़ ली :
       “और वो चूतिया, दुई बार पार्टी छोड़ के भग गया था। अब भगोड़े के रिस्तेदार कहलायेंगे हम्म। बीस साल से पार्टी की सेवा कर रहे हैं हम, और रसमलाई चाटेगा वो मिसरवा की दुम्म्म। अरे सादी-बियाह में पेट्रोल-पम्प काहे भिड़ा दिए बाबूजी। टिकट तो जित्ते कहें हम बिछा दें उनके चरणों में…..ऊ चिन्दी-चोरों के न्योछावर में उड़ाये, चाहे नातेदारों के बीच हवा बनाये। हमें कउनो दिक्कत नहीं। लेकिन जबरियन की  झाओं-झपड़  नहीं अच्छी लगती ….. मेरा अपना बस चले तो हाई कमान के दरवज्जे मूतने ना जाऊं, लेकिन बाबूजी रिरियाने भेज के ही दम लेंगे ...”

      त्रिपाठी जी को कैबिनेट में अभी-अभी जगह मिली थी, सांसद की कुर्सी तो वो बरसों से तोड़ रहे थे ।
वो लम्हा भर फिर से खामोश हुए, आवाज़ में नरमी उड़ेलते हुए बोले :

        "माल्नी आप काहे चुप्प हैं .... और  इत्ता दूर काहे खड़ी हैं हमसे ?
गुस्सा हैं का हमसे .. हम तनिष्क वाला सेट आडर कर दिए हैं, आपके लिए .. परसों होम-डिलेवरी हो जायेगा… ई लीजिये रसीद ..."
 
   अपने झक्कास सफ़ेद कुर्ते की जेब से उसने फ्रेश बड़ी-सी रसीद निकाली।
पहले तो टेबल पर, बोतल के बगल में रखनी चाही, लेकिन फिर हाथ में लिए-लिए ही बोले, "लीजिये, लीजिये माल्नी, रख लीजिये कही सँभाल के।"
 मालविका के बोल अब फूटे जो काफी देर से गिलास हाथ में लिए राजशेखर को देख रही थी,

     "अरे मंत्री जी, आप नाहक हमें पटाने की कोशिश क्यूँ करते हैं। हम तो पटे-पटाये हैं आपके। ये सब ड्रामा फ़ैलाने की क्या ज़रूरत है ... ये सेट-वेट आप अपनी घरवाली के लिए रख लीजिये.. मुझे नहीं चाहिए. वास्तव में नहीं चाहिए मुझे।"
 "क्यों नहीं चाहिए आपको .. हर लड़की को चाहिए , तो फिर आपको क्यों नहीं चाहिए.. ये तो हम आपके लिए इस्पेसल बनवाए हैं ."
  मालविका धीरे से राजशेखर की कुर्सी तक पँहुची, उसके चौड़े सीने पर सिर टिकाया, वही चन्दन का इत्र महका जो उसने राजशेखर को गिफ्ट में दिया था .. वो मुस्कुरा दी।
उसने उसके मजबूत कंधे को ज़ोर से पकड़ा और बोली :
"त्रिपाठी जी, ये सब काहे के लिये … तुम हो ना बस्स.. कुछ  और की दरक़ार नहीं मुझे .. तुमसे दूर बहोत अकेली थी मैं, अब कुछ भी नहीं चाहिये मुझे ... सब कुछ है, जो तुम हो मेरे पास .. ये सबका बोझ ना चढ़ाओ मुझ पर .. "
   मालविका का लहजा ज़रा सा बदल गया .. उसने शरारती अंदाज़ में आगे कहा, “...और फिर तुम्हारा अपना वज़न कोई कम है क्या मुझ बिचारी पर चढ़ाने के लिए .."

राजशेखर ने गिलास रखा और बड़े आवेग, बड़े प्यार से, बड़े ही दुलार से मालविका को समेट लिया ..
करीब बीस मिनट तक दोनों ख़ामोश रहे।
फ़िर मालविका ने ही पूछा,
"खाना लगवा दूँ, या खाकर आये हैं प्रेसीडेंट-हाउस से .. आज तो मीटिंग थी ना कोई ?"
   "मै सोचता हूँ, तुम ना होतीं तो मेरी ज़िन्दगी का क्या होता .. यूँही बिना सुकून, बिना चैन-आराम के भटकता रहता दुनिया के फ़रेबी जंगल में।"
"जंगलराज में ही तो कुर्सी मिली है तुमको .. ऐक्चुअली तुम हो ही जंगल के राजा .. जंगल का राजा जंगल में नहीं फिरेगा तो और कहाँ है उसका ठिकाना .. "
राजशेखर मुस्कुराने लगा। उसने मालविका को और ज़ोर से जकड़ लिया। उसका सारा क्रोध, उसकी उलझनें, उसका शुद्ध यूपी वाला तेवर, उसका भाषा-प्रवाह, सब नियंत्रित हो गया अपने आप।

अब उसकी दारू की तलब भी जाती रही।
 "आपने खाना नहीं खाया होगा ना.. मै भी फोर्मेलिटी करके ही लौटा हूँ . चलिये आप साथ में खा लीजिये ....”
उसने उपेन्द्र को आवाज़ दी,
"खाना लगा दो, फुल्के सेंको, हम आ रहे हैं.. और सुनो कार में कुछ पिस्ते की बर्फ़ी रखी हैं, उसे लेते आना। "मन्त्री जी मालविका का टेस्ट खूब जानते हैं।

उपेन्द्र, राजशेखर का पुराना घरेलू नौकर था, और उसका सबसे पक्का राज़दार भी, ख़ास कर उसकी लौंडियाबाजी का .. यहाँ पासा पलट जाना उसकी अन्तरात्मा को सुहा नहीं रहा था, उसके ’दुधारू गाय’, मन्त्रीजी किसी एक के ही आंचल से काहे चिपके बैठे हैं, आगे बढ़ना भूल गये क्या।

वो देर से, कमरे के बाहर आदेश के इंतज़ार में बैठा था,फ़ौरन रसोई में दाख़िल हुआ
मालविका, राजशेखर के सीने में चेहरा छुपाये रही।
राजशेखर ने उसे उठाया,
“चलिये खा लीजिये, नहीं आप सो जाएँगी ...नौकर-चाकर भी आराम करेंगे।"


 सबेरा हुआ..
लाल सूरज ने सलामी दाग़ी, चिड़ियें चहचहाई, हवायें गुनगुनाईं।
बेसुध रात की, बेक़रार ख़ुमारी को जैसे अल-सुबह के मदमस्त सुरूर ने सीना ठोंक के चुनौती दी। राजशेखर ने ’लेमन-ग्रास’ कटवाई, महकती-सोंधी चाय खुद तैयार की अपनी बौद्धिक खूबसूरत शहज़ादी के लिये।

राजशेखर विद्यार्थी-जीवन से ही सबेरे उठने का आदी था।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय का पढ़ा था, सर सुन्दर लाल छात्रावास की छत प्राणायाम करता था।
रोज़ाना पाँच मील की दौड़ लगाता था।
उसका छह फुट दो इंच लम्बा-गोरा-सख्त बदन कसरती अंदाज़ से दमकता था।

सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उसने अपना टाइम-टेबल नहीं बिगाड़ा था।

ना जाने उसे क्या सूझी के अपनी लगी-लगायी सरकारी नौकरी छोड़ दी, फिर अपने होम-टाउन से एम.एल.ए. हुआ। लेकिन सुबह की सैर पर ज़रूर निकलता था।
 अपने बॉडीगार्ड्स को भी उसने अपनी आदत के साँचे में ढाल लिया।
अब जब ‘शहरी विकास मन्त्रालय’ का दारोमदार उस पर आया तो भी वह अपनी आदतों से,
 अपनी जीवन-चर्या से कोई समझौता न कर सका।
वही पुरुषोचित गर्व से तना सिर , वही लुभावने अंदाज़ और एकदम वही मीठी बेहद विनम्र वाणी .. ।
वही झूमकर चलने वाली निराली-अदाबाज़ चाल, वही मस्ती, वही सम्मानित गुरूर भी।
  कुछ अगर बदला तो जीवन में दो अहम चीजें बदलीं, एक घर-खानदान की जबरदस्त अपेक्षायें बदल गईं, सच कहा जाये तो बदली नहीं बल्कि बहोत बढ़ गईं।
और दूसरी ... दूसरी उसके बिस्तर पर नई लेकिन एक ’स्थायी’ लड़की।
 ये नई लड़की मालविका मिश्रा, उसे यूँ ही एक दिन मिल गई ..... ।
ऐसी मिली की ना छोड़ते बनी, ना अपनाते। दो बड़े बच्चों का पिता लगभग आधी उमर की लड़की से  कैसे, किस मुँह से ब्याह रचाये ?
  खानदान-समाज-बिरादरी को क्या जवाब दे, बहनोई-भतीजों-भांजियो से कैसे, किस तरह आँख मिलाये?
बड़े सवाल थे, परेशान करने वाले प्रश्नचिन्ह थे .. ।
राजशेखर जिस परम्परावादी, मर्यादित और मान-सम्मान वाले परिवार से  वाबस्ता  था, वहाँ इस तरह की कोई भी चर्चा जलजला लाने से कम नहीं थी।

   लेकिन दूसरी कोई से भी उसका जी नहीं लगता, उसका पेट ही नहीं  भरता था।
कोई उबाऊ किस्म की, कोई अजब नखड़ीली, कोई गज़ब भड़कीली, कोई चलती-फिरती मेकअप की दुकान सी तो, कोई संत-साध्वी सी। कोई ऐसी चिपक गई थी के छुड़ाए नहीं छूट्ती, सिर पर पाप की तरह मढ़ी हुई।
  खूब हँसता था, मालिनी को बता-बताकर, किसी की काली-काली टांगें तो किसी  की मोटी तोंद, किसी की उल्लू-पंती की बातें, तो किसी की  झटुअल-बेहूदा कवितायें, किसी के चिरकुट एस.एम.एस. तो किसी की लीचड़ फोटुयें ….।

   वैसे तो  नेता जी से कोई प्रान्त, कोई रंग, कोई देस-भेस, कोई भी  ज़बान बोलने वाली, कोई जात-बिरादरी, कोई संस्कृति, कोई संस्कार का, बदन छूटा ना था चखने से।
कभी बाढ़-पीड़ितों की राहत-सामग्री का मुआयना  करने के बहाने, तो कभी सूखा ग्रस्त इलाकों के दौरे के बहाने, कभी विदेश-यात्रा में, तो कभी इलाज के नाम पर, घूम-घूम कर, ढूढ़-ढूढ़कर, झूम-झूम कर, उसने हर तरह के तन-बदन  का खूब भरपूर सेवन किया था, ….और तो और शोक-सभाओं और प्रार्थना-सभाओं में भी उसकी मौजूदगी उसकी तयशुदा रातों का ही सबब होती थीं।
लेकिन मालविका नाम की ’बूटी’ ने ऐसा क्या असर बरपाया कि मालविका के बाद उसे कोई और नहीं सुहा रहा था।
जबसे वो मालविका के फेर में पड़ा, उसका दिल कहीं रम ही नहीं पाया।
बल्कि ये कहना ज़्यादा सही होगा कि वो दोनों एक दूसरे में ही रमते थे.. ।
दोनों एक दूसरे के बिना बड़े बेचैन हो जाया करते थे, एक दूसरे से ही दोनों का जी खूब लगता था .. ।
मालविका की सोहबत बचपने से विलायती रही। उसके पितामह स्वीडन के प्रान्तीय-विश्वविद्यालय में ता-उम्र संस्कृत के प्राध्यापक रहे। बाप अमेरिकी महिला से ब्याह करके कैलिफोर्निया में नौकरीयाफ़्ता जीवन में अनुरक्त हुए। उसकी अपनी सगी माँ संस्कृत की विदुषी जानी जाती थी। उसने वृन्दावन के एक विधवाश्रम में अपनी बची जिंदगी के लिए रास्ते खोज लिए थे।
अब शेष रह गई थी, इकलौती औलाद मालविका।
उसे नियति ने आवारा फिरंगियो की बेलगाम-टोली का बेबाक सदस्य बनाया था।
जहाँ वो अपनी स्वछन्द ज़िन्दगी के दिन सिगरेट के उन्मुक्त धुएं में और मँहगी शराबों के निर्बाध प्रवाह में काफी हद तक बर्बाद कर रही थी।
धुएं के उस ग़ुबार में और प्रवाह की उस ख़ुमारी में, ना अतीत का कोई भी मातम था, और ना ही भविष्य की कैसी भी परवा।

राजशेखर का साथ मिलने से पहले इस रंग-रंगीले ब्रह्माण्ड का फेरा लगा कर हालिया ही लौटी थी। दिलजलों की बस्ती दिल्ली में, थियेटर के बहाने दिल  लगा रही थी।

मालविका को आत्मा से देसी-मिट्टी का चाव था।
विदेशी फूल चाहे जितने रंगीन हों, आकार-प्रकार-प्रजाति से जी को लुभाते हों, लेकिन ’देसी महक’ का मुक़ाबला नहीं कर सकते ।
यही मजबूत प्यारी देसी  महक मालविका को राजशेखर के दामन में, चौड़े सीने में, ऊँचे-विशाल कंधो के साथ-साथ, उसके घर-आंगन में  भी मिली थी .. ।
  इस सोंधेपन ने मालविका के तन-बदन-मन में एक सुरक्षित जगह बना ली और आत्मा में जगह बनाने के लिए राजशेखर का तृप्ति से आकंठ सिंचा हुआ मधुर-मादक-मदमस्त सुरीला प्रेम था।

राजशेखर का ये करीने से सजा आवास मालविका को उसके पैतृक घर की याद दिलाता था, जिसे उसे बहोत-बहोत लाड़-दुलार करने वाली उसकी दादी ने बसाया था।
 वही आत्मीयता  सोंधेपन से सराबोर घर, जहाँ गेंदे-रजनीगंधा-देसी गुलाब की लहकती क्यारियाँ थीं, रातरानी-इन्द्रबेला-जूही-चमेली की महकती बेलें थीं, चौखट पर मुस्कुराता लाल गुड़हल का पेड़ था, जो देवी-माँ को चढ़ता है, जिसकी पूरे नवरात्रि भर बड़ी डिमांड रहती थी .. अशोक का मस्ताना, झूमता पेड़ था, शिव लिंग पर चढ़ाया जाने वाला बेल-पत्र का वो काँटे वाला पेड़ भी था, जो बड़े गैराज की दीवार के पीछे मुस्तैदी से  सभी आने-जाने वालों पर दिन-रात नज़र रखता था, एक कुआं भी था, जिसके ठंडे पानी की बोरिंग बाबा ने पूजाघर तक करा रखी थी।  
जजेज़-कॉलोनी का फैला-पसरा मकान जिसमे मालविका ने अपना बचपन बिताया  था। बाबा का स्पेन से छुट्टियो में यहीं आने-जाने-रुकने का अपना का ठौर था।
काली गायें , घर का बना घी-रबड़ी,  मुनक्का और गाँव से आया ताज़ा देसी गुड़ ..... सब सब
रह-रह कर, एक-एक कर, तेज़ हवा में फड़फड़ाते पन्नों सा सामने से गुज़र जाता और वो लिपट-लिपट, महक-महक, चहक-चहक जाती थी, राजशेखर नाम की ’दिलफ़रोश फुलवारी’ के चहुँ-ओर।

मालविका एक थियेटर-ग्रुप की मामूली-सी कलाकार थी।
बनारस की गलियों से संसद-भवन के अव्वल-दर्जे नौटंकी-निर्माताओं तक अपने थियेटर-ग्रुप की प्रस्तुतियों के माध्यम से ही पँहुची थी। मालविका मिश्रा और राजशेखर  त्रिपाठी एक दिन एस. आर. सी. (श्री राम सेंटर) में हैमलेट की प्रस्तुति के दौरान एक साहित्यिक मित्र की मध्यस्थता से मिले थे।
राजशेखर  त्रिपाठी अपने मित्र की मित्रता का मान रखने को प्ले देखने आया था।
वरना तो लाल-बत्ती वाले फीता काटने और उद्घाटन-दीप जलाने ही आते थे, और बड़ा हाथ हिलाकर, नौटंकी भाँज कर चले जाते थे। निर्देशन की बारीकियों, कलाकारों के अभिनय-क्षमता का के कमाल या फ़िर मंच और लाइटिंग में रँग के उपयोग का महत्व से  भला इन सब ड्रामेबाजों का क्या वास्ता ?
यहाँ तो व्यवहार निभाना था, और बनावटी सत्कार की दरकार को छोड़कर आना था।
लेकिन मज़ा तो ये हुआ,वो कहीं और ही गिरिफ़्तार, बेक़रार हो गए थे .सच तो ये था,
 कि वो प्यार में पड़ गए थे।
पहले-पहल उन्होंने मालविका को बड़ी सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा था।
क्योंकि छोटी जगहों पर, छोटे-कस्बों-शहरों में थियेटर को ही बड़ी सम्मानित दृष्टि से देखा ही नहीं जाता था।
राजशेखर त्रिपाठी, छोटे शहरों की छोटी मानसिकता से वो बाहर नहीं निकल पाया था। उसका मन-कर्म-वचन उसकी तुच्छ सोच की गवाही यदा-कदा देते रहते थे ..
छोटे-कस्बों-शहरों में थियेटर का कारोबार प्रायः वही लोग सँभालते थे, जिनका पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा मन नहीं लगता था। और ऐसे लड़के-लडकियाँ तो ख़ास कर थियेटर में बहुतई उचकते थे, जिनका गली-मोहल्ले में कोई न कोई टांका भिड़ा हो .. ये लोग थियेटर के बहाने अपने-अपने दिलदारों से घंटों नैन-मटक्का करते थे।  देहात-कस्बों की लडकियाँ अपने इन थियेटर वाले 'लच्छनों'के चलते पर्याप्त बदनाम भी होतीं थीं।
   इसी तरह का  थियेटर-परिवेश जानता था। दिल्ली-मुंबई के हाई-प्रोफाइल और मँजे हुए स्तरीय थियेटर  से उसका राबेता अभी तक नहीं रहा था।
   अपनी उसी दकियानूसी और घटिया नज़रिये से थियेटर को देखा और बड़ी नाज़-ओ-अदा से  लपक कर, मालविका को 'स्पेशल डिनर'का न्योता भी दे आया था।
ये बड़ी विचित्र अजीब-ओ-गरीब पहली रात थी दोनों की।
एक दूसरे के साथ दोनों एक बहुत बड़े से अकेले कमरे में थे।
चाँदनी भी छिटक-छिटक कर ख़ूब सुनहरे गीत गा रही थी।
इस पूरे खुशनुमा प्रकरण में अजीब ये था के दो के दोनों एक दूसरे को "कुछ और ही"समझ कर मिले थे।
यदि  वे एक दूसरे की ज़मीनी वास्तविकता से परिचित होते तो यूँ तन्हाई में मिलना होता ही नहीं।
मालविका का ताज़ा ब्रेकअप उसके स्पेनिश प्रेमी निकोलस से हुआ था, खुद को बहला रही  कि उसी वक़्त राजशेखर महोदय टकराए थे।
यदि  हकीक़तों को जानते, तो निस्सन्देह आज एक दूसरे के सामने हर्गिज़ ना होते।

  मालविका ने समझा कोई थियेटर का सच्चा कद्रदान होगा।
तभी अदना-सी कलाकार को बड़ी भारी हैसियत से न्योता दे रहा था, अरे भाई पहली बार में ही शानदार लाल-बत्ती गाड़ी भिजवाई थी लिवाने के लिए।
उधर राजशेखर ने समझा, थोडा टेस्ट में बदलाव और तजुर्बे में इज़ाफा हो जायेगा और खूबसूरत-अदाबाज-संभ्रांत लड़की के साथ एक नई रात रंगीनी में बीत जाएगी।
राजशेखर  इतनी चापलूसी और सलीके से निमंत्रण देकर गया कि मालविका इस ज़रूरत से कहीं ज्यादा विनम्र प्रस्ताव को ना नहीं कह सकी थी।
वो ये समझ कर निकली थी, थियेटर के इतिहास पर विमर्श होगा, बड़े-बड़े सम्मानित कलाकारों के काम करने के अनुभव पर चर्चा होगी, एक सुन्दर-सभ्य-सलीकेदार डिनर के बाद वो अपनी पी.जी. समय से लौट आयेगी।

लेकिन वो रात कड़वी गोली जैसी थी, जिसे आत्मीयता और भ्रम के आकर्षक और मनमोहक वरक़ में लपेटकर राजशेखर ने मालविका को चखाने का एक असफल प्रयास किया था।
मालविका गुस्से से आगबबूला होकर दनदनाती हुई, आधी रात को हॉस्टल लौट आई थी।
अकेले बिस्तर पर पड़ी सोचती रही, "ये साले लाल-बत्ती वाले लड़की को इंसान कब समझेंगे .कलाकार, लेखक या कोई भी सर्जक कब समझेंगे ..  कितना कमीना निकला साला .. ब्राह्मण होकर भी इतना अधमी। उफ़्फ़, बेकार चली गई मैं। बड़ा थियेटर का भक्त बता रहा था खुद को .. दुष्ट . पाखंडी . बदतमीज़।"

और इधर राजशेखर तो एकदम ही झन्ना गया था। उसके पांव के नीचे से ज़मीन जैसे कि हिल गई हो।
‘ये क्या हुआ।’
 उसको तो कुछ समझ ही नहीं आया।
ना जाने कितनी रात कितनी लौंडियो के साथ बिताता रहा था, कितनी-कितनी सेवा करके, बहला-के-फुसला-के, अपनी-अपनी फीस लेकर जाती रहीं थीं। किसी ने पच्चीस तो किसी ने पचास ऐंठे थे।
किसी ने सरकारी नौकरी लगवाई, तो किसी ने प्रोमोशन करवाया, कोई अपने होमटाउन में ट्रान्सफ़र करवा गई।
किसी ने तगड़ा लैपटॉप झटक लिया तो किसी ने केवल मंहगा मोबाइल बदलवाया।
अब तो नारी-जागरण का ज़माना था, टिकट के लिए भी नारियाँ आती रहीं और नाड़े खुलवाती रहीं।

लेकिन ... लेकिन ये कौन आयी. ये कैसी लड़की आई ..?
चार गाली सुना कर, झटक-फटक कर चली भी गई।
अरे चूमा-चाटी तो दूर की बात हाथ तक नहीं लगाने दी।
ऐसी करारी गाली तो किसी औरत से आज तक नहीं खायी थी। सब ‘मंत्रीजी-मंत्रीजी’ करती फिरतीं थीं, ‘नेताजी-नेताजी’ करके सीने से लिपटाती फिरती थीं। आगे-पीछे डोलती थीं।
लेकिन ये हुआ क्या मेरे साथ ?’

राजशेखर यही सब सोचता रहा देर तक। फिर चार पैग चढ़ाये और झल्लाकर सो गया।
सुबह हाउस पँहुचना था। मॉनसून-सेशन चल रहा था।
उसका मन नहीं लग रहा था। बगल में बैठे शहाणे ने टेबल थपथपाया, तो उसने खुद को संसद के अन्दर बड़ा बेचैन पाया। लंच-ब्रेक में उसकी बेक़रार उंगलियों ने मालविका का नम्बर लगाया, जिसे मालविका ने उठाया ही नहीं।
देर रात गए राजशेखर ने फिर उसे फोन लगाया।
आँखे बंद किये मालविका मनोयोग से हेडफोन लगाये मेंहदी हसन साहब को सुन रही थी। सेल फोन की झनझनाहट से आँखे खोली और बड़ी लापरवाही से उसने फोन डिसकनेक्ट कर दिया।
मालविका प्रायः इसी मुद्रा में सोती आई है, और उस दिन भी ऐसे ही ग़ज़लों की गोद में सो गई।

 दूसरे दिन सवेरे कॉलेज में रिहर्सल के लिए जाते वक़्त उसने कपड़े बदले, उसे ख़याल आया कि उसका मैचिंग-स्कार्फ राजशेखर के बँगले में छूट गया है। गुस्से में दनदनाती हुई उठकर चली जो आयी थी.
निकोलस  ने गिफ्ट किया था, धर्मशाला से लाया था, सभी ड्रेस पर चलता था, कितना सुन्दर और यूनिक था,  हर रंग के साथ फबता था, मल्टी-कलर्ड जो था .. अब क्या, गया हाथ  से।
‘वो बेहया आदमी अब क्या लौटाएगा ! जाये भाड़ में रंडीबाज कहीं का !
दूसरा ले ही लूंगी कही से..एकदम वैसा मिलना मुश्किल है, फिर भी कोशिश करती हूँ सरोजिनीनगर या जनपथ में कहीं.. ।
मैंने सच में पाप किया उस कमीने के यहाँ जाकर ही !
कितना अनमोल स्कार्फ गंवा दिया, उफ़ !
बत्तमीज़ मंत्री कहीं का, हुँह !’
मालविका ने गुस्से में भुनभुनाते हुए नीली जीन्स की जगह काली जीन्स चढ़ायी, प्रिंटेड शॉर्ट-कुर्ते की जगह सफ़ेद चिकेन की हाफ शर्ट पहनी और काली-सफ़ेद स्कार्फ हाथ में लपेट कर कॉलेज की ओर निकल पड़ी।

  राजशेखर ने दोपहर बाद एक बार और आख़िरी उम्मीद लगाकर मालविका को फोन घुमाया, ये सोचकर कि, "आज भी नहीं उठाई, तो दोबारा नहीं ही करूँगा..बहोत देखी हैं इस जैसी नकचढ़ी, अरे एक गई तो सौ आएँगी और फिर इस साली की औक़ात ही क्या है, लेकिन घमंड तो देखो, आसमान चढ़कर बरसता है …बस्स ये आख़िरी कॉल है मेरी ..।”
ये राजशेखर का आख़िरी कॉल दोनों के ही जीवन में न सही तूफ़ान मगर, अंधड़ लाने वाला ज़रूर सिद्ध हुआ।
दोनों की जिंदगियो में ऐसा कोई हड़कंप तो नहीं मचा, लेकिन दोनों के ज़ेहन में पलने वाले बड़े-बड़े भ्रम ज़रूर टूट गए।
ठीक उसी तरह जैसे तूफान तो पूरा शहर ही उजाड़ डालता है लेकिन, अंधड़ केवल जमे हुए पक्के बड़े पेड़ों को जड़ से उखाड़ डालता है।
रिहर्सल के दौरान ये फोन-कॉल आयी थी, जब मालविका को अपने डायलॉग पर सरसरी निगाह डालकर मंच पर उतरना था।
उसने थोड़ी-सी लापरवाही से फोन रिसीव किया, कि शायद स्कार्फ लौटाने को मंत्री जी कॉल कर रहे हों।
वैसे भी किसी अनमोल चीज के लिए एक फोन रिसीव करना बड़ी क़ुरबानी नहीं थी
एक अत्यंत संक्षिप्त औपचारिक बातचीत में स्कार्फ लौटाना तय हुआ।
उसी शाम राजशेखर के पर्सनल-ड्राईवर ने मालविका को फोन किया कि वो अपने हॉस्टेल-गेट पर आकर अपना स्कार्फ ले ले …
वो गेट पर आयी तो पाया राजशेखर ख़ुद मिठाई का डिब्बा और सलीके से इस्त्री किया स्कार्फ लिए खड़ा है।
बिना लाग-लपेट के, बिना किसी भी औपचारिकता के, किसी भी कैसे भी अभिवादन के बगैर उसने झपटकर उसने अपना स्कार्फ ले लिया और पलटकर जाने लगी तो राजशेखर ने फ़ौरन रोका,
"सुनिए तो, ये मिठाई भी आपके लिए है। इसे भी ले लीजिये।"
"मिठाई किस लिए भला?"उसने नाक-भौं चढ़ाकर पूछा।
"आपको मीठा पसंद है ना, इसलिए भला,"राजशेखर ने अपनी वाणी को चाशनी की कढ़ाही में डुबो कर निकाला।
"आइ डोन्ट वॉन्ट एनिथिंग एल्स, इक्सेप्ट माय स्कार्फ,"मालविका लगभग गरज कर बोली।
"लेकिन सुनिए तो, त्यौहारों का सीज़न है आजकल, ऐसे ना नहीं कहते. देखिये किसी की कोई चीज़ खाली हाथ नहीं लौटाते। ये तो तमीज़ की भी बात हुई ना ?"

"ओहहोहोहोहो, तो तमीज़ जानते हैं आप ????
अर्रे वाआह !!! "मालविका ने भरपूर आँख नचाकर, खूब बुरी तरह भौं मटका कर गुस्से से तमतमा कर कहा।
राजशेखर के दिल में शायद एक तीखी छुरी पहले ही चुभी हुई थी, मालूम होता था वो छुरी आज और गहरी धँस गई है, गहरी उतर गई है।
वो उसे प्यार से देखता रहा और मुस्कुरा दिया; और ये तिलिस्मी मर्दाना मुस्कुराहट जिसके असंख्य/अनेकों अर्थ होते हैं, मालविका की तमतमाहट, उसके क्रोध को कुछ, ज़रा-सा हल्का कर गई।
"आप उस दिन बिना खाए, बिना विदा लिए ही लौट आयी थीं। नाराज़गी वश ना?"
"उस दिन की बात ना करें तो बेहतर होगा। ओकेA"
"आपका आदेश सर माथे पर।"राजशेखर मुस्कुराता रहा, जवाब देता रहा।
"ये नाराज़गी वश अच्छा यूसेज़ है, शुद्ध हिंदी के साथ उर्दू भीA नाईसA"मालविका के स्वर कुछ सामान्य हुए।
"देखिये उस दिन की बात ना करने का फ़रमान मिला है मुझे, क्या मै आज की बात कर सकता हूँ?"
"कैसी आज की बात, भला?"
"चलिए, कहीं चलते हैं, पाँच-सात मिनट्स के लिए ही सही। अगर आपको पसंद नहीं तो हर्गिज़ घर नहीं, जहाँ आप कहें, वहीँ सही। आप जिस जगह कहिये वहाँ खाना खाकर लौट आयेंगे। आप को हॉस्टल छोड़ के मैं घर निकल जाऊँगा। बस आपकी हुकूमत चलेगी।आप देख लीजियेगा।"
"देखिये, मैं खाना कहीं भी बाहर नहीं खाती। यहीं, हॉस्टल में खाऊँगी। मुझे पसंद ही नहीं कहीं का भी खाना।"
"जी बहोत अच्छे, लेकिन यूँ ही एक राउण्ड बस्स...जहाँ आप उचित समझें। मै समझूँगा आपने मुझे मेरी नासमझी, मेरी अभद्रता के लिए माफ़ कर दिया।"
मालविका ने दिमाग़ भिड़ाया कि कई दिन से रिहर्सल की व्यस्तता के चलते निकोलस के हॉस्टल तक जाना हो नहीं सका, इसकी कार से एक फेरा लग जायेगा और समय भी बचेगा। इसका कहना भी रह जायेगा और इससे पिंड भी छूट जायेगा।वो चलने को तैयार हो गई।
"मेरे हॉस्टल-मेस के डिनर-टाइम तक लौट आयेंगे ना?"
"जी बिलकुल। मैंने कहा ना, आपकी हुकूमत चलेगी।"
"ठीक है, इंटरनेशनल हॉस्टल तक चलते हैं, नॉर्थ कैम्पस तक।"
"बेशक़ ..."कहते-कहते उसने कार का पिछला दरवाज़ा खोला, मालविका को सलीक़े से बिठाया और ख़ुद भी जल्दी से आकर, साथ बैठ गया। राजशेखर का हाल ही में बैकबोन का गंभीर ऑपरेशन हुआ था, तबसे वो आगे की सीट में ड्राईवर के साथ ही बैठा करता था, लेकिन आज उत्साहित होकर पीछे जा बैठा था और कैसी भी तकलीफें उसे जैसे याद ही नहीं थी।
जब गाड़ी इंटरनेशनल हॉस्टल पर रुकी, मालविका ने बड़े गर्व से निकोलस का कमरा राजशेखर को दिखाया।
उसने हॉस्टल-परिवेश की वो हर जगह दिखाई जहाँ वो निकोलस के साथ उठती थी, बैठती थी, चहकती थी, गाती थी।
राजशेखर मालविका के बरताव से पहले ही बड़ा अचम्भित था, आज तो वो एकदम ही हतप्रभ हुआ था।'कैसी अजीब लड़की मिली है ये, पहली बार साथ में कहीं निकली है, और अपने प्रेमी का कमरा मुझे दिखा रही है।'
वो सोचता रहा, और चुपचाप सब देखता रहा।
और मालविका निकोलस की ड्योढ़ी पर कुछ देर खड़ी रही चुपचाप।
राजशेखर उसके कशिश से भरे मासूम चेहरे पर तत्काल ही उभरी ग़मगीन लकीरों को पढ़ता रहा, समझता रहा।
लौटकर मालविका अपने हॉस्टल में बेपरवाह सो गई, खूबसूरत ग़ज़लों की मादक पनाह में।
ज़िन्दगी ग़ज़ल लिखने को तैयार बैठी थी, मय कागज़-कलम-दवात।
ज़िन्दगी ग़ज़ल सुनाने को, मौसिक़ी सजाने को तैयार खड़ी थी ठीक अगले कदम पर, मय साज़-सुर और साजिंदा।
साजिंदा वो, जो हर साज़, हर राग, हर सुर को, हर तरह से साध लेने में सिद्ध-हस्त था।
वो रंगीन साजों का आदी था, शौक़ीन था।
लेकिन मालविका सो रही थी, आँख-कान बंद किये।
बेसुध, बेखबर।

राजशेखर का मनाना-रिझाना अपनी तेज़ लय पर था। और उसकी नखड़ीली परी, अब रीझ भी रही थी, मन भी रही थी, धीरे-धीरे, हौले-हौले, लेकिन थोड़ा-थोड़ा, ज़रा-ज़रा।
राजशेखर के आलीशान बँगले के बड़े से फाटक पर अक्सर लाल गुड़हल का पेड़ देखकर ठिठक जाया करती थी और उसे बड़े मनोयोग-से निहारने लगती थी।

"आइये."राजशेखर उसे हर बार याद दिलाता था, कि घर के अन्दर भी तो जाना है। हर बार हाथ पकड़ कर साथ ले जाता था.
बस, यूँ ही इसी राजशेखर के प्रेम से बनाये हुए सुन्दर-सलीकेदार माहौल में दिन से महीने, महीनों से बरस बीतने लगे।
मालविका की हॉस्टल की अवधि भी इसी ख़ुमारी में पूरी हो गई और इस बार वो किसी फिरंगी के कन्धे पर सिर टिकाये, उस फिरंगी के वतन, उसके घर नहीं गई।
इस बार वो बड़ी निश्चिन्त राजशेखर के दामन से लिपटी, उसकी बाँह थामे, बड़े अरमान, बड़े इत्मीनान, बड़े एहतराम से, मय सामान उसके सरकारी आवास में शिफ्ट हो गयी।

     बड़ा निर्णय था, बड़ा परिवर्तन था, बड़ी बात थी ... समाज के बदलते ढांचे के लिहाज़ से क्रांतिकारी फैसला तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन हाँ, राजशेखर के निजी पारिवारिक माहौल के हिसाब से यह एक तूफानी कदम ज़रूर था। लेकिन यह तूफ़ान उसे बहारों के भेस में  मिला था जिसे उसने गले लगा कर अपनाया था. दिल से, आत्मा से, अपने प्राणों से चाह कर अपनाया और मालविका जीवन पर्यन्त  उसकी हो कर रह गयी . इस बेस्वादी, उलझनों से भरी अजीब सी दुनिया में, उसकी उलझनें दूर न सही, कम करने की कोशिश करने लगी।
       
  कभी राजशेखर की खीझ दूर करती, कभी खुद खीज कर चार बातें सुना दिया करती थी।
मालविका का गरियाना भी राजशेखर के लिए प्रसाद-मानिन्द था।
खूब हँसना-खिलखिलाना यही सब था जीवन, और यही थे जीवन जीने वाले वे दो प्राणी।
कभी चहकते दोनों ’श्रीराम सेंटर’ से निकलते, कभी ’इंडिया इस्लामिक सेंटर’ में साथ तस्वीरें खिंचवाते।
कभी ‘इण्डियन हैबिटैट सेंटर’ तो कभी ‘इण्डिया इंटर नेशनल सेंटर’, कभी ‘आइ. सी. आर. आर.’ तो कभी सुदूर गुडगाँव का ‘ए.पी.-थियेटर’। कभी संसद-भवन का अहाता तो कभी प्रेसीडेंट-हाउस का दिलनशीं बागीचा।
ज़िन्दगी मस्ती और नूर की बारिश करती रही, और दोनों नहाते रहे।
   उस लाल बत्ती वाले ने लाल सिंदूर तो नहीं लगाया, लाल बिंदिया, लाल साड़ी से भी नहीं सजाया, क्यूंकि दोनों में से किसी को, इन सारे ताम-झाम की ज़रूरत ही नहीं पड़ी...लेकिन हां, पूरी शिद्दत, पूरी आत्मीयता, पूरे सम्मान, पूरे दायित्व, पूरे रस्म-ओ-रिवाज़ से अपनी शिराओं में बहते खून के लाल रंग पर एक ही  नाम ज़रूर लिख दिया .. ’मालविका मिश्रा’ .



                                         



Article 9

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हिचकी

किस्त : 10-11


दस

अगले दिन नन्दू जी ठीक साढ़े दस बजे अपने परिचित दुकानदार के शो-रूम पहुँच गये थे। दुकानदार ने सारे काग़ज़ात तैयार किये हुए थे। नन्दू जी ने पहली किस्त का चेक दिया था और शेष किस्तों के पोस्ट-डेटेड चेक सोमवार को देने का वादा कर उन्होंने दुकानदार के साथ माल ढोने वाला टेम्पो मँगवा देने को कहा था। 
     बिन्दु को भी उस रोज़ रिकॉर्डिंग के लिए रेडियो स्टेशन जाना था और वे चाहते थे कि उसके घर से निकलने के पहले वे कम-से-कम वॉशिंग मशीन पहुँचा तो दें। लेकिन टेम्पो वाले आम तौर पर बारह बजे के बाद ही आते थे और दुकानदार से चालान ले कर सामान पहुँचा आते थे। दुकानदार ने कहा भी कि नन्दू जी चिन्ता न करें, वह वॉशिंग मशीन भिजवाने का प्रबन्ध कर देगा।
     लेकिन नन्दू जी अब और किसी सम्भावित विलम्ब का ख़तरा उठाने को तैयार न थे। वे बाज़ार से ढूँढ-ढाँढ कर एक तिनपहिया ट्रॉली ले आये थे। ट्रॉली वाला बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था, क्योंकि नन्दू जी लक्ष्मी नगर के जिस ब्लॉक में रहते थे, वह थोड़ी ऊँचाई पर था और ट्रॉली वाले वहाँ जाने के कुछ ज़्यादा पैसे माँगते थे।
अन्ततः, जब नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन को ट्रॉली पर एहतियात से लदवा दिया था तो सुख की लम्बी साँस ली थी और ख़रामा-ख़रामा स्कूटर चलाते हुए ट्रॉली वाले के साथ हो लिये थे। चढ़ाई पर उन्होंने स्कूटर ट्रॉली के क़रीब करके बायें पैर से ट्रॉली को सहारा देते हुए चढ़ाई पार करायी थी और विजय की लूट के साथ लौटते शूरवीर की तरह घर पहुँचे थे।
० 
बिन्दु तैयार हो रही थी। नन्दू जी ने सावधानी से वॉशिंग मशीन का डिब्बा सामने वाले कमरे में रखवाया था, ट्रॉली  वाले को पैसे दिये थे और वॉशिंग मशीन के काग़ज़ बिन्दु को थमाते हुए कहा था कि वह उन्हें सँभाल कर रख ले, वे शाम को आ कर उसका ट्रायल लेंगे। फिर वे सरपट सीढि़याँ उतरे थे और अपने तय किये गये कार्यक्रम के अनुसार बारह बजे नॉएडा पहुँच गये।
लेकिन रैली में भाग लेना नन्दू जी के नसीब में नहीं था। ढाई बजे जब वे प्रेस का सारा काम निपटा कर निकले थे तो सड़क पर आते ही उनके स्कूटर के एक्सेलेरेटर का तार टूट गया था। यह प्रेस नॉएडा में सेक्टर छै के काफ़ी अन्दर ऐसे इलाके में था, जहाँ चारों तरफ़ कारख़ाने-ही-कारख़ाने थे। दुकानों के नाम पर कुछ चाय और पान-सिगरेट के ठेले थे या फिर सड़क किनारे तसला लगा कर पंचर बनाने या साइकिल की मरम्मत करने वाले मिस्त्रियों के खोखे। 
     झख मार कर नन्दू जी एक-डेढ़ किलोमीटर तक स्कूटर घसीटते हुए बाज़ार तक आये थे और फिर तब तक स्कूटर मिस्त्री की दुकान के बाहर बेंच पर बैठे रहे थे, जब तक कि उसका चेला साइकिल पर जा कर एक्सेलेरेटर की तार नहीं ले आया था। मिस्त्री को तो किसी रैली में जाना नहीं था और फिर महज़ एक तार बदलने के मेहनताने में उसे दस-पाँच रुपये से ज़्यादा मिलने न थे, इसलिए उसने दूसरे काम करते हुए परम निश्चिन्त भाव से नन्दू जी का स्कूटर ठीक किया था।
     यह सब होते-हवाते चार बज गये थे और नन्दू जी का रैली में जाने का सारा उत्साह मर चुका था। ऐसा नहीं था कि वे रैली में जाने के लिए विशेष रूप से इच्छुक थे। इधर के दिनों में उन्हें बराबर यह महसूस होता था कि खुले तौर पर बाहर आने के बाद भी पार्टी को भूमिगत संघर्ष की लीक थामे रखनी चाहिए थी और इतनी जल्दी संसदीय चुनाव के रास्ते पर चलने का फ़ैसला नहीं करना चाहिए था। इसकी बजाय अगर पार्टी ने अपने साप्ताहिक पत्र को नियमित ढंग से प्रकाशित करने और अपने मुख पत्र को आम लोगों के और क़रीब ले जाने पर ज़ोर दिया होता तो आन्दोलन को व्यापक बनाने की ज़्यादा गुंजाइश होती। 
रैलियों के बारे में भी नन्दू जी के विचार बदल गये थे। उन्हें लगता था कि दिल्ली जैसी राजधानी में झण्डे-बैनर-पताका थामे या फिर हँसिये-बल्लम-लाठियाँ उठाये, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान मर्द-औरतें एक कौतुक-भरा दृश्य बन कर रह जाते हैं, वैसा ही जैसा एक भिन्न स्तर पर 26 जनवरी की परेड में आयी लोक-कलाकारों की टोलियाँ प्रस्तुत करती हैं। 
     इन रैलियों से सरकार के कान पर जूँ भी नहीं रेंगती और रैलियों में आये लोग भी पहला मौक़ा पाते ही लाल क़िले के सामने वाले फ़ुटपाथिया बाज़ार में जाकिट, जूते, सफ़री बैग, ट्रांसिस्टर रेडियो और ऐसा ही सस्ता और डुप्लीकेट सामान ख़रीदने निकल जाते हैं। मलगजे पाजामों-कुर्तों पर ऐक्रिलिक या नायलॉन के विंड चीटर या जर्किनें पहने कॉमरेड एक अजीब-सा दृश्य उपस्थित करते। 
     नन्दू जी को लगता था कि गाँव-देहात से आये इन साथियों के मन में दरअसल वह सब हासिल करने की ललक है, जिसे वे टी.वी. या अख़बारों के विज्ञापनों में शोषक वर्ग के लोगों को पहनते-ओढ़ते या इस्तेमाल करते देखते हैं। उनके ख़याल में पार्टी को एक सांस्कृतिक अभियान भी चलाना चाहिए ताकि संघर्ष के गर्भ से जन्म लेने वाला नया इन्सान सचमुच नये इन्सान जैसा लगे, पुराने शोषक वर्गों की भौंडी नक़ल नहीं। एक बार जब उन्होंने ऐसी ही कुछ बातें पार्टी ऑफ़िस में कही थीं तो कुछ नये साथियों ने उनकी अच्छी ख़बर ली थी।
‘कॉमरेड, हमें शोषक वर्गों के पहनावे-ओढ़ावे से नहीं, उनके उत्पीड़न और दमन से नफ़रत है,’ शहनवाज़ नामक एक युवा साथी ने कहा था, जो साल भर से नेहरू प्लेस की झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनी में रहते हुए वहीं पार्टी का काम कर रहा था। ‘किसान-मज़दूरों के हक़ छीनने वाला चाहे कुर्ता-धोती पहने या जीन्स-जैकेट, हमारे लिए बराबर है। हमारे लिए मोटर साइकिल एक वाहन है, टी.वी. एक यन्त्र और उनके लिए पद-प्रतिष्ठा का साधन। ट्रांसिस्टर हो या घड़ी या मोटर साइकिल, ये सब अगर हमारी ज़रूरतों में शामिल हैं तो इन्हें हासिल करने में कोई बुराई नहीं। बुराई कर्महीन उपभोग में है।’
     ‘यह भी देखिए कॉमरेड,’ देवाशीष ने कहा था, ‘कि हमारी तो लड़ाई ही इस बात के लिए है कि जीवन की सारी अच्छी चीज़ें सबको मिलें। हमारे किसान-मज़दूर भाई अगर मँहगी घड़ी, रेडियो और कपड़ा नहीं ख़रीद पाते तो सस्ता सामान ही ख़रीद लेते हैं। आख़िर मार्क्स और एंगेल्स भी सूट पहनते और टाई लगाते थे। यह ठीक है कि वे उतने उम्दा नहीं होते थे, जितने विलायत के बड़े पूँजीपतियों और सामन्तों के। आरा का ठाकुर सूबेदार सिंह भी कुर्ता-धोती पहनता है और उसका हलवाहा जगदीश महतो भी। तो क्या इस हिसाब से दोनों बराबर हैं ? आप भी जानते हैं कि अगर सूबेदार सिंह के गुज़रते समय जगदीश महतो खटिया से उठ कर जुहार न करे तो उसका कुर्ता-धोती भी उसकी खाल नहीं बचा पायेगा। लड़ाई वाजिब मज़दूरी की भी है, साथी,  और वाजिब सम्मान की भी। इसे समझिए।’
     ‘दिल्ली आ कर आपका नजरिया कुछ बदली हो गया लगता है, कॉमरेड,’ नालन्दा के पुराने साथी रामेश्वर राम ने कहा था, ‘पटना में तो आप कुछ औरे बिचार रखते थे।’
     नन्दू जी को कोई जवाब नहीं सूझा था। लेकिन वे पार्टी कॉमरेडों से सहमत नहीं हो पाये थे। उनका ख़याल था कि साथी लोग चीज़ों का अनावश्यक सरलीकरण कर रहे हैं। धीरे-धीरे उनका पार्टी ऑफ़िस जाना कम हो गया था। तो भी, पुराने सम्बन्धों की वजह से उन्होंने रैली में भाग लेने का निश्चय किया था। मगर स्कूटर ने ही धोखा दे दिया था और तब तक तो रैली जाने कहाँ-की-कहाँ पहुँच चुकी होगी। इसी उधेड़-बुन में नन्दू जी घर पहुँचे थे और बाहर के कमरे में दीवान पर ढेर हो गये थे। उनकी नींद तब खुली थी, जब बिन्दु ने रेडियो स्टेशन से लौट कर साढ़े छै बजे उन्हें जगाया था।

ग्यारह

तुम रैली में गये थे ?’
     जितनी देर में नन्दू जी मुँह-हाथ धो कर चैतन्य हुए थे, बिन्दु चाय बना लायी थी और उसने चाय का मग उन्हें देते हुए पूछा था।
     ‘कहाँ जा पाया ? प्रेस से निकलते ही स्कूटर धोखा दे गया। आस-पास कोई मिस्त्री नहीं था। बाज़ार तक घसीट कर लाना पड़ा। बनवाते-बनवाते चार-सवा चार बज गये थे,’ उन्होंने बिन्दु को बताया था। फिर सिर झटक कर मानो उस प्रसंग को किनारे करते हुए वे उठे थे। ‘ड्रम में पानी तो भरा ही है,’ उन्होंने कहा था, ‘तुम कपड़े निकालो, मैं पैकिंग खोल कर वॉशिंग मशीन लगाता हूँ, इसे चला कर तो देखें।’
नन्दू जी ने पतलून उतार कर लुंगी पहनी थी, वॉशिंग मशीन की पैकिंग खोल कर उसे नीचे लगे पहियों पर लुढ़का कर बाथरूम के बाहर रखा था और ड्रम से बाल्टी भर-भर कर वॉशिंग मशीन में पानी डाला था। बिन्दु इस बीच मैले कपड़े इकट्ठा कर लायी थी। नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन के साथ मिली हिदायतों की पुस्तिका पढ़-पढ़ कर कपड़े धोये थे। 
     कपड़े धोने के साथ-साथ वे बिन्दु को हर चीज़ बड़े विस्तार से समझाते रहे थे ताकि आगे से वह भी वॉशिंग मशीन चला सके। उन्हें अफ़सोस हुआ था कि वॉशिंग मशीन लाते समय वे तीन-चार मीटर रबर की पाइप भी क्यों नहीं ख़रीद लाये। बार-बार बाल्टी से वॉशिंग मशीन भरने में कष्ट तो न होता। वैसे भी उन्होंने तय कर रखा था कि वे वॉशिंग मशीन तभी इस्तेमाल किया करेंगे जब मकान मालिक बंसल जी मोटर चालू करते थे। 
आध घण्टे बाद, जब कपड़े धुल गये थे और बिन्दु उन्हें अलगनी पर डाल रही थी, नन्दू जी ने वॉशिंग मशीन को सूखे कपड़े से पोंछ कर प्लास्टिक के कवर से ढँक दिया था। उन्हें उपलब्धि का कुछ वैसा ही एहसास हुआ था जैसा समकालीन लोकमत में बिहार के किसी गाँव से भेजी गयी टिप्पणी को लिख कर होता था। प्रसन्न वदन वे दीवान पर जा बैठे थे और उन्होंने टीवी चालू कर दिया था। 
     प्रसन्नता का यह भाव सुबह उठ कर दफ़्तर के लिए रवाना होने तक बना रहा था।
लेकिन अगले दिन की घटनाओं ने प्रसन्नता के इस भाव को एकदम तिरोहित कर दिया था। दफ़्तर पहुँचते ही उन्हें पता चला था कि रमा जी पिछले दिन आयी ही नहीं थीं। उनके घर फ़ोन करने पर मालूम हुआ था कि वे कांग्रेस के महिला संगठन की मंगोलपुरी शाखा के कार्यक्रम में गयी हुई हैं और कब आयेंगी, यह बता कर नहीं गयीं। यह ख़बर पाते ही नन्दू जी का माथा ठनका था। उन्हें लगा था कि अभी रमा जी से उनका पीछा नहीं छूटने वाला। और उनका यह अनुमान सही निकला था।
     अभी उन्होंने व्यवस्थित हो कर मुश्किल से एक नयी पाण्डुलिपि के पहले अध्याय की प्रेस कॉपी तैयार की थी कि रागिनी ने इंटरकॉम पर उन्हें कहा था कि हरीश अग्रवाल अभी-अभी दफ़्तर आया है और उसने उन्हें अपने कैबिन में बुलाया है। 
     नन्दू जी थोड़ा झल्लाये थे, क्योंकि शुरू के दिनों के विपरीत, जब हरीश अग्रवाल अक्सर उनकी मेज़ पर चला आता, हाल के दिनों में उसने नन्दू जी को अपने कैबिन में बुलाना शुरू कर दिया था और उनकी मेज़ पर तभी आता था, जब उसे टोह लेनी होती कि वे काम कर रहे हैं या नहीं। 
     एक दिन जब वह ऐसे ही अचानक चला आया था, वे फ़ोन पर फ़रहान अख़्तर से बात कर रहे थे। साल-डेढ़ साल के बाद भी उन्हें अपने अख़बार की तरफ़ अपनी बक़ाया रकम का भुगतान नहीं मिला था और वे फ़रहान से उस सिलसिले में कुछ करने के लिए ज़ोर दे रहे थे। 
     उस समय तो हरीश अग्रवाल ने कुछ नहीं कहा था, लेकिन दो दिन बाद उसने रागिनी शर्मा को अपने कैबिन में बुला कर एक रजिस्टर देते हुए कहा था कि वह इस रजिस्टर में दफ़्तर से किये जा रहे सभी फ़ोन नम्बर लिख लिया करे। नन्दू जी उस समय हरीश अग्रवाल के कैबिन ही में बैठे हुए थे।
     ‘दरअसल, दफ़्तर से बहुत सारे प्राइवेट फ़ोन भी किये जाते हैं,’ हरीश अग्रवाल ने नन्दू जी की सवालिया नज़रों के जवाब में सफ़ाई देने के अन्दाज़ में कहा था, ‘पिछले महीने टेलिफ़ोन का बहुत ज़्यादा बिल आ गया था। इस तरह हिसाब रहेगा कि टेलिफ़ोन वालों ने सही बिल दिया है या नहीं।’
     नन्दू जी इशारा समझ गये थे, लेकिन उन्हें हरीश अग्रवाल के छोटेपन पर बड़ा क्रोध आया था, क्योंकि जिन कर्मचारियों से हरीश अग्रवाल को काम रहता था, मसलन सेल्स मैनेजर सतीश कुमार, वे चाहे जितनी बार निजी काम से फ़ोन करते, वह कुछ न कहता।
नन्दू जी ने पाण्डुलिपि एक किनारे की थी और हरीश अग्रवाल के कैबिन की ओर चल दिये थे। हरीश अग्रवाल फ़ोन पर काग़ज़ वाले से बात कर रहा था। नन्दू जी को देख कर उसने फ़ोन पर ‘एक मिनट’ कहा, फिर नन्दू जी की ओर मुड़ कर बोला, ‘कुछ देर पहले रमा जी का फ़ोन आया था। वे बहुत बिज़ी हैं और उन्हें आज ही लौटना भी है। उन्होंने कहा है कि डिज़ाइन तैयार हो गया है। पहले उनका इरादा इधर आने का था, मगर अब वे नहीं आ पा रही हैं। किसी को उनके घर भेज दिया जाय, वे डिज़ाइन के बारे में समझा देंगी। आप चले जाइए। ऑटो कर लीजिएगा। उन्होंने कहा है, ऑटो का किराया वे दे देंगी।’
     इतना कह कर हरीश अग्रवाल फिर काग़ज़ वाले से बात करने लगा था। नन्दू जी ने अपनी मेज़ पर आ कर बिखरे हुए सामान को ठीक-ठिकाने रखा था और रमा जी के घर जाने के इरादे से बाहर निकले थे। 
बाहर गली में चहल-पहल बढ़ गयी थी। आम तौर पर मोटर मरम्मत करने वाले मिस्त्री नौ बजे तक आ जाते थे, लेकिन कारों-स्कूटरों की रँगाई और कम्प्यूटरों या फ़ोटोकॉपी की मशीनों के मेकैनिक ग्यारह बजे तक दुकानें खोलते थे और देखते-देखते गली तरह-तरह की आवाज़ों से गूँजने लगती थी, जिनमें मिस्त्रियों के हँसी-मज़ाक और गालियों की ध्वनियाँ अलग सुनायी देतीं। 
     गली से हो कर नन्दू जी दरियागंज की मुख्य सड़क पर आये तो एक और ही क़िस्म का शोर वहाँ बरपा था। रिक्शों-स्कूटरों-कारों-बसों की अनवरत आवा-जाही का कान-फाड़ू शोर। समय बारह से ऊपर हो चुका था और शोर अपने चरम पर था। नन्दू जी ने ऑटो रिक्शा की तलाश शुरू की। 
     मगर दोपहर के वक़्त ख़ाली ऑटो रिक्शा मिलना वैसे भी मुश्किल हुआ करता है। जो दो-एक ऑटो रिक्शा वाले रुके भी, वे मालवीय नगर जाने को तैयार न हुए। आख़िरकार, नन्दू जी ने एक ऑटो वाले को तैयार कर लिया, मगर वह मीटर से जाने को राज़ी न था। अमूमन दरियागंज से मालवीय नगर तक जाने का किराया पच्चीस-तीस रुपये बैठता था, लेकिन ऑटो वाला जाने-आने की बात कहने पर भी अस्सी से नीचे नहीं उतरा था।
     ‘ठीक है,’ नन्दूजी ने कहा था और ऑटो में बैठ गये थे, ‘अब जल्दी से ले चलो।’
     ‘मुझे कौन-सा अपनी जेब से देना है,’ उन्होंने सोचा था।
     ‘वहाँ रुकना तो नहीं पड़ेगा,’ ऑटो वाले ने ऑटो स्टॉर्ट करते हुए पूछा था।
    ‘नहीं-नहीं,’ नन्दू जी ने उसे आश्वस्त किया था, ‘एक ज़रूरी काग़ज़ ले कर फ़ौरन वापस आना है। देर नहीं लगेगी।’
     लेकिन फ़ौरन लौटने की कौन कहे, नन्दू जी को रमाजी के दर्शन करने के लिए ही आध घण्टा उनके फ़्लैट के बाहर बरामदे में इन्तज़ार करना पड़ा था। 
     रमा जी का फ़्लैट मालवीय नगर के उस हिस्से में था, जो कभी काफ़ी शान्त रहा होगा, लेकिन धीरे-धीरे दिल्ली के ऐसे सभी इलाक़ों की तरह, यहाँ भी बाज़ार न केवल रिहाइशी इलाक़ों की तरफ़ बढ़ आया था, बल्कि बाज़ मामलों में तो रिहाइशी इलाक़ों के भीतर छोटे-छोटे द्वीपों सरीखी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था।
० 
रमा जी का फ़्लैट नीचे का था, लेकिन उसकी ऊपर की मंज़िल पर इनफ़ोटेक नाम की किसी कम्पनी का बोर्ड लगा था, जो मल्टी-मीडिया और सूचना-संचार की चकाचौंध-भरी दुनिया में हिन्दुस्तान को शामिल करने के विराट उद्योग पर्व में संलग्न थी। यही वजह थी कि फ़्लैट जिस इमारत में था, उसके लोहे के विशालकाय फाटक के बाहर किसिम-किसिम की मोटर साइकिलों के नये मॉडल खड़े थे और अमरीकी पॉप गायकों जैसे कपड़े पहने युवक-युवतियाँ आते-जाते नज़र आ रहे थे। 
     जीन्स और टी-शर्टों के ऊपर अजीबो-ग़रीब जैकेटें, कन्धों पर अनोखे बैग, विचित्र केश-सज्जा, आँखों पर धूप के चश्मे। एक ऐसा जुलूस, जो मल्टी मीडिया और कम्प्यूटरों की दुनिया की बजाय किसी विज्ञापन एजेंसी के मॉडलों का भ्रम देता था। अंग्रेज़ी लहजे में बोली गयी हिन्दी के बीच अमरीकी लहजे में बोली गयी अंग्रेज़ी के फ़िकरे। इन युवक-युवतियों की चाल-ढाल में एक अजीब क़िस्म का आत्म-विश्वास नज़र आता था।
काफ़ी देर तक नन्दू जी वहीं बरामदे में बैठे इन युवक-युवतियों का आना-जाना देखते रहे। उन्होंने जब रमा जी के फ़्लैट की घण्टी बजायी थी, तो अन्दर से कुण्डावासी वही रामसुचित केसरवानी निकला था।
     ‘बैठिए, बैठिए,’ वह खीसें निपोरते हुए बोला था, ‘मैडम ज़रूरी मिटिन कर रही हैं। अबहिन आती हैं।’ इतना कह कर वह फिर अन्दर अन्तर्धान हो गया था।
     बरामदा अच्छा-ख़ासा था। निश्चय ही रमा जी से मिलने को आने वालों के लिए वेटिंग-रूम के काम आता होगा, क्योंकि उसमें बेंत की चार कुर्सियों और बेंत ही की तिपाई के अलावा पाँच-सात अलग-अलग प्रकार की कुर्सियाँ रखी हुई थीं, जो लगता था कि पुराना फ़र्निचर बेचने वाले के यहाँ से जुटायी गयी हैं। बरामदे की तीन सीढि़याँ उतर कर एक घिरा हुआ लॉन और छोटा-सा बाग़ीचा था। 
जब नन्दू जी को इन्तज़ार करते हुए दस मिनट हो गये थे तो ऑटो वाला आ कर बड़ी रुखाई से बोला था कि वे तो फ़ौरन लौटने की बात कह कर आये थे। नन्दू जी ने किसी तरह उसे समझाया था कि वह धीरज रखे, वे जल्दी ही चलेंगे। लेकिन जब बीस मिनट बीतने पर भी रमा जी बाहर नहीं आयीं तो ऑटो वाले ने नन्दू जी से आ कर कहा कि उन्हें वेटिंग चार्ज देना होगा। 
     नन्दू जी की दिक़्क़त यह थी कि उनकी जेब में ज़्यादा पैसे नहीं थे। उन्हें अफ़सोस हुआ था कि चलते वक़्त उन्होंने प्रकाशन संस्था के एकाउण्टेण्ट से पैसे क्यों नहीं ले लिये; वरना वे ऑटो वाले को चलता कर देते। लेकिन फिर तत्काल ही उन्हें ख़याल आया कि पैसे तो हरीश अग्रवाल ने कहा था कि रमा जी देंगी। उन्होंने ऑटो वाले से कहा था कि वह फ़िकर न करे, उसे रुकने की एवज़ में कुछ अतिरिक्त भाड़ा वे दे देंगे। 
     रमा जी आध घण्टे बाद दो लोगों से बात करते हुए तेज़-तेज़ निकली थीं और उन्होंने डिज़ाइन नन्दू जी को दिया था। डिज़ाइन लगभग वैसा ही था, जैसा शमशाद ने बनाया था, सिर्फ़ बड़थ्वाल जी का चित्र बदल दिया गया था और उसके इर्द-गिर्द की चौड़ी पट्टियों का रंग गहरे नीले की बजाय गहरा हरा कर दिया गया था।
‘हरीश जी नहीं आये ?’ रमा जी ने छूटते ही बड़ी ऊँचाई से पूछा था।
     नन्दू जी ने मिनमिनाते हुए हरीश अग्रवाल की व्यस्तता का एक लचर-सा बहाना बनाया था, जिस पर रमा जी ने, ऐसा लगा था कि, कान भी नहीं दिया था।
     ‘ख़ैर, अब यह डिज़ाइन तैयार है,’ रमा जी ने कहा था, ‘इसे ऐसा ही छापिएगा।’ फिर उन्होंने मुड़ कर रामसुचित को, जो एक आज्ञाकारी भृत्य की तरह उनके पीछे खड़ा था, ड्राइवर को बुलाने के लिए कहा था।
     ‘उससे कहिए,’ उन्होंने आदेश दिया था, ‘जल्दी से गाड़ी लगाये। अभी मुझे कांग्रेस के दफ़्तर जाना है। वहीं से मैं अलीगढ़ चली जाऊँगी, जहाँ शाम को महिला सेल की बैठक है। आप मेरे साथ चलिएगा।’
     फिर वे नन्दू जी से मुख़ातिब हुई थीं, जो ऑटो के किराये के इन्तज़ार में वहीं जमे हुए थे।
    ‘और कुछ ?’ रमा जी ने पूछा था।
    ‘जी,  वो ऑटो,’ नन्दू जी ने कहा था।
    ‘हाँ, हाँ,’ रमा जी ने कहा था, और हाथ में लिया बटुआ खोल कर उन्होंने पचास का नोट नन्दू जी की ओर बढ़ा दिया था।
     ‘जी, ऑटो वाला सौ रुपया माँगता है,’ नन्दू जी ने किसी तरह साहस बटोर कर कहा था और बताया था कि वे आने-जाने का तय करके आये हैं। वे चाहें तो ऑटो वाले से पूछ लें।
     ‘सौ रुपये,’ रमा जी ने तीखे स्वर में आश्चर्य प्रकट किया था और पास खड़े व्यक्ति की ओर नज़रें घुमायी थीं। फिर वे नन्दू जी की ओर मुड़ कर बोली थीं, ‘दरियागंज से यहाँ तक के पच्चीस रुपये होते हैं। बीसियों बार लोग यहाँ से वहाँ गये-आये हैं। कभी फ़रक नहीं पड़ा। आप लोगों ने सोचा होगा, कौन-सा अपनी जेब से देना है। सो, जो ऑटो वाले ने माँगा, आपने दे दिया। आपको आने-जाने का ऑटो नहीं करना चाहिए था। और मीटर से आना चाहिए था। इसी तरह तो देश में भ्रष्टाचार फैलता है।’
     नन्दू जी अपना-सा मुँह ले कर रह गये थे। रमा जी ने और दो-चार बातें देश के चरित्र और उसको सुधारने के बारे में कही थीं, फिर वे साथ खड़े आदमी से कांग्रेस की गिरती हुई साख और उसे उठाने के क़दमों पर बातें करने लगी थीं। तभी रामसुचित ने आ कर बताया था कि गाड़ी लग गयी है। रमा जी तेज़-तेज़ उतरी थीं और कार की ओर चल दी थीं। मगर अभी नन्दू जी को छुट्टी नहीं मिल पायी थी, क्योंकि कार में बैठने से पहले रमा जी ठिठक कर उनकी ओर मुड़ी थीं।
     ‘अरे हाँ,’ उन्होंने हाथ में पकड़े काग़ज़ों में से एक काग़ज़ नन्दू जी की ओर बढ़ाया था, ‘यह डिज़ाइन ठीक करने वाले का बिल है। हरीश जी से कहिएगा कि उसे दे दें।’
नन्दू जी प्रकाशन संस्थान के कार्यालय लौटे तो काफ़ी भन्नाये हुए थे। स्कूटर वाला रास्ते भर भुनभुनाता आया था और सौ रुपये ले कर ही टला था। नन्दू जी का ख़याल था कि अकाउण्टेण्ट उन्हें ऑटो के खाते में ख़र्च किये गये पचास रुपये फ़ौरन दे देगा, लेकिन जब उन्होंने रमा जी के डिज़ाइन का बिल देते हुए अकाउण्टेण्ट से भाड़े की बाबत कहा था तो उसने बिना हरीश अग्रवाल की मंज़ूरी के, पाँच रुपये देने से भी इनकार कर दिया था। लगे हाथ उसने रमा जी के डिज़ाइन के बिल को लौटाते हुए नन्दू जी से यह भी कहा था कि वे इस बिल को हरीश अग्रवाल से दस्तख़त करवा के दें, तभी वह उसे खाते में चढ़ायेगा।
     हरीश अग्रवाल लंच पर घर जा चुका था और रागिनी शर्मा ने नन्दू जी को बताया था कि वह अब सोमवार ही को आयेगा, क्योंकि लंच के बाद उसे जे.एन.यू. जा कर एक सेमिनार में आये आलोचकों, साहित्यकारों और हिन्दी के विभागाध्यक्षों से मिलना था। 
     नन्दू जी ने डिज़ाइन और बिल हरीश अग्रवाल की मेज़ पर रखवा दिया था और अपनी मेज़ पर आ कर घर से लाये टिफ़िन बॉक्स को ले कर पास के ढाबे पर चले गये थे।
     खाना खा कर वे  ढाबे से बाहर आ ही रहे थे कि उन्हें बिहार से आये कुछ पार्टी कार्यकर्ता दिल्ली के युवा फ़िल्मकार शाहिद अन्सारी के साथ आते दिखायी दिये थे।

Article 8

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हिचकी

किस्त : 12-13


बारह

पाँच साल पहले जब शाहिद अन्सारी बुलन्दशहर से दिल्ली पहुँचा था तो उसकी जेब में फ़क़त डेढ़ सौ रुपये और सूटकेस में बी.ए. की डिग्री थी। मगर राहत की बात यह थी कि नयी ज़िन्दगी की तलाश में हर साल उत्तर प्रदेश और बिहार के मुफ़स्सलात से हज़ारों की तादाद में दिल्ली की शम्मा की तरफ़ खिंच कर आने वाले परवानों के विपरीत उसके पास, मुहावरे की ज़बान में कहें तो सिर छिपाने को एक छत और पैर टिकाने को एक ठौर थी, भले ही वह उसके सपनों के हिसाब से कितनी अस्थायी और असुविधाजनक क्यों न रही हो।
उसके पिता, वाजिद अन्सारी, नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास पहाड़गंज की एक लॉज के मैनेजर थे। यह लॉज दरअसल सस्ती दरों वाला एक सुथरा-सा होटल था, जिसका मालिक चौधरी भान सिंह बुलन्दशहर का एक सम्पन्न किसान था और शाहिद अन्सारी के पिता को बहुत मानता था, जो ख़ुद भी बुलन्दशहर के रहने वाले थे।
     भान सिंह को यह होटल अपने नाना से मिला था और अगर भानसिंह को दिल्ली में ज़मीन-जायदाद की बढ़ती हुई क़ीमतों का पता न होता तो वह कभी का उसे बेच चुका होता, क्योंकि वह ‘उत्तम खेती मध्यम बान’ वाले आप्त कथन में अक़ीदा रखता था और हालाँकि बदले हुए ज़माने में यह कहावत उलट कर ‘मध्यम खेती उत्तम बान’ को चरितार्थ करने लगी थी और भान सिंह को आये दिन खेती को ले कर किसी-न-किसी परेशानी का सामना करना पड़ता था, तो भी वह अपने ही शब्दों में ‘होटलगीरी’ करने को क़तई तैयार न था। 
बेटी की शादी कर चुका था। दो बेटे थे - ख़ासे आवारा और हथछुट क़िस्म के - जिनकी करतूतों ने जब अति कर दी तो भान सिंह ने दोनों को दो-दो टेम्पो ख़रिदवा दिये थे जिन्हें वे शहर से पास के क़स्बों तक सवारियाँ ढोने के काम में लाते और अपने-अपने रूटों पर चलने वाले दूसरे टेम्पो वालों से आये दिन सिर-फुटव्वल करते रहते। भान सिंह को इससे कोई एतराज़ न था, चुनांचे उसने अपने खेती के शौक़ को पूरा करने की ख़ातिर शाहिद अन्सारी के वालिद वाजिद अन्सारी को लॉज की तीसरी मंज़िल पर अटैच्ड बाथरूम वाला एक बड़ा-सा कमरा दे कर उन्हें होटल का सर्वे-सर्वा बना दिया था। होटल की आमदनी नियमित रूप से उसके बैंक से होती हुई बारिश के पानी की तरह खेती को सींचती रहती। 
     वैसे तो भान सिंह ने वाजिद अन्सारी से भी कहा था कि शाहिद चाहे तो होटल ही में लग जाये। ‘आखर, बी.ए. पास लौंडे को लाट साहबी तो मिलने से रही।’ और भान सिंह ने अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों पर हाथ फेरते हुए अपनी पसन्दीदा कहावत का दूसरा मिसरा भी सुनाया था - ‘अधम चाकरी भीख निदान। चाकरी करने से तो अच्छा है होटल का काम सीक्खे। आग्गे चल कर वह अपना भी होटल खोल सकता है।’ 
     लेकिन शाहिद अन्सारी बुलन्दशहर से निकल कर दिल्ली इसलिए नहीं आया था कि वह पहाड़गंज की छोटी-सी, नीम-अँधेरी गली में दफ़्न हो जाय। अपने पिता की इज़्ज़त करते हुए भी मन के किसी कोने में वह उन्हें एक विफल व्यक्ति ही मानता था, जो अपनी सीधी-सादी ज़िन्दगी से सन्तुष्ट थे, जिन्हें बस इतना ख़याल था कि ईमानदारी से ज़िन्दगी बसर करते हुए, बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बड़ा कर दें और जिनके मन में इससे ज़्यादा कोई महत्वाकांक्षा न थी। 
शाहिद अन्सारी ने बुलन्दशहर के अपने ही मुहल्ले में ऐसे कितने युवकों के किस्से सुने थे जो किराये पर ऑटो चलाने दिल्ली आये थे और जाने कहाँ-से-कहाँ जा पहुँचे थे। दिल्ली उसे एक ऐसी जगह लगती थी जिसका आकाश अनन्त था, जहाँ उड़ान की अनगिनत सम्भावनाएँ थीं, बशर्ते कि आपके डैने मज़बूत हों और दिल में हौसला हो। 
     शाहिद अन्सारी को अपनी सेकेण्ड क्लास बी.ए. की डिग्री से भी ज़्यादा भरोसा इस आख़िरी बात में था। इसीलिए वह उस जाली अंग्रेज़ी मीडियम ‘सनबीम स्कूल’ की चार सौ रुपये की मास्टरी छोड़ कर चला आया था जो अस्सी के दशक के शुरू में कुकुरमुत्तों की तरह हर शहर में खुलने वाले स्कूलों जैसा ही एक स्कूल था और जहाँ शाहिद अन्सारी बी.ए. करते ही पढ़ाने लगा था। 
     महीने भर ही में शाहिद अन्सारी ने शहर के मिज़ाज को समझ लिया था। पहाड़गंज का वह इलाक़ा, जहाँ भान सिंह का ‘चौधरी गेस्ट हाउस’ था, मझोले दर्जे के होटलों से अटा पड़ा था जिनमें अक्सर ट्रैवेल एजेण्ट, छोटे व्यापारी, आस-पास से तीस हज़ारी की अदालत में किसी मुक़दमे की पेशी भुगतने आये वादी-प्रतिवादी और इसी क़िस्म के लोग ठहरते थे। इन्हीं में वे विदेशी सैलानी भी शामिल थे जो अमरीका, इंग्लैण्ड या यूरोप की आपा-धापी, और अफ़रा-तफ़री से भाग कर कथित शान्ति की तलाश में हिन्दुस्तान आते थे या फिर जो कम पैसे ही में हिन्दुस्तान ‘देखने’ के इच्छुक थे। 
     शाहिद ने इन विदेशी सैलानियों को बतौर गाइड दिल्ली घुमाना शुरू कर दिया। फ़िरंगी गोरों के पास ख़र्च करने के लिए डॉलर थे, शाहिद अन्सारी के पास वक़्त। होशियारी उसने यह बरती कि इस काम की तैयारी के लिए अंग्रेज़ी की दो-एक किताबों के साथ-साथ दिल्ली पर महेश्वर दयाल की किताब भी पढ़ डाली जिससे अक्सर कुछ नायाब क़िस्म के तथ्य उद्धृत करके वह इन सैलानियों को चकित कर देता।
० 
एक साल के अन्दर-अन्दर शाहिद अन्सारी का नक़्शा बदल गया। ढीली पतलून और बुश्शर्ट की जगह चुस्त जीन्स, बदन पर कॉलरदार टी-शर्ट और आँखों पर धूप का सुनहरा चश्मा। 
     तभी उसने पहली बार एक अमरीकी सैलानी जॉन ऐण्डरसन के पास विडियो कैमरा देखा। जॉन ऐण्डरसन अमरीका के एक टुटहे-से विश्वविद्यालय में पूर्वी सभ्यताओं, विशेष रूप से भारतीय सभ्यता और संस्कृति, पर शोध कर रहा था। अभी क्लिंटन और बुश के आने में देर थी, उदारीकरण का डंका हिन्दुस्तान में बजना शुरू नहीं हुआ था, लिहाज़ा अमरीकियों ने भी मुट्ठियाँ कसी हुई थीं। जॉन ऐण्डरसन की छात्र-वृत्ति बहुत कम थी और अगर डॉलर और रुपये के विनिमय मूल्य में इतना अन्तर न होता तो ऐण्डरसन पहाड़गंज तो क्या, फ़तहपुरी या मजनूँ का टीला में भी ठहरने की सोच न पाता। 
     बहरहाल, उसने शाहिद अन्सारी को कैमरा इस्तेमाल करना सिखा दिया, ताकि वह दिल्ली के स्मारकों के साथ-साथ गली-कूचों में भी जॉन ऐण्डरसन की चलती-फिरती तस्वीरें खींच सके। पहले दिन की शाम को ही जॉन ऐण्डरसन ने पाया था कि शाहिद अन्सारी में कैमरे को ख़ूबी के साथ इस्तेमाल करने का कुदरती सलीक़ा है और शाहिद  को तो जैसे पहली बार अपनी ज़िन्दगी का मक़सद मिल गया था। सारा हफ़्ता वह जॉन ऐण्डरसन के साथ चिपका रहा था और उसने कैमरा इस्तेमाल करने की एवज़ में तयशुदा फ़ीस से आधी रक़म ही ली थी। 
जॉन ऐण्डरसन की रही-सही कसर पैटी श्नाइडर ने पूरी कर दी थी। पैटी पश्चिम जर्मनी से छै महीने की छुट्टी पर हिन्दुस्तान घूमने आयी थी। अस्सी के दशक में पश्चिम जर्मनी की मुद्रा मार्क चढ़ती पर थी और पैटी के पास वक़्त और वसीला दोनों अच्छी-ख़ासी मिकदार में था। वह पहाड़गंज की बजाय जंगपुरा में ‘कपूर गेस्ट हाउस’ में ठहरी थी और शाहिद से उसे उसके ट्रैवल एजेण्ट ने यह कह कर मिलवाया था कि इससे बेहतर गाइड उसके देखने में नहीं आया। 
     पैटी ने तीन-चार दिन बाद ही शाहिद को अपनी सरपरस्ती में ले लिया था, उसे डिफ़ेंस कालोनी और साउथ एक्स के कुछ चुनिन्दा रेस्तराओं के दर्शन कराये थे और खादी भण्डार की बजाय विभिन्न प्रान्तों के एम्पोरियमों में लिये-लिये फिरी थी। कैमरा पैटी के पास भी था और ऐण्डरसन वाले मॉडल से आगे का था जिसमें वह ‘हिन्दुस्तान की यादें अपने साथ वापस ले जाना’ चाहती थी। 
     पैटी की सोहबत में शाहिद अन्सारी ने पहली बार वह सुख भी प्राप्त किया था, जिसके लिए विदेशियों के इर्द-गिर्द मँडराने वाले दिल्ली के सैकड़ों नौजवान तरसते रहते हैं और कुछ तो ग़ालिब-ओ-मीर की इस नगरी को अपनी दुस्साहसी करतूतों से वैसा ही अपराध-बहुल शहर बना चुके हैं जैसा आम तौर पर न्यू यॉर्क ख़याल किया जाता है।
     इस एक महीने के संग-साथ ने शाहिद अन्सारी की ज़िन्दगी बदल कर रख दी थी। पैटी ने एकबारगी शाहिद को एक ही साथ औरत की देह की रहस्यमयता और उसके विलक्षण खुलेपन से परिचित कराया था। इतना ही नहीं, बल्कि उसने शाहिद अन्सारी को भेज कर पता लगवाया था कि दिल्ली में ऐसी कौन-सी जगहें हैं, जहाँ वह अपनी बी.ए. की डिग्री के बल पर दाख़िल हो सकता था और अपने शौक़ को पेशे में तब्दील कर सकता था। 
अस्सी के दशक के आरम्भ में हालाँकि टेलिविज़न क्रान्ति अभी कोसों दूर थी और नॉएडा में फ़िल्म सिटी के बनने का किसी को ख़्वाबो-ख़याल भी नहीं था, लेकिन दिल्ली में एशियाई खेलों के बाद दूरदर्शन पर रंगीन कार्यक्रम प्रसारित होने लगे थे, इन्दिरा गाँधी हफ़्ते में दो-तीन की संख्या में नये टीवी केन्द्र खोल रही थीं और आगे की सम्भावनाओं को भाँपते हुए एक अदद इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्यूनिकेशंज़ खुल गया था; साथ ही जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय ने अपनी तरक़्क़ीपसन्द रवायत पर चलते हुए बाक़ायदा एक जन संचार विभाग खोल दिया था। 
     पाँच महीने बाद जब पैटी श्नाइडर कश्मीर, काठमाण्डू, कलकत्ता और कन्याकुमारी का चक्कर लगा कर वीसबाडन के लिए जहाज़ में सवार होने के लिए दिल्ली आयी थी तो उसने पाया था कि शाहिद अन्सारी ने, बकौल भान सिंह, ‘गाइडगीरी’ से बचाये पैसों के बल पर जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के जन संचार विभाग में दो साल के डिप्लोमा कोर्स में दाख़िला ले लिया है। वह उसे विदा करने के लिए पालम आया था तो उसके साथ एक गोरी, गोल चेहरे वाली सुन्दर-सी लड़की भी थी जिसका नाम उसने सबीना चोपड़ा बताया था और जो जामिया में उसी के साथ दाख़िल हुई थी।
सबीना चोपड़ा दक्षिण दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाक़े में रहने वाली एक तेज़-तर्रार लड़की थी, जैसी लड़कियाँ जीसस एण्ड मेरी कॉन्वेंट और लेडी श्रीराम कॉलेज की दहलीज़ों लाँघने के बाद सैकड़ों की तादाद में दिल्ली में नज़र आती हैं। उसका परिवार बँटवारे के समय स्यालकोट से उखड़ कर लाजपत नगर में आ बसा था और अब सूखे मेवों के बड़े व्यापारियों में गिना जाता था। 
     शाहिद अन्सारी के प्रशिक्षण में जो कमी रह गयी थी वह सबीना चोपड़ा ने पूरी कर दी थी। वह स्त्री-शक्ति और महिला अधिकारों के कई संगठनों के साथ जुड़ी हुई थी, छात्र राजनीति में भी दिलचस्पी रखती थी और एक ही साथ कॉन्वेंटी लबो-लहजे और ‘एथनिक’ यानी देसी रहन-सहन का ऐसा मेल थी जो दिल्ली के ही बहुत-से लड़कों की सिट्टी-पिट्टी गुम कर देता था, फिर बुलन्दशहर से आये शाहिद अन्सारी बेचारे की तो हस्ती ही क्या थी। 
     यों, दोनों एक लिहाज़ से एक-दूसरे के पूरक भी थे। शाहिद मुलायम-तबियत, व्यवहार-कुशल और लचकीले सुभाव का था, जबकि सबीना चोपड़ा को उसके कुछ सहपाठी पीठ-पीछे ‘झाँसी की रानी’ कहा करते थे। वह दरअसल उन बिरली लड़कियों में से थी, जिन्हें पंजाबी बड़े लुत्फ़ से ‘माही-मुण्डा’ कह कर नवाज़ते हैं।
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शाहिद को कैमरे पर महारत हासिल थी तो सबीना को ऐसे विषयों पर जो उन दिनों ग़ैर सरकारी संगठनों के बीच बहुत लोकप्रिय थे। महिला सशक्तीकरण का दौर शुरू हो रहा था और जल्द ही इसके साथ परिवार नियोजन, बँधुआ मज़दूरी, दलित जागृति, एड्स और आदिवासियों तथा विस्थापन आदि के मुद्दे भी जुड़ जाने वाले थे। डिप्लोमा ले कर जामिया से निकलने के बाद शाहिद अन्सारी और सबीना चोपड़ा ने शादी कर ली थी, लेकिन वह जानी इसके बाद भी सबीना चोपड़ा के नाम से ही जाती थी। 
     आश्चर्यजनक रूप से सबीना के परिवार का झुकाव भाजपा की ओर होते हुए भी इस शादी ने बहुत हलचल नहीं पैदा की थी। कुछ ही दिन बाद शाहिद और सबीना गोल डाकख़ाने के पास एक सरकारी फ़्लैट में चले आये थे। फ़्लैट मानव संसाधन मन्त्रालय के अन्तर्गत संस्कृति विभाग में काम करने वाले एक सेक्शन ऑफ़िसर को दिया गया था जो दिल्ली के हज़ारों दूसरे बाबुओं की तरह अपने निजी मकान में रहता था और अपने नाम आबण्टित फ़्लैट को किराये पर चढ़ा कर कुछ अतिरिक्त आमदनी की डौल बैठाये हुए था। 
     धीरे-धीरे फ़्लैट में आराम-आसाइश की चीज़ें जुटना शुरू हो गयी थीं। शाहिद ने जामिया की पढ़ाई के दौरान ही तीसरी धारा की कम्यूनिस्ट पार्टी से कुछ रब्त-ज़ब्त क़ायम कर ली थी और अब जब उस धारा के संस्कृतिकर्मी उसके यहाँ आते तो वह उनकी सवालिया नज़रों को लक्ष्य कर, बड़े सहज अन्दाज़ में नये ख़रीदे टेलिविज़न या वी.सी.आर. या म्यूज़िक सिस्टम का ज़िक्र करते हुए उसकी ज़रूरत और ख़ूबियाँ बताता और फिर मानो सरे-राहे उसकी क़ीमत की भी जानकारी देना न भूलता। 
     डेढ़ साल बाद ही शाहिद के घर एक बेटा आ गया था और उसी दौरान सबीना की बनायी एक डॉक्यूमेण्टरी फ़िल्म को कैलिफ़ोर्निया के किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल का पुरस्कार मिला था। पुरस्कार की राशि से शाहिद ने एक सेकेण्ड हैण्ड फ़िएट गाड़ी ख़रीद ली थी और अब वह अपनी फ़िल्मों की कम और सबीना की फ़िल्मों की चर्चा ज़्यादा करता था। भौतिक उन्नति के बावजूद वह गाहे-बगाहे पार्टी ऑफ़िस जा धमकता, उनकी गतिविधियों के लिए वक़्तन-फ़वक़्तन चन्दा भी देता और ख़ास-ख़ास मौक़ों पर पाँच-दस मिनट के लिए चेहरा दिखाना न भूलता; भले ही पहले से तयशुदा किसी कार्यक्रम का बहाना बना कर जल्दी ही फूट लेता। यों भी कविता-कहानी, नुक्कड़ नाटक और क्रान्तिकारी गीत गाने वाले संस्कृतिकर्मियों के लिए फ़िल्मी दुनिया - चाहे वह दिल्ली की और डॉक्यूमेण्टरी फ़िल्मों की क्यों न हो - एक अचरज-भरी दुनिया थी। सो शाहिद अन्सारी बिना कुछ ज़्यादा किये-धरे ही पार्टी हलक़ों में हरदिल अज़ीज़ बना हुआ था।
     इस समय भी शाहिद अन्सारी पटना, नालन्दा और आरा से आये पार्टी और पार्टी के सांस्कृतिक संगठन के कुछ कार्यकर्ताओं के साथ था। ये सभी ‘साथी लोग’ रैली में पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं की हैसियत में शामिल होने आये थे और उन्हें बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और अन्य छिट-पुट जगहों से आये सामान्य किसान-मज़दूरों की तरह तड़-फड़ लौटने की जल्दी नहीं थी।

तेरह

‘देखिए नन्दू जी, आपसे मिलाने के लिए हम किन-किन को ले आये हैं,’ शाहिद अन्सारी ने कुछ दूर ही से ऊँची आवाज़ में कहा था, फिर नज़दीक आ कर बात पूरी की, ‘दरअसल मुझे कल की रैली का विडियो टेप पार्टी ऑफ़िस में देना था। इन सब से वहीं भेंट हो गयी, सो हम लोगों ने सोचा आपसे भी मिल लिया जाय। बहुत ही अच्छी फ़ुटेज तैयार हुई है रैली की।’
     नन्दू जी उन चारों साथियों से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, जो शाहिद अन्सारी के अगल-बग़ल आ कर ढाबे के बाहर खड़े हो गये थे। उन्होंने सबसे हाथ मिलाया। 
     ‘चाय नहीं पिलायेंगे नन्दू जी ?’ शाहिद अन्सारी ने कुछ ऐसे अन्दाज़ में कहा कि वह सवाल और अनुरोध से आगे बढ़ कर आग्रह-सा जान पड़ा।
     नन्दू जी ने फ़ौरन कहा, ‘क्यों नहीं।’ और फिर वे ढाबे के बाहर लगी बेंचों पर ही बैठ गये।
     ‘कॉमरेड, कल आप रैली में दिखायी नहीं दिये,’ आरा के पुराने संस्कृतिकर्मी अनिल वज्रपात ने नन्दू जी की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा, ‘आपका बहुत इन्तजारी होता रहा।’
     ‘असल में...’ नन्दू जी ने सफ़ाई देने के लिए मुँह खोला ही था कि नालन्दा के किसान सभा के कार्यकर्ता राम अँजोर ने टप से उनकी बात काट दी।
     ‘हमको तो आज तक समकालीन लोकमत में आपका वोह रपट याद है,’ उसने कहा, ‘जेमे आप जहानाबाद का बिबरन छपाये रहे कि कइसे कोन तो बिदेसी लेखक का पात्र आदमी से पिल्लू बन जाता है, लेकिन बिहार के जलते खेत-खलिहान में पिल्लू का माफिक रेंगने वाला सब लोग संघर्स का गर्भ में पिल्लू से इन्सान बनता जा रहा है।’
     ‘बहुत अच्छी रिपोर्ट थी वह,’ शाहिद अन्सारी ने टीप जड़ी, ‘मैंने तो उसकी कतरन सँभाल कर रखी हुई है। सबीना एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल में मेक्सिको गयी है। वहाँ से आ जाय तो हम उस रिपोर्ट के आधार पर एक फ़िल्म बनायेंगे। मैंने तो उसका शीर्षक भी सोच लिया है - कायाकल्प।’
     ‘ऊ रपट पर फ़िलम जरूर बनना चाहिए,’ पटना की पार्टी इकाई के सचिव रामजी यादव ने कहा, ‘हम लोग तो ऊ रपट की फ़ोटोकॉपी कराके बँटवाये भी थे।’
     इस बीच चाय आ गयी थी और सबने अपने-अपने गिलास थाम लिये थे। अगर नन्दू जी ख़याल था कि उनकी रपट की चर्चा से यह सवाल दब जायेगा कि वे कल की रैली में क्यों शामिल नहीं हुए तो वे भूल कर रहे थे, क्योंकि तभी फ़ैज़ाबाद के युवा रंगकर्मी उदय प्रकाशपुंज ने उनकी ओर मुड़ कर कहा, ‘हम तो कल आखिर तक आपकी राह देखते रहे कॉमरेड। दरअसल, और भी साथी आपसे मिलना चाहते थे।’
     ‘क्या बतायें साथी, कल स्कूटर ने ऐसा धोखा दिया कि पूछो मत,’ नन्दू जी बोले। ‘मुझे नॉएडा में प्रेस जा कर आधे घण्टे का काम निपटाना था। सोचा था, वहीं से रैली में चला जाऊँगा, लेकिन स्कूटर ख़राब हो गया। आस-पास कोई मिस्त्री नहीं था। बनवाते-बनवाते साढ़े चार बज गये।’ 
‘वहीं छोड़ कर बस से ही चले आये होते। लौटते में उठा लेते,’ अनिल वज्रपात ने कहा, ‘रोज-रोज रैली कहाँ होता है।’
‘अरे कॉमरेड, यह इलाहाबाद या फ़ैज़ाबाद नहीं है,’ शाहिद अन्सारी ने समझाते हुए कहा, ‘यहाँ पहले तो कोई स्कूटर रखने को तैयार ही न होता। हो भी जाता तो नॉएडा के इंटीरियर से आना और फिर स्कूटर उठाने के लिए लौटना कोई आसान काम है।’
     नन्दू जी ने कृतज्ञता-भरी नज़रों से शाहिद अन्सारी की तरफ़ देखा। उन्हें कई बार अपने पुराने साथियों से उलझन होने लगती थी जो अपनी उसी छोटे शहर की मानसिकता से दिल्ली की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को नापने लगते थे। लेकिन उनका आश्वस्ति का यह भाव ज़्यादा देर तक क़ायम नहीं रह पाया, क्योंकि अनिल वज्रपात की अगली ही बात ने उसे एकबारगी चकनाचूर कर दिया।
     ‘हम तो कल्हे सुबह आपके हियाँ आने की सोचे रहे। काहे से कि गाड़ी से उतर कर पार्टी आफिस पहुँचे तो बड़ी भीड़ रही,’ उसने इतमीनान से बीड़ी सुलगाते हुए कहा, ‘लेकिन आपका नया डेरा का पता नहीं मालूम रहा।’
     ‘हम लोगों ने सोचा था कि अब दिल्ली आये हैं तो दू-चार रोज रुक कर सबसे मिल-मिला लिया जाये,’ प्रकाशपुंज ने कहा।
नन्दू जी को अचानक अपनी साँस रुकती-सी लगी। कुसुम विहार वाले फ़्लैट में तो एकाध बार उन्होंने बाहर से आने वाले साथियों को टिकाया भी था, मगर बंसल साहब के इस मकान में ऐसा करने की वे सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने में कई तरह के ख़तरे थे। जिस क़िस्म की पाबन्दियाँ बंसल साहब ने लगा रखी थीं, उनमें नन्दू जी ओखला में रहने वाले अपने बड़े भाई को ही बड़ी मुश्किल से कभी-कभार टिका पाते थे जब वह इधर का चक्कर लगाता था, पार्टी कॉमरेड की तो कौन कहे। उन्होंने कल्पना की कि लुंगी बाँधे बीड़ी फूंकते अनिल वज्रपात को देख कर बंसल साहब की क्या प्रतिक्रिया होगी।
     ‘सोच में काहे पड़ गये साथी,’ कॉमरेड रामअँजोर ने कहा।
     ‘नहीं, नहीं, सोच की बात नहीं,’ नन्दू जी बोले, ‘आप लोग कल सुबह आइए न। कल मेरी छुट्टी है। बिन्दु को रेडियो स्टेशन जाना होगा तो भी कोई बात नहीं। जम कर चर्चा होगी। मैं तो कहता उधर ही टिकिए पर बात यह है कि मकान-मालिक नीचे ही रहता है और...’
     ‘किराया-भाड़ा तो लेता होगा न,’ प्रकाशपुंज ने कहा, ‘फिर आपके यहाँ कौन ठहरता है, इसमें कौन एतराज का बात है।’
     ‘साथी, आप दिल्ली के मकान-मालिकों को नहीं जानते,’ शाहिद अन्सारी ने हँसते हुए कहा, ‘ऐसी-ऐसी शर्तें रखते हैं मकान देते समय कि बस। मैंने तो इसीलिए सरकारी क्वार्टर लिया। और अब तो पटपड़गंज की एक सोसाइटी का फ़ार्म भर दिया है जो रंगकर्मियों और फ़िल्मकारों के लिए फ़्लैट बना रही है। प्राइवेट मकानों में तो यही चख-चख रहती है।’
     ‘हमको तो ई जना रहा कॉमरेड,’ अनिल वज्रपात ने बीड़ी का आख़िरी कश खींच कर टोटे को बेंच के पाये से रगड़ कर बुझाते हुए कहा, ‘कि ई बड़ा सहर में होता है कि जबर-से-जबर लोग आदमी से पिल्लू बन जाता है। आप सब को ई पेटी बुर्जुआ मानसिकता से संघर्ष करना...’
     ‘साथी,’ शाहिद अन्सारी ने अनिल वज्रपात की बाँह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘यह बहस आप कल नन्दू जी के घर पर जारी रखिएगा। मुझे अभी रैली की फ़ुटेज एडिट करनी है। चलिए, आपको आई.टी.ओ. पर छोड़ दूँ, वहाँ से पार्टी ऑफ़िस के लिए सीधी बस मिल जायेगी।’
नन्दू जी ने ढाबे वाले को चाय के पैसे हिसाब में लिख लेने के लिए कहा था और सब लोग नन्दू जी के दफ़्तर की तरफ़ बढ़े थे। अभी दफ़्तर कुछ दूर ही था कि शाहिद अन्सारी एक नीले रंग की फ़िएट गाड़ी के पास रुक गया और उसने जेब से चाभियों का छल्ला निकाल कर दरवाज़ा खोला। फिर, इससे पहले कि नन्दू जी कुछ कहते, वह बोला, ‘हाल ही में ली है। सेकेण्ड हैण्ड है पर बहुत अच्छी मेनटेन की हुई थी। सबीना के पापा के दोस्त, एक कर्नल साहब की थी। बहुत सस्ते में दे दी। चालीस हज़ार में। शूटिंग के काम भी आती है और सबीना को भी आराम हो गया है। कैसी लगी ?’
     नन्दू जी ने कार की प्रशंसा की थी तो शाहिद अन्सारी ने सरे राहे यह जानकारी भी दे डाली थी कि ’एज़्योर ब्लू’ रंग की फ़िएट गाडि़याँ कम्पनी ने बहुत सीमित संख्या में बनायी थीं और दिल्ली में गिने-चुने लोगों के पास ही थीं। चलते-चलते अनिल वज्रपात ने नन्दू जी से उनके मकान का पता लिया था और पहुँचने का रास्ता समझा था। तभी, कॉमरेड रामजी यादव ने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाल कर नन्दू जी की ओर बढ़ाया था।
     ‘डॉ. दिनेश कुमार ई चिट्ठी आपको देने खातिर कहे थे,’ उन्होंने कहा, ‘चाहते रहे कि रैली में आयें। लेकिन इधर उनका तबियत ठीक नहीं चल रहा है। सो बड़ा दुख से ई चिट्ठी भेजे हैं। आप फुरसत से पढ़ लीजिएगा। कल जब मुलाकात होगा तब इस पर भी चर्चा हो जायेगा।’
     ‘ठीक है,’ नन्दू जी ने चिट्ठी ले कर जेब में रखते हुए कहा था, ‘मैं घर जा कर इसे देख लूँगा।’


Article 7

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हिचकी

किस्त : 14-15

चौदह

शाहिद अन्सारी और अन्य साथियों को विदा करके नन्दू जी मुड़े थे तो उन्हें लगा था कि जैसे वे महाभारत की कथा के उसी कुएँ से निकल कर आये हैं जिसमें एक बरगद की जड़ उतरी हुई थी जिससे बाल खिल्य ऋषि टँगे हुए थे। उन्होंने दोनों हाथों की उँगलियाँ एक-दूसरी में फंसा कर एक दुर्दम अँगड़ाई ली थी और ऐसी साँस छोड़ी थी जिससे गली के कोने पर रमज़ान डेण्टर एण्ड पेण्टर की दुकान पर टँगा समाजवादी पार्टी का काग़ज़ का झण्डा फड़फड़ाने लगा था। फिर वे धीरे-धीरे प्रकाशन संस्थान की सीढि़याँ चढ़ गये थे।
     इरादा तो उनका यही था कि आज जल्दी ही चल देंगे, ख़ास तौर पर जब उन्हें रमा जी के यहां से लौट कर पता चला था कि हरीश अग्रवाल लंच के बाद नहीं आने वाला। लेकिन जब उन्होंने टिफ़िन निकालने के लिए अपना दराज़ खोला था तो उनकी नज़र उस ब्रोशर के रफ़ डिज़ाइन और ले आउट पर पड़ी थी जो राजनैतिक महारथियों वाली श्रृंखला के प्रचार-प्रसार के लिए तैयार किया जा रहा था और पिछले एक-डेढ़ हफ़्ते से इस बात के इन्तज़ार में रुका हुआ था कि रमा बड़थ्वाल पन्त अपने ‘पूज्य पिताजी’ पर केन्द्रित पुस्तक के डिज़ाइन को हरी झण्डी दिखायें तो ब्रोशर को अन्तिम रूप दिया जाये। उन्होंने डिज़ाइन को वैसे-का-वैसा छोड़ दिया था और खाना खाने चले गये थे।
     उधर, जैसे टेलिपैथी का करिश्मा हो, जब वे लौटे तो रागिनी शर्मा ने उन्हें बताया कि पीछे हरीश अग्रवाल का फ़ोन आया था कि वे बड़थ्वाल जी वाली किताब का डिज़ाइन कम्प्यूटर-कक्ष में दे दें और वहीं बैठ कर ब्रोशर के रफ़ डिज़ाइन को भी दुरुस्त करा दें। 
     इस ‘दुरुस्त करा दें’ का मतलब नन्दू जी बख़ूबी जानते थे। वे जानते थे कि अब उन्हें अगले सेट में आने वाली तीन पुस्तकों का एक परिचय लिखना पड़ेगा जो ब्रोशर में उन पुस्तकों के आवरण चित्रों की छोटी-छोटी प्रतिकृतियों के नीचे छपेगा। ब्रोशर का डिज़ाइन तो श्रृंखला की पहली तीन पुस्तकों के आने के बाद ही बन गया था। हर नये सेट के साथ सिर्फ़ रंग योजना और पुस्तकें और उनके परिचय बदलते रहते।
नन्दू जी को सबसे ज़्यादा चिढ़ इस प्रचार सामग्री को तैयार करने में होती थी, क्योंकि कई बार उन्हें प्रचार के नाम पर झूठ का ऐसा जाल रचना पड़ता था जिसमें पाठक फंस जाय। हरीश अग्रवाल बार-बार इस बात को ज़ोर दे कर कहता था कि सम्पादकीय और प्रोडक्शन विभाग का सारा उद्देश्य किताबों की बिक्री बढ़ाना था। उसका आप्त-वाक्य था कि कोई हलवाई अपने दही को खट्टा नहीं कहता। 
     एक बार जब नन्दू जी कुछ ज़्यादा ही खदबदाये थे तो स्वामी ने उन्हें यह कह कर चुप करा दिया था कि हरीश अग्रवाल ने उन्हें अख़बार से डेढ़ गुनी तन्ख़ाह पर प्रकाशन संस्था के सम्पादकीय विभाग में नियुक्त किया था तो इसलिए कि उसकी किताबों की बिक्री बढ़े, इसलिए नहीं कि उसे कला या साहित्य की कोई सेवा करनी थी। वह हर रोज़ सुबह नियमित रूप से एक घण्टा पूजा करता था, लेकिन आख़िरी किताब उसने तब पढ़ी थी जब वह बी.ए. कर रहा था। वे दो-चार बार तो उसके घर गये होंगे, क्या उन्होंने भूले से भी उसके ड्रॉइंग-रूम में कोई किताब देखी थी ? 
     इसके बाद नन्दू जी ने शिकायत करना बन्द कर दिया था। इसलिए जब रागिनी शर्मा ने उन्हें हरीश अग्रवाल का सन्देश दिया था तो वे जल्दी घर जाने का ख़याल छोड़ कर अपनी मेज़ पर आ बैठे थे। उन्होंने आधे घण्टे में तीनों नयी किताबों के परिचय लिखे थे और फिर कम्प्यूटर कक्ष में सुनील विरमानी के साथ बैठ कर ब्रोशर में सेट करवाये थे। 
छै बजने को थे जब सुनील विरमानी ने तब तक डिज़ाइन किये गये ब्रोशर को कम्प्यूटर की मेमरी में सेव करते हुए कहा था, ‘कॉमरेड, हुन बस। बाक़ी सोम नूँ पूरा कराँगे।’ 
     सुनील, जो उनके पुरानी साथी शमशाद की देखा-देखी उन्हें कॉमरेड कहने लगा था, बहुत होशियार कम्प्यूटर ऑपरेटर था और तकनीकी रूप से कुशल लोगों की तरह मनमौजी भी। वह जानता था कि हरीश अग्रवाल को उस जैसा ऑपरेटर जल्दी किये नहीं मिल सकता और इसलिए वह थोड़ी-बहुत छूट लेने में कभी कोताही नहीं करता था।
आख़िरकार, जब सब-कुछ समेट कर नन्दू जी प्रकाशन संस्थान की सीढि़याँ उतरे थे तो साढ़े छै बजने को थे। आफ़िस में सन्नाटा था। सभी कर्मचारी जा चुके थे। सिर्फ़ चपरासी नन्द लाल दफ़्तर बन्द करने के इन्तज़ार में रुका हुआ था। उसे हरीश अग्रवाल ने सीताराम बाज़ार में ही एक कोठरी ले दी थी और सुबह चाभी ले कर आना और दफ़्तर खुलवाना, और फिर शाम को दफ़्तर बन्द कराके चाभी हरीश के घर देना उसकी ड्यूटी में शामिल था। 
     बाहर गली में शोर-शराबा कुछ कम हो गया था। चूँकि कारों-स्कूटरों की रँगाई दिन ही के समय हो पाती थी, इसलिए बाक़ी काम - जैसे मँजाई, धुलाई, अस्तर-पुटीन, वग़ैरा, - बिजली की रोशनी में कर लिये जाते थे। बाहर दो-तीन गाडि़यों पर मिस्त्रियों के यहाँ काम करने वाले छोकरे जुटे हुए थे। थोड़ा आगे चल कर कम्प्यूटरों की मरम्मत का काम चल रहा था। मिस्त्री और छोकरे आपस में हँसी-मज़ाक करते हुए मँजाई-धुलाई कर रहे थे। 
     नन्दू जी ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया था और दरियागंज की मुख्य सड़क से आई¤ टी¤ ओ¤  हो कर लक्ष्मी नगर जाने की बजाय पीछे अन्सारी रोड की ओर मुड़ गये थे ताकि रिंग रोड ले कर जल्दी से आई¤ टी¤ ओ¤ पुल पर पहुँच जायें। मगर शाम का वक़्त था और पुल पर जाम लगा हुआ था। उन्हें पुल पार करने में आध घण्टा लग गया था। जैसे ही वे पुल पार करके ढलान उतरते ही बायीं ओर लक्ष्मी नगर की तरफ़ घूमे थे, उन्हें एक हल्केपन का एहसास हुआ था। सोमवार ही से उन्हें जो एक बादल अपने ऊपर घिर आया महसूस हो रहा था, वह जैसे एकबारगी साफ़ हो गया था। गली के मुहाने पर पहुँचते ही उन्होंने अपनी स्वभावगत सतर्कता को ताक पर रखते हुए हेल्मेट सिर से उतार कर बाँह से लटका लिया था - इसलिए भी कि अब उन्हें ट्रैफ़िक पुलिस के चालान का कोई डर नहीं रह गया था - और मुक्त मन से घर पहुँचे थे।

पन्द्रह

चाय का दूसरा प्याला पीते-पीते नन्दू जी ने बिन्दु को रमा बड़थ्वाल पन्त के यहाँ जाने और परेशान होने की पूरी कथा सुनायी थी। तभी उन्हें ख़याल आया था कि पार्टी के पुराने कॉमरेड कल आने की बात कह रहे थे और अपने अनुभव से वे जानते थे कि अनिल वज्रपात और उदय प्रकाशपुंज भले ही संस्कृतिकर्मी होने के नाते कभी-कभार थोड़ी लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदारी से काम ले लें, लेकिन रामअँजोर और रामजी यादव जैसे खाँटी कार्यकर्ता कभी हलकी-फुलकी बात नहीं करते थे और अगर उन्होंने कल सुबह आने के बारे में कहा था तो यह वादा ‘चन्द्र टरै सूरज टरै’ वाली कहावत के अनुसार न-टलने-वाले वचनों की कोटि में आता था। चुनांचे एहतियात के तौर पर उन्होंने बिन्दु को आगाह कर देना उचित समझा।
‘अरे, मैं बताना भूल गया, रमा जी के यहाँ से दफ़्तर वापस आने पर साथी वज्रपात और प्रकाशपुंज आ गये थे। साथ में नालन्दा और पटना के साथी रामअँजोर और रामजी यादव भी थे।’
     ‘अच्छा! लगता है रैली के बाद रुक गये होंगे। क्या कह रहे थे?’
     ‘कह रहे थे कि पता होता तो सीधे यहीं चले आते,’ नन्दू जी की आवाज़ में हलकी-सी तल्ख़ी घुल गयी - कुछ तो रमा जी वाले प्रसंग का असर अभी बाक़ी था और कुछ ‘साथी लोगों’ के कटाक्षों का। ‘उन्हें दिल्ली की हालत का तो अन्दाज़ा है नहीं। समझते हैं कि जैसे नालन्दा और आरा में होता है, वैसा ही दिल्ली में भी हो सकता है। बहरहाल, कल सुबह आने की बोले हैं।’
‘अरे, तो आयेंगे, मिलेंगे, चले जायेंगे। वैसे भी कल इतवार है। पुराने साथियों से पीछा तो छुड़ाया नहीं जा सकता न?’ बिन्दु के स्वर में नरमी थी। वह जानती थी कि नन्दू जी इस बात से डर रहे हैं कि पुराने साथी कहीं उनसे जवाब तलब न करने लगें।
     ‘पीछा छुड़ाने की बात नहीं है। समझा करो। साथी लोग बदलती हुई स्थितियों को तो देखते नहीं, पुराने ढर्रे पर चलने की रट लगाये रहते हैं। दिल्ली में रहना और टिकना इतना आसान है क्या! पटना-इलाहाबाद में बात दूसरी थी।’ नन्दू जी ने झल्ला कर कहा।
बिन्दु चुप हो गयी और चाय के बर्तन उठाने लगी। तभी नन्दू जी को डॉ. दिनेश कुमार की उस चिट्ठी का ख़याल आया जो कॉमरेड रामजी यादव ने उन्हें दी थी और जिसे उन्होंने अभी तक पढ़ा नहीं था। कॉमरेड रामजी यादव ने कहा भी था कि इस सम्बन्ध में बात करनी है। सो नन्दू जी ने उठ कर बुशशर्ट की जेब से लिफ़ाफ़ा  निकाला था और उसे खोल कर चिट्ठी की तहें सीधी की थीं। 
     चिट्ठी लाईनदार काग़ज़ पर लिखी हुई थी, डॉ. दिनेश कुमार के मोती जैसे अक्षरों में, मगर लिखावट कुछ काँपती हुई-सी थी मानो किसी वृद्ध या बीमार आदमी ने लिखी हो। काग़ज़ भी किसी बच्चे की कापी से फाड़ा हुआ जान पड़ता था। लेकिन काग़ज़ और इबारत जैसी भी रही हो, मज़मून की पहली चार-छै पंक्तियाँ पढ़ते ही नन्दू जी को पसीना आ गया था और उन्हें लगा था जैसे कोई अदृश्य हाथ उनके दिल को मुट्ठी में ले कर मसल रहा है।

प्रिय नन्दू,
लाल सलाम। उम्मीद है तुम और बिन्दु दिल्ली में ठीक-ठाक होगे और बड़े शहर की नयी चुनौतियों का सामना साहस और समझदारी के साथ कर रहे होगे। यह पत्र मैं एक मुसीबत में फंस कर लिख रहा हूँ जिसमें तुम्हारी मदद की ज़रूरत आ पड़ी है।
कुछ महीने पहले जब साथी रामजी यादव नालन्दा आये थे तो उन्होंने बताया था कि तुमने अख़बार से इस्तीफ़ा दे दिया है। उसके बाद तुम्हारी कोई ख़बर नहीं मिली। मैंने एक पत्र महीना भर पहले तुम्हारे कुसुम विहार वाले पते पर लिखा था लेकिन वह लौट आया। नया पता मेरे पास था नहीं, इसलिए जब मुझे पता चला कि साथी राम अँजोर रैली में जायेंगे। तो मैंने उनके हाथ यह पत्र कॉमरेड रामजी यादव को भेजने का फ़ैसला किया कि वे तुम्हें दे दें। मैं भी रैली में आना चाहता था लेकिन मौजूदा हालात में यह सम्भव नहीं है।
तुम्हें यह पता नहीं होगा कि चार-पाँच महीने पहले यहाँ नालन्दा में एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस के लाठी चार्ज में मेरी दायीं टाँग घुटने के पास से टूट गयी थी। 
उस समय तो पलास्टर लगा दिया गया था, लेकिन बाद में पता चला कि जोड़ ठीक नहीं बैठा है। एक बार फिर आपरेशन करके बैठाने की कोशिश की गयी, लेकिन शायद बात बनी नहीं। अन्दर शायद कोई किरच रह गयी है  जिसकी वजह से घाव भरता नहीं और लगातार दर्द रहता है। चलना-फिरना भी बैसाखी के सहारे ही हो पाता है और उसमें भी बहुत कष्ट होता है। 
मैंने पटना भी जा कर दिखाया था। डॉक्टरों का कहना है कि क़ायदे से ऑपरेशन होना ज़रूरी है, तभी पूरी तरह आराम आ पायेगा। सभी ने दिल्ली जा कर एम्स या सफ़दरजंग में दिखाने की सलाह दी है।
इसी कठिनाई में तुम्हें यह चिट्ठी भेज रहा हूँ। तुम्हें मालूम है, दिल्ली मेरे लिए अपरिचित शहर है। वैसे तो वहाँ पार्टी ऑफ़िस भी है, लेकिन उन्हें तो यों भी जगह की तंगी रहती है। फिर उनकी पहुँच भी सीमित है। तुम चूँकि अख़बार में काम करते रहे हो, इसलिए कह-सुन कर मेरे इलाज का प्रबन्ध करा सकते हो। जब तक किसी हस्पताल में ठौर-ठिकाना नहीं होता, कुछ दिन मैं तुम्हें तकलीफ़ दूँगा। 
जैसे ही साथी रामजी यादव रैली से लौट कर तुम्हारी कुशल-क्षेम देंगे, मैं सौरभ को साथ ले कर दिल्ली आ जाऊँगा। तुम्हें तकलीफ़ तो होगी, पर ऐसी हालत में आशा है उसे तुम बरदाश्त करोगे। 
तुम्हारी भाभी और सीमा ठीक-ठाक हैं। सभी तुम्हें बहुत याद करते हैं।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
तुम्हारा
 दिनेश

डॉ. दिनेश कुमार पार्टी के बहुत पुराने और सम्मानित कॉमरेड थे और तभी से पार्टी के साथ थे जब सत्तर के दशक में पार्टी का पुनर्गठन हुआ था। वे सुल्तानपुर में नन्दू जी के गाँव के नज़दीक के गाँव मौजपुर के रहने वाले थे। खाते-पीते ज़मींदार परिवार के। लेकिन उन्होंने इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान पार्टी के क़रीब आने के बाद ही से अपने पिता से किनारा कर लिया था, एक लम्बे समय तक वे भूमिगत रहते हुए बिहार में पार्टी का काम करते रहे थे और फिर जब पार्टी ने भूमिगत आन्दोलन की लाइन छोड़ कर बाहर आने का फ़ैसला किया था तो डॉ. दिनेश कुमार नालन्दा में एक छोटा-सा स्कूल चलाते हुए पार्टी की किसान-सभा का काम-काज देखने लगे थे। 
     डॉ. दिनेश कुमार की पत्नी नालन्दा ही की रहने वाली थीं और एक स्कूल में पढ़ाती थीं। दोनों पति-पत्नी पार्टी के सदस्य थे, डॉ. दिनेश कुमार तो केन्द्रीय समिति में भी थे और उन्हें पार्टी के पुराने सम्मानित सदस्यों में शुमार किया जाता था। हाल के वर्षों में जब से पार्टी ने संसदीय चुनावों में हिस्सा लेने का फ़ैसला किया था, पार्टी में कुछ ऐसे लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगा था जो नये परिवर्तनों से ताल-मेल बैठाने के पक्ष में थे। जिन्हें लगता था कि पुराने आदर्शवादी ढंग से क्रान्तिकारी परिवर्तन अव्वल तो सम्भव नहीं था, या फिर अगर था भी तो उसमें बहुत समय लगने की गुंजाइश थी। 
प्रकट ही, पार्टी के भीतर नये और पुराने विचारों की कशमकश शुरू हो गयी थी और इसके चलते पार्टी की धार में कमी भी आयी थी, क्योंकि संसदीय रास्ता अपनाने के बाद पार्टी को कुछ समझौते भी करने पड़े थे। यही नहीं, बल्कि अपनी पुरानी जुझारू छवि के बल पर पार्टी ने जिन आठ विधायकों को प्रान्तीय चुनावों में जिताया था, उनमें से चार विधायक जातीय समीकरणों के प्रभाव में सत्ताधारी राजनैतिक  दल से जा मिले थे। इसका भी असर पार्टी पर पड़ा था। 
     चुनावी समझौतों के अलावा ज़मीनी स्तर पर भी पार्टी को कई बार अपने वरिष्ठ सदस्यों की मनमानी को अनदेखा  करना पड़ता था। नतीजे के तौर पर एक बार जहानाबाद के एक सामान्य साथी ने पार्टी समर्थित साप्ताहिक में एक लम्बा पत्र छपा कर ‘मालिक कॉमरेड’ और ‘नौकर कॉमरेड’ जैसी बहस भी उठा दी थी। 
पुराने कॉमरेड होने के नाते डॉ. दिनेश कुमार  इन परिवर्तनों को बड़ी चिन्ता से परखते रहे थे। नन्दू जी जब ख़ुद पार्टी से पूरी तरह जुड़ कर बिहार के गाँवों में काम करने की ख़ातिर आये थे तो उन्हें सबसे पहले डॉ. दिनेश कुमार ही की देख-रेख में रखा गया था। दिनेश कुमार ने नन्दू जी को छोटे भाई की तरह अपने परिवार का सदस्य बना लिया था और हर तरह से उनकी देख-रेख की। घर-परिवार की तरफ़ से पड़ने वाले दबावों का मुक़ाबला करने की तरकीब बतायी थी, हताशा के क्षणों में साहस बँधाया था और आर्थिक मदद तो की ही थी। 
     आगे चल कर जब नन्दू जी पटना में पार्टी समर्थित साप्ताहिक में काम करने लगे और उसी दौरान बिन्दु से मिले थे जो पार्टी की महिला शाखा में सक्रिय थी तो डॉ. दिनेश कुमार ने इसका स्वागत किया था। 
     यही नहीं, बल्कि जब इस नियमित मिलने-जुलने की वजह से पार्टी के ऊपरी हलक़ों में एक क्रुद्ध भनभनाहट होने लगी थी तो डॉ. दिनेश कुमार ने ही मामले को सँभाला था। वे जानते थे कि बिन्दु से नन्दू जी का मेल-जोल इसलिए भी नहीं पसन्द किया जा रहा था, क्योंकि दोनों अलग जाति के थे। ऊपर से बिन्दु पार्टी के एक पुराने हमदर्द की भतीजी थी जिसके पिता इंश्योरेंस कम्पनी में अच्छे पद पर थे और बिन्दु की शादी ऐसे युवक के साथ करने के क़तई इच्छुक नहीं थे जिसकी जेब में पैसों से ज़्यादा पार्टी समर्थित साप्ताहिक के लिए लिखे गये लेख होते थे, भले ही उनसे कितनी चिनगारियाँ क्यों न फूटती रहें। 
     पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों के मन में असली भय यह था कि इससे एक ऐसे समर्थक के विमुख हो जाने का ख़तरा था जिससे पार्टी को लगातार पैसों के अलावा भी अनेक प्रकार की सहायता मिलती रहती थी। डॉ. दिनेश कुमार ने पार्टी के साथियों को समझाया था कि नन्दू जी का इरादा बहुत साफ़ था, वे बिन्दु से शादी करना चाहते थे और बिन्दु को भी इसमें कोई एतराज़ नहीं था। बाक़ी, रहा सवाल नन्दू जी की आर्थिक स्थिति का तो जब वे या बिन्दु इस लायक़ हो जायेंगे कि अपने बल पर गृहस्थी चला सकें, तभी शादी करेंगे। 
     बहरहाल, डॉ. दिनेश कुमार ने हर मोड़ पर और हर तरह से नन्दू जी की सहायता फ्रेण्ड-फ़िलॉसोफ़र ऐण्ड गाइड की तरह की थी। जब नन्दू जी का सब्र चुकने लगा था और पार्टी का साप्ताहिक भी आर्थिक संकट में जा फंसा था तो डॉ. दिनेश कुमार ने ही उन्हें सलाह दी थी कि कुण्ठित हो कर पार्टी से बिलकुल किनाराकशी करने की बजाय कहीं बेहतर था कि आदमी अपना कोई छोटा-मोटा जुगाड़ कर ले और फ़ुलवक़्ती नहीं तो ख़ाली समय में पार्टी का काम करता रहे। 
ज़ाहिर है, नन्दू जी पार्टी के रिश्ते ही से डॉ. दिनेश कुमार के क़रीब नहीं थे, निजी तौर पर भी उनसे उपकृत थे  और अब दिनेश जी की चिट्ठी पाने के बाद उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इस नयी गुत्थी को कैसे सुलझायें।
नन्दू जी ने उठ कर गमछे से अच्छी तरह सिर-मुँह पोंछा था और लौट कर फिर से तख़्त पर बैठ गये थे। बिन्दु रसोई में रात के खाने का इन्तज़ाम कर रही थी। शायद रोटियाँ बना रही थी, क्योंकि थोड़ी-थोड़ी देर बाद बेली हुई रोटी को तवे पर डालने से पहले थपकने की आवाज़ आती। नन्दू जी को दिमाग़ में एक आँधी-सी चलती महसूस हो रही थी। उन्हें मानो एक ही साथ दो फ़िल्मों की रीलें चलती नज़र आ रही थीं। एक तरफ़ इलाहाबाद से पटना और नालन्दा जा कर डॉ. दिनेश कुमार और उनके घर-परिवार के साथ बिताये गये समय की तस्वीरें कौंध रही थीं, दूसरी ओर दिल्ली के पिछले तीन-चार वर्षों की जद्दो-जेहद के दृश्य बाइस्कोप की फिरकी से उभरते और विलीन होते चित्रों की तरह आँखों के सामने आ रहे थे। 
     उन्होंने एक बार फिर पत्र को उठा कर पढ़ा था। मशीन की तरह वे चिट्ठी में दर्ज इबारत को बाँच गये थे। उनकी आँखें पत्र के आख़िरी हिस्से पर पहुँच कर वहीं अटक गयी थीं: ‘जब तक किसी हस्पताल में ठौर-ठिकाना नहीं होता, कुछ दिन मैं तुम्हें तकलीफ़ दूँगा। जैसे ही साथी रामजी यादव रैली से लौट कर तुम्हारी कुशल-क्षेम देंगे, मैं सौरभ को साथ ले कर दिल्ली आ जाऊँगा।’
कुशल-क्षेम! नन्दूजी ने तल्ख़ी से सोचा, यही तो वह चीज़ थी जिसकी असलियत आये-दिन बदलती रहती थी और जो दिल्ली की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मुलम्मे से ढँकी रहती थी। साथी लोग मुलम्मे ही को असलियत समझ बैठते थे। वे कल यहाँ आयेंगे तो दुनिया जहान के सवाल उनकी आँखों में होंगे। वे फ़्लैट देखेंगे। फ़्रिज, टीवी और वॉशिंग मशीन देखेंगे और फ़ौरन सोच लेंगे कि अब नन्दू जी के यहाँ बड़े आराम से ठहरा जा सकता है। बंसल साहब और उनकी तिरछी नज़र को तो वे देखेंगे नहीं, न उन टीका-टिप्पणियों को सुनेंगे जो बंसल साहब हर वाजिब-ग़ैर वाजिब मौक़े पर करते रहते थे। उन्हें याद आया कि हफ़्ता-दस दिन पहले ही बंसल साहब ने सब-मीटर के फुंक जाने पर कितना हो-हल्ला मचाया था:
     ‘इत्ते किरायेदार आये जी पिछले पाँच साल में,’ उन्होंने अजीब-से अवसाद-भरे अचरज से सिर हिलाते हुए कहा था, ‘कभी तो मीटर फुंका नहीं। आप अपनी अप्लायन्सेज़ चेक कराओ नन्द किशोर जी। किस कम्पनी का है फ़्रिज और टीवी? आजकल असेम्बल्ड माल आ रहा है ढेरों, और सारे-का-सारा सब-स्टैण्डर्ड।’ 
     बंसल साहब बिजली के मिस्त्री के आने तक सन्देह-भरी नज़रों से नन्दू जी के टीवी को देखते रहे थे और तभी शान्त हुए थे जब मिस्त्री ने आ कर कहा था कि गड़बड़ी नन्दू जी के फ्रिज और टीवी में नहीं, बल्कि मीटर ही में थी। 
     मिस्त्री ने मीटर ठीक करने के दो सौ रुपये माँगे थे और बंसल जी ने घर के अन्दर से ला कर पैसे देते हुए ऐसा बुरा मुँह बनाया था कि नन्दू जी का सारा दिन ख़राब हो गया था। 
     अब यह नयी मुसीबत आ खड़ी हुई थी। अगर डॉ. दिनेश कुमार अपने बेटे के साथ चले आये और बंसल साहब ने कहा कि उन्होंने मकान रहने के लिए दिया है, होटल चलाने के लिए नहीं, तो ?.... 
     और इसी ‘तो’ पर आ कर अचानक नन्दू जी को पहली हिचकी आयी थी।

Article 6

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हिचकी

किस्त : 16-17

सोलह

शुरू-शुरू में तो ऐसा लगा मानो तूफ़ान से पहले हवा के निस्बतन तेज़ होते झँकोरे हों जिनके बीच में निर्वात के द्वीप हों या जैसे नल में पानी के आने से पहले गड़गड़ाहट और सों-सों की आवाज़ होती है और झटके से पानी आता है। फिर बन्द हो जाता है। फिर शुरू होता है। फिर बन्द हो जाता है। और फिर धड़धड़ा कर जब शुरू होता है तो रुकने का नाम नहीं लेता। कुछ ऐसी ही कैफ़ियत नन्दू जी की हिचकियों की थी।
पहले तो नन्दू जी ने हिचकियों पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। उनका ख़याल था कि देर से चाय पीने और वह भी एक साथ दो प्याले, पेट अफरा गया है और कुछ मिनट बाद अपने आप ठीक हो जायेगा। लेकिन जब पन्द्रह मिनट गुज़र गये और हिचकियों ने एक सधी हुई रफ़्तार पकड़ ली तो नन्दू जी को लगा कि इन हिचकियों का कुछ करना पड़ेगा। उन्होंने उठ कर एक गिलास में पानी ले कर उसके कुछ घूँट भरे थे और लम्बी-लम्बी साँसें ली थीं, लेकिन हिचकियाँ पहले ही की तरह जारी रहीं।
इस बीच बिन्दु रोटियाँ बना कर, दाल को बघार, हाथ पोंछती आ गयी थी। उसे भी चिन्ता की कोई बात नहीं लगी थी।
‘तुमने पानी पिया?’ उसने पूछा था।
नन्दू जी ने सिर हिला कर बताया था कि वे पानी पी चुके हैं।
‘ठहरो, मैं हाज़मोला की गोली देती हूँ। अभी आराम आ जायेगा।’
लेकिन जब हाज़मोला की गोली भी बेकार साबित हुई और हिचकियाँ बराबर आती रहीं और समय भी दस से ऊपर का होने लगा तो पहली बार बिन्दु  को चिन्ता हुई थी। नन्दू जी इस बीच बेहाल हो चले थे। तब बिन्दु भाग कर नीचे गयी थी और उसने बंसल साहब के घर की घण्टी बजायी थी। 
बंसल जी तब तक अपनी दुकान से लौट कर, सन्ध्या-वन्दन करके भोजन आदि से निपट कर सास-बहू वाला कोई घटिया-सा धारावाहिक देखने के बाद सोने की तैयारी कर रहे थे। बिन्दु को बाहर बदहवास खड़े देख कर वे उसके साथ ही ऊपर चले आये थे और उन्होंने नन्दू जी से हिचकियों के बारे में कुछ इस तरह तफ़सील तलब की थी मानो वे फ़ौजदारी के मुक़दमे में किसी गवाह से जिरह कर रहे हों।
बहरहाल, सारा हाल-चाल लेने के बाद बंसल जी ने अपने ख़ास उपदेशक वाले अन्दाज़ में कहा था, ‘बदहज़मी है जी, बदहज़मी,’ और उन्होंने यूं सिर हिलाया था जैसे नालायक़ बच्चों के बाप निराशा में सिर हिलाया करते हैं। 
‘बात ये है जी,’ बंसल साहब ने अपने मख़सूस अन्दाज़ में प्रवचन शुरू कर दिया था, ‘कि आजकल के नौजवान खान-पान का ध्यान तो बरतते नहीं हैं। बाहर का खाना कभी शरीर को माफ़क आया है भला ? हम तो बाहर का इसीलिए कभी न ख़ुद खात्ते हैं जी, न घर वालों को खाने देत्ते हैं। ख़ैर, मेरे पास एक बड़ा अच्छा चूरन है; हमारे बैद जी ने ख़ास हमारे लिए बनवाया है। मैं थोड़ा-सा देता हूं। चौथाई चम्मच कुनकुने पानी से लीजिए। परभू ने चाहा तो फ़ौरन आराम आ जायेगा। ना आये तो सोते बखत चौथाई चम्मच और ले लेना जी। सुबह तक तन चंगा हो जायेगा और हाँ, रात को उपवास ही कर लेना अच्छा होगा।’
नन्दू जी अगर इतने बेहाल न होते तो यक़ीनन बिन्दु पर बरस पड़ते कि वह इस सर्वज्ञ क़िस्म के मालिक मकान को क्यों बुला लायी है। 
इस हालत में कोई खा कैसे सकता है?--वे बंसल साहब से पूछना चाहते थे लेकिन बंसल साहब तो अपना प्रवचन दे कर चलते बने थे। थोड़ी देर में बिन्दु नीचे से एक पुडि़या में लगभग डेढ़ चम्मच चूरन ले कर आयी थी जो चूरन कम और पिसी हुई चूहे की लेंड़ी ज़्यादा लगता था। नन्दू जी को लगा था कि अर्से से रखे हुए इस चूरन में कुछ भी अला-बला मिल गयी हो तो हैरत की बात नहीं। उनके मन में एक तल्ख़ ख़याल आया था कि अगर बंसल साहब खान-पान में इतना परहेज़ रखते हैं तो फिर उन्हें वैद से ख़ास तौर पर अपने लिए चूरन बनवाने की ज़रूरत क्यों पड़ी भला? 
इन्हीं ख़यालों के साथ नन्दू जी को एक अदद फ़ोन की भी कमी बुरी तरह महसूस हुई थी। फ़ोन होता तो वे किसी-न-किसी मित्र-परिचित को फ़ोन करके सलाह कर सकते थे या फिर अपने भाई को पूछ सकते थे कि ऐसी हालत में वे क्या करें। अब सुबह तक इन्तज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था। लेकिन सवाल यही था कि इस बीच वे बंसल साहब का चूरन आज़मायें या नहीं। 
हालाँकि नन्दू जी ने पहले यही फ़ैसला किया था कि वे बंसल साहब का यह ज़लील चूरन नहीं खायेंगे, लेकिन बारह बजते-न-बजते उनकी तबियत इतनी झल्ला गयी थी कि उन्होंने उसके चौथाई चम्मच की फंकी लगायी थी और कुनकुना पानी पी लिया था। 
चूंकि शादी-शुदा ज़िन्दगी में यह पहली बार था कि बिन्दु को इस तरह की स्थिति से दो-चार होना पड़ा था जब सलाह-मशविरे या हौसला बँधाने और सहायता देने के लिए कोई न हो, इसलिए वह अन्दर से काफ़ी घबरा गयी थी, गो बाहर से उसने अपनी घबराहट ज़ाहिर नहीं होने दी थी। यहाँ तक कि उसने नन्दूजी के एक ही बार कहने पर जा कर खाना भी खा लिया था। लेकिन उसने फ़ैसला कर लिया था कि सुबह-सबेरे ही जा कर वह नन्दू जी के भाई को फ़ोन करके बुला लेगी। 
इसके बाद बंसल साहब के चूरन का कमाल था या दिन भर की भाग-दौड़ और तनाव का असर, नन्दू जी को बारह बजे के क़रीब झपकी आ गयी थी। लेकिन जब सुबह के पाँच बजे अचानक नन्दू जी की नींद खुली थी तो हिचकी बदस्तूर जारी थी। कुछ घण्टे सो लेने की वजह से उन्हें अपनी तबियत उतनी गिरी हुई नहीं लग रही थी जितनी रात को। 
सिवा शारीरिक बेआरामी के, हिचकी से उन्हें कोई दर्द या तकलीफ़ भी महसूस नहीं हो रही थी। उन्होंने पाया था कि चाय पीने में भी उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं हुई थी। लेकिन तीसरी धारा की वामपन्थी पार्टी के अनुभवों ने नन्दू जी को ऐसी किसी आकस्मिक स्थिति के लिए तैयार नहीं किया था। वे अगर बिहार के जलते खेत-खलिहानों में रोग-शोक-शोषण-अभाव से ग्रस्त लोगों के बीच गये भी थे तो एक बाहरी मध्यवर्गीय कार्यकर्ता की हैसियत से ‘अन्दर के आदमी’ की तरह नहीं । 
उन सारे युवकों में जो अस्सी के दशक में अलग-अलग कारणों से तीसरी धारा की जुझारू राजनीति में शामिल हुए थे, एक बात समान रूप से दिखती भी। ज़मीनी स्तर पर शोषण और उत्पीड़न, अभाव और विषमता के ख़िलाफ़ एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए जद्दो-जेहद कर रहे लोगों के बीच जा कर काम करते हुए भी कहीं-न-कहीं उनके अन्दर यह भाव अचेतन रूप से रहता ही था कि उनके लिए ‘बाहर का’ एक रास्ता हमेशा खुला है। जब उन्हें लगेगा कि आगे बात नहीं बन रही है तो वे फिर अपनी उसी मध्यवर्गीय ज़िन्दगी में लौट जायेंगे। और यही लगभग नब्बे फ़ीसदी मामलों में होता भी था। 
ये सभी युवक जहाँ के थे, वहीं रहते हुए लड़ने की बजाय किसी रूमानी ज़ज्बे के तहत सुदूर अंचलों के किसान-मज़दूरों के बीच जाते थे और फिर उस जीवन की अँधेरी सच्चाइयों से रू-ब-रू होने के बाद लौट आते थे और उसके बाद पुराने आदर्शों को एक किनारे करते हुए हालात से समझौता कर लेते थे। चूंकि जो युवक यह रास्ता अख़्तियार करते थे, वे औसत से अधिक मेधावी होते थे, इसलिए लौटने के बाद अक्सर उन्हें सफल होते भी देखा गया था। बाद में वे एक रूमानी अन्दाज़ में इस पुरानी ज़िन्दगी को कुछ उस तरह से याद करते जैसे लोग पहले-पहले प्यार को याद किया करते हैं। 
नन्दू जी हालाँकि पत्रकारिता से जुड़े रहने की वजह से अभी न तो अपनी पुरानी ज़िन्दगी से इस हद तक कट पाये थे, न पुराने साथियों से, मगर वे उस दिशा में धीरे-धीरे क़दम ज़रूर बढ़ा रहे थे। इसीलिए उन्हें अफ़सोस हो रहा था कि उन्होंने इलाज-उपचार जैसी बुनियादी ज़रूरत को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल करके किसी ढब के डॉक्टर से सम्पर्क क्यों नहीं साधा जो उनके घर के क़रीब और सुलभ होता। 
दिल्ली आने के बाद एकाध बार जब ज़रूरत पड़ी भी तो वे पार्टी के एक पुराने हमदर्द डॉ0 सुशील वर्मा के पास चले गये थे जो गुरु तेग़ बहादुर हस्पताल में तैनात थे और हस्पताल के परिसर में ही डॉक्टरों के आवास में रहते थे। लेकिन हस्पताल लक्ष्मी नगर से दूर था और डॉ0 सुशील वर्मा के फ़ोन का नम्बर बदल गया था। नन्दू जी को अपनी ग़फ़लत पर भी खीझ हुई कि उन्होंने डॉक्टर वर्मा का नया नम्बर पार्टी ऑफ़िस से ले कर अपनी डायरी में क्यों नहीं दर्ज कर लिया था। उन्हें ख़याल आया कि वक़्त रहते उन्हें किसी ऐसे डॉक्टर का इन्तज़ाम कर रखना चाहिए था जिसे अचानक ज़रूरत पड़ने पर दिखाया जा सकता।
इस बीच बिन्दु ने उठ कर सुबह के सारे ज़रूरी काम निपटा लिये थे। वैसे तो उसे उम्मीद नहीं थी कि उस इतवार को उसे आकाशवाणी से बुलावा आयेगा, लेकिन वह चाहती थी कि जा कर प्रोग्राम एग्ज़ेक्यूटिव को फ़ोन कर दे और नन्दू जी की बीमारी के बारे में बता कर उससे कह दे कि वह उस रोज़ उसकी डयूटी न लगाये। ऐसा करके वह बुलाये जाने पर ना करके शिकायत का मौक़ा देने से भी बच जाती। साथ ही वह नन्दू जी के भाई को जल्द-से-जल्द आने के लिए कह देना चाहती थी।
जब वह फ़ोन करने के लिए पास के पी.सी.ओ. तक जाने के लिए तैयार हुई थी तो नन्दू जी ने उसे दो नम्बर और दिये थे। एक पार्टी के दफ़्तर का था और दूसरा, के0 विक्रम स्वामी के मकान मालिक का जो बंसल जी से बिलकुल विपरीत स्वभाव वाला भला आदमी था और बिना किसी रगड़े-झगड़े के स्वामी को बुलवा दिया करता था।
‘पार्टी ऑफ़िस में फ़ोन करके साथी रामजी यादव को बता देना और सुशील वर्मा का फ़ोन नम्बर ले लेना। फिर उन्हें फ़ोन करके पूछना क्या करें। स्वामी से कहना दोपहर को चला आये।’ यह हिदायत दे कर नन्दू जी निढाल हो कर दीवान पर पीछे को अधलेटे हो गये थे। 
उन्हें अन्दर से एक विराट झल्लाहट और विवशता का एहसास हो रहा था। थोड़ी-थोड़ी आत्मदया भी उनके अन्दर सुगबुगा रही थी। लेकिन हिचकी को न तो नन्दू जी के पिछले जीवन की जद्दो-जेहद का कुछ ख़याल था, न मौजूदा ज़िन्दगी की कशमकश से कोई वास्ता। वह बदस्तूर जारी थी। बीच-बीच में अगर उसके थोड़ा हलके पड़ने से नन्दूजी की उम्मीदें पलकें खोलतीं तो थोड़ी देर बाद वह फिर तेज़ी से एक झटका दे कर इन उम्मीदों को सुला देती। 
नन्दू जी के कानों में पिछले दिन अनिल वज्रपात की कही हुई बात गूंज रही थी--‘हमका तो ई जना रहा कॉमरेड कि ई बड़ा सहर में होता है कि जबर-से-जबर आदमी पिल्लू बन जाता है।’--और वे ख़ुद को ऐसी ही विकट परिस्थिति में फँसे आदमी जैसा पा रहे थे।
तभी बिन्दु लौट आयी थी। उसके चेहरे पर आश्वस्ति का ऐसा भाव था मानो वह नन्दू जी की हिचकियों का कोई सटीक उपाय खोज लायी हो, जबकि इस भाव के पीछे सबसे बड़ी वजह यही थी कि वह जिस काम से गयी थी उसे कर आयी थी और उसे नन्दू जी की शिकायतों से ले कर प्रवचनों तक का कोई डर नहीं था।
‘चिन्ता की कोई बात नहीं है,’ बिन्दु ने नन्दू जी को ढाढ़स बधाया था, ‘सुशील जी कहते हैं, ऐसा कभी-कभी हो जाता है। बहुत बेचैनी हो तो डाइजीन की एक गोली ले ली जाये। खाना हलका ही खाना है। उन्हें मौक़ा मिलेगा तो वे आयेंगे। अभी तो वे ग़ाज़ियाबाद जा रहे थे ज़रूरी काम से।’
‘भैया से बात हुई?’ नन्दू जी ने पूछा।
‘बता रही हूं,’ बिन्दु ने अपने बटुए से डाइजीन का पत्ता निकालते हुए कहा। ‘भैया ग्यारह बजे तक आयेंगे। अभी तो उन्हें सेठ बद्री प्रसाद के यहाँ जाना था।’

सत्रह

नन्दू जी के बड़े भाई चन्द्र किशोर तिवारी, जिन्हें जसरा ब्लॉक का हर आदमी चन्दू गुरु के नाम से जानता था और हाल के वर्षों में पैर छू कर प्रणाम करता था, उमर में नन्दू जी से केवल पाँच साल बड़े थे, लेकिन जो समय नन्दू जी ने बिहार के जलते खेत-खलिहानों में बिताया था, वही समय उनके भाई ने ‘चन्दू गुरु’ से ‘तिवारी जी’ और ‘तिवारी जी’ से ‘पण्डित जी’ बनने में। 
इण्टर पास करते ही वे दिल्ली चले आये थे और ओखला की एक फ़ैक्टरी में स्टोर कीपर की नौकरी करने लगे थे जिसमें स्टोर कीपरी का काम कम और चौकीदारी का पहलू ज़्यादा था। अच्छे, सुदर्शन आदमी थे और जब उन्होंने पहले ही महीने में घटतौली के दो मामले पकड़ लिये थे तो सेठ बद्री प्रसाद के पिता ने, जो उन दिनों फ़ैक्टरी का सारा काम-काज देखा करते थे, चन्दू गुरु को फ़ैक्टरी के अहाते में ही एक क्वार्टर दे दिया था। 
नन्दू जी भले ही वैज्ञानिक समाजवाद के चक्कर में ‘प्रबुद्ध’ हो गये थे, चन्दू जी ने पुश्तैनी धन्धे को उतनी ही वैज्ञानिक निष्ठा से अपनाये रखा था। फ़ैक्टरी में क्वार्टर पाते ही जो पहला काम उन्होंने किया था, वह था फ़ैक्टरी के गेट के भीतर घुसते ही दायीं तरफ़ एक मन्दिर की स्थापना। सेठ हरि प्रसाद को भला क्या एतराज़ होता। उन्हें तो स्टोर कीपर के साथ मुफ़्त में एक ‘पंडत’ भी मिल रहा था। 
चन्दू ने सबसे पहले अपनी धज सँवारी थी। चुटिया वे रखते ही थे, अब उन्होंने उसे और बढ़ा लिया था। पतलून-बुशशर्ट छोड़ कर वे धोती-कुर्ता पहनने लगे और माथे पर हर रोज़ वार के हिसाब से त्रिपुण्ड और चन्दन लगाने लगे। धीरे-धीरे वे बाबू चन्द्र किशोर और चन्दू गुरु की जगह ‘पण्डित जी’ के रूप में मशहूर हो गये। 
ज्ञान भले ही उनका सीमित था, लेकिन कण्ठ बहुत मधुर और उच्चारण शुद्ध था, ख़ास तौर पर जब वे अपने खाँटी सुल्तानपुरी लबों-लहजे को प्रयत्न पूर्वक क़ाबू में रखते हुए संस्कृत के श्लोकों का पाठ करते थे। चार-छै अवसरानुकूल भजन और इतने ही मन्त्र उन्होंने घर जा कर अपने पुरोहित पिता की मदद से कण्ठस्थ कर लिये थे। मन्दिर में आरती से लेकर छोटे-मोटे कर्मकाण्ड कराते हुए वे अब कथा बाँचने और अनुष्ठान बगैरा भी कराने लगे थे। धीरे-धीरे जब उनकी शोहरत बढ़ी तो उन्होंने लोगों के घर जा कर पूजा-पाठ करना भी शुरू कर दिया।
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दिल्ली में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो अपने ज़्यादातर सामाजिक काम-काज के लिए दूसरों पर आश्रित थे। दक्षिण में भले ही आपको हर घर में एक न एक सदस्य संगीत या नृत्य या कला के और किसी रूप में कमोबेश संलग्न मिल जाय, उत्तर भारत में यह सब दूसरों के हवाले था। सो, जिस तरह ऐसे लोग, जिन्होंने कभी सितार के दर्शन भी नहीं किये थे, उस्ताद विलायत ख़ाँ के कैसेट और सी0 डी0 ला कर घर में बजाते हुए संगीत-प्रेमी बने रहते थे, उसी तरह ख़ुद एक भी श्लोक न जानते हुए किसी पण्डित को हर रोज़ बुला कर घर के किसी छोटे या बड़े कमरे में बने मन्दिर में पूजा पाठ करा लिया करते थे। 
चन्द्र किशोर ने इस प्रवृत्ति को भाँप लिया था और उन्होंने धीरे-धीरे अपनी यजमानी बनानी शुरू कर दी थी। साथ-साथ वे थोड़ा-बहुत झाड़-फूंक और तन्त्र-तावीज़ का काम भी करने लगे थे। वे जानते थे कि छोटे शहर का भी कुशल कम्पाउण्डर यह जानता है कि गले में आला लटकाना और मरीज़ देखना ही डॉक्टर कहाने के लिए काफ़ी होता है। बाक़ी डिग्री-फिग्री तो बकवास है। क्योंकि अगर मरीज़ ठीक हो रहे हों तो फिर कोई डॉक्टर की डिग्री नहीं देखता। और अस्सी फीसदी मरीज़ों को ठीक करने के लिए कुशल कम्पाउण्डर होना ही काफ़ी है। बाक़ी के लिए विशेषज्ञ तो हैं ही, जिनके पास कठिन मरीज़ों को भेजा जा सकता है। इसी तरह ‘पण्डित’ बनने के लिए वेद-उपनिषद पढ़ने की ज़रूरत नहीं। निन्यानबे फ़ीसदी लोगों की ज़रूरत ज्ञान नहीं, सान्त्वना है। वह अन्तःकरण की हो या मन की। 
यही मूल-मन्त्र अपने पल्ले बाँध कर चन्दू गुरु ने पँडिताई का काम शुरू किया था और धीरे-धीरे अब वे इस स्थिति में आ गये थे कि फ़ैक्टरी के क्वार्टर की बजाय अपना निजी मकान ले लें। ईस्ट ऑफ़ कैलाश के पास गढ़ी में एक बुढि़या का बड़ा-सा पुराना मकान उन्होंने देख भी रखा था जहाँ वे साल में तीन-चार बार कथा बाँचने या ऐसा ही और कोई खटकरम करने जाते थे। लेकिन यह सब करते हुए उन्होंने दो-तीन बातों का पूरा ख़याल रखा था। 
पहली तो यह कि अपनी स्टोर कीपरी पर वे बदस्तूर बने रहे थे। हालाँकि कारख़ाने का काम बढ़ने के साथ, अब इस काम का ज़्यादातर हिस्सा सँभालने के लिए सेठ हरिप्रसाद की ओर से उन्हें एक सहायक मिला हुआ था तो भी वे अपनी ‘ड्यूटी’ मुस्तैदी से निभाते। सेठ हरिप्रसाद और उनके बेटे सेठ बद्रीप्रसाद के बारे में उन्हें कोई मुग़ालता नहीं था। वे जानते थे कि सेठ ने नौकरी उन्हें पँडिताई करने के लिए नहीं, बल्कि स्टोर कीपरी करने के लिए दी थी और उसमें कोताही करने पर उनका सारा धरम-करम और पूजा-पाठ उनके सहायक को उनकी गद्दी पर जा बैठने से रोक नहीं पायेगा। 
दूसरी सावधानी उन्होंने यह बरती थी कि ‘बामन का छोरा, देस बेगाना नींवे चलना’ की मसल पर अमल करते हुए उन्होंने अपना रहन-सहन पहले की तरह सादा रखा हुआ था; साथ ही उन्होंने फैक्टरी के क्वार्टर पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखने का फ़ैसला कर रखा था; और तुरुप की चाल यह कि फ़ैक्टरी में मन्दिर बनाते ही उन्होंने हर इतवार को नियमित रूप से ग्रेटर कैलाश में सेठ जी की कोठी पर जाना, वहाँ पूजा-पाठ करना और ‘बहू जी’ यानी सेठ हरिप्रसाद के बेटे सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी, को भजन सुनाते हुए प्रसाद देना (जिसमें ‘देने’ से अधिक ‘लेना’ ही शामिल था क्योंकि आधा किलो देसी घी के लड्डुओं का अधिकांश तो वे सीधे के नाम पर अपने साथ बाँध लाते) शुरू कर दिया था। 
हाल के दिनों में, जब से टी.वी. के, एक चैनल पर कोई-न-कोई ‘महात्मा’ नज़र आने लगा था, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी के मन में कई सुषुप्त आकांक्षाएं कुलबुलाने लगी थीं।
ऐसी हालत में, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी को जब पता चला था कि उनके छोटे भाई को हिचकियाँ आ रही हैं और उन्हें तलब किया जा रहा है तो उन्हें थोड़ी उलझन हुई थी। अपनी सधी-सधायी ज़िन्दगी में इस तरह के प्रसंग उन्हें स्पीड-ब्रेकरों जैसे लगते थे जो -- हिन्दुस्तान में कम-से-कम -- रफ़्तार कम करने से ज़्यादा गाडि़यों के अंजर-पंजर ढीले करने के काम आते थे। 
इसके अलावा उन्हें अपने छोटे भाई के रंग-ढंग पर कई ऐतराज़ भी थे। पुश्तैनी काम-काज छोड़ना तो किसी हद तक ज़माने के साथ चलने की शर्त का हिस्सा था, लेकिन यह क्या कि आदमी धरम-करम से एकदम किनारा कर ले, गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों और शिवलिंग-शालिग्राम की जगह जाने कौन-कौन से विदेशी विधर्मियों की तस्वीरें टाँगे रहे और सारा आचार-विचार भुला कर, जिसमें ब्राह्मण के लिए जनेऊ और शिखा-त्रिपुण्ड अनिवार्य थे, कुमार्ग पर चलने लगे। लेकिन कुछ भी हो, नन्दू उनका छोटा भाई था, इसलिए बिन्दु का घबराया हुआ फ़ोन आने के बाद उन्होंने गहरी साँस लेते हुए पिता से सुनी पुरानी उक्ति दोहरायी थी -- स्वधर्मे निधनं श्रेयः पराधर्मो भयावहः -- और तय किया था कि उस रोज़ वे सेठ बद्री प्रसाद के यहाँ थोड़ा जल्दी चले जायेंगे और वहाँ की साप्ताहिक पूजा थोड़ी संक्षिप्त कर देंगे।
संयोग से उस दिन सेठ बद्रीप्रसाद के यहाँ उनके साले का लड़का आया हुआ था जो साल डेढ़ साल पहले ही अमरीका के किसी विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. करके लौटा था और मोटी तनख़्वाह पर एक विदेशी कम्पनी में मार्केटिंग एक्ज़ेक्टिव लगा हुआ था। सेठ बद्रीप्रसाद के साले फ़ाइबर की चादरों के सबसे बड़े व्यापारी थे और उन्होंने विकी को - कि यही उनके बेटे का नाम था - अमरीका भेजते समय यह साध पाल ली थी कि जब वह लौट कर आयेगा तो वे ख़ुद फ़ाइबर की चादरों का एक कारख़ाना खोलेंगे। लेकिन विकी ने लौटने के बाद इस ‘मल्टीनैशनल कम्पनी’ की चाकरी करके उनके मंसूबों पर मानो पानी फेरने की ठान ली थी। 
यों विकी दिल्ली के उन हज़ारों उच्चवर्गीय युवकों में से था जो आधुनिक खुलेपन और पुरानी संकीर्णता की खिचड़ी थे। वह डिस्को जाता, पूल और स्नूकर खेलता, देर रात की पार्टियों में बियर भी पी लेता और मांस-अण्डे से भी अब उसे कोई हिचक भी नहीं रह गयी थी, लेकिन वह अपनी कलाई पर हरदम उस मौली को बाँधे रहता जो पिछले किसी तीज-त्योहार पर हुई पूजा के दौरान पिछले धागे की जगह बाँधी गयी थी और अगले त्योहार पर बदले जाने तक बँधी रहने वाली थी; नियमपूर्वक हर मंगल और शनि को हनुमान मन्दिर जा कर मत्था टेकता, नवरात्र में नौ के नौ दिन व्रत रखता और साल में दो बार वैश्नो देवी की यात्रा पर जाता। सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी को उनके भाई ने विकी को ‘समझाने’ का काम सौंपा हुआ था और इसीलिए बहाने से विकी को बुलवाया गया था।
जब चन्दू गुरु ने पूजा समाप्त करने के बाद ‘बहू जी’ को उदास स्वर में अपने छोटे भाई की तबियत के बारे में बताया था तो उन्होंने कहा था, ‘पण्डित जी, आपको फ़ौरन जा कर उसे देखना चाहिए। ऐसे मामलों में ढील ठीक नहीं होती। मेरी मानिये तो बस-वस का चक्कर छोडि़ये, ऑटो ले कर चले जाइए।’ 
यह कह कर सेठ बद्रीप्रसाद की पत्नी ने सौ रुपये का नोट तिवारी जी को भेंट किया था। वे नोट जेब में रखने ही जा रहे थे कि विकी ने कहा था, ‘बुआ, मुझे तो उधर ही जाना है। मैं पण्डित जी को ड्रॉप कर दूंगा।’ 
तिवारी जी का हाथ वहीं-का-वहीं थम गया था; लेकिन ‘बहू जी’ ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘कोई बात नहीं पण्डित जी, पैसे रख लीजिए। जाने वहाँ कैसी जरूरत पड़ जाये। फिर आपको लौटना भी तो होगा।’
तिवारी जी का हाथ, जो ठिठक कर उनकी जेब पर जमा हुआ था, फिर हरकत में आ गया था, मानो कोई फ़िल्म अचानक रुकने के बाद झटके से दोबारा चल पड़े। उन्होंने अपना सामान इकट्ठा किया था और विकी के साथ उसकी नयी ओपल गाड़ी में जा बैठे थे। 
सारा रास्ता विकी उनसे बड़े दिलचस्प सवाल पूछता आया था; मसलन, जनेऊ क्यों पहना जाता है, चुटिया रखना क्यों ज़रूरी है, आदि-आदि और तिवारी जी बड़ी गम्भीरता से उसे इस सारे पुराने धार्मिक कर्म-काण्ड की आधुनिक व्याख्याएँ करके चमत्कृत करते रहे थे। नतीजा यह हुआ था कि जब वे बंसल साहब के मकान के सामने विकी की कार से उतरे थे तो उन्होंने अगले इतवार को ‘बिस्तार से’ ये सारी बातें समझाने का वादा करते हुए उसे सेठ बद्री प्रसाद के घर आने के लिए कह दिया था। 

Article 5

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हिचकी

किस्त : 18-19

अट्ठारह

ऊपर नन्दू जी के यहाँ हाल वैसा ही था। 
आख़िर, इन ढाई तीन घण्टों में - बिन्दु के फ़ोन करके आने के बाद से चन्दू गुरु के आने तक - ऐसा क्या फ़र्क़ पड़ने वाला था। चन्दू गुरु के घण्टी बजाने पर बिन्दु ने दरवाज़ा खोला था और हालाँकि नन्दू जी के प्रभाव में पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं का विरोध करने के नाम पर उसने बहुत-से रिवाज छोड़ दिये थे, जैसे सिर ढँकना, पैर छूना, बिछुआ पहनना, लेकिन इस अजीब स्थिति में जब उसने ख़ुद फ़ोन करके ‘बड़के भैया’ को बुलाया था, वह कुछ अचकचा-सी गयी थी। उसने सिर तो नहीं ढँका था लेकिन झुक कर चन्दू गुरु के पैर ज़रूर छू लिये थे।
‘जीती रहो, जीती रहो,’ चन्दू गुरु ने उसे आशीर्वाद दिया था, ‘सुहाग अचल रहे।’ फिर वे चप्पल उतार कर अन्दर गये थे। 
नन्दू जी दीवान पर निढाल पड़े थे। हिचकियों का वेग तो कम हो गया था, पर उनका सिलसिला बराबर जारी था। हर दो-तीन मिनट पर नन्दू जी को झटके के साथ हिचकी आती। उन्होंने एक ऐसी कातर दृष्टि से अपने भाई को देखा जिसमें तकलीफ़, फ़रियाद, लाचारी और राहत का एक मिला-जुला भाव था।
‘धरम-करम छोड़ने से एही होता है,’ चन्दू गुरु ने आत्म-विश्वास से लबरेज़ अपने ख़ास पँडिताई वाले अन्दाज़ में कहा, ‘तुम नयी चाल के लोग तो कुछ मानते ही नहीं।’ 
उन्होंने अपना झोला बेंत की एक कुर्सी पर टिका दिया था और धाराप्रवाह बोलते-बुदबुदाते हुए जा कर पैर-हाथ धोये थे और फिर अन्दर आ कर नीचे चटाई पर बैठ गये थे। 
‘अरे, सब कुछ जो पुराना है, वह बुरा नहीं है, और सब कुछ जो नया है, वह अच्छा नहीं है। बाबू जी बताते थे कालीदास भी एही कहे हैं। जइसे दुनिया में अच्छा-बुरा आदमी होता है, वइसे अच्छी-बुरी आत्मा होती है। एही लिये लोग देवी-देवता की तस्वीर टाँगते हैं, गनेस जी की मूर्ति रखते हैं, सिउलिंग और सालिग्राम पूजते हैं। तुलसी बाबा भी कह गये हैं - भूत परेत निकट नहीं आवे, हनूमान जब नाम सुनावे। हम दिल्ली के बड़े-बड़े घर में गये हैं, ढेर पढ़े-लिखे लोगन के हियाँ भी हम गनेस जी की मूरती देखा है। तुम लोग जाने कौन-कौन बिदेसी बाबा लोग की फ़ोटू सजाये हो।’ 
उन्होंने दीवार पर लगे मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन के चित्रों की तरफ़ विरक्त भाव से देखा।
नन्दू जी थोड़ा कसमसाये। उनका जी हो रहा था कि अभी उठ कर बैठ जायें और अपने इस बड़े भाई से, जो एक छोटे-मोटे धार्मिक उठाईगीरे से बढ़ कर धार्मिक माफ़िया बनने की तरफ़ क़दम बढ़ा रहा था, दो-दो हाथ करें। लेकिन एक तो उनकी तबियत ख़ासी शिकस्ता थी; दूसरे, दो-तीन महीने पहले ही हरीश अग्रवाल ने दिल्ली के जाने-माने मनोविज्ञान-वेत्ता डॉ0 मुनीश ग्रोवर की किताब ‘सन्त-सियाने, झाड़-फूंक और ओझा’ का अनुवाद छापा था जिसमें डॉ0 मुनीश ग्रोवर ने फ़्रायड, जुंग, हैवलॉक एलिस और दूसरे विदेशी मनोवैज्ञानिकों के साथ-साथ प्राचीन ग्रन्थों और गाँव-देहात के झाड़-फूंक करने वालों के हवाले से यह बताया था कि भूत-प्रेत, आसेब, देवी आने और टोने-टोटके से जुड़े हुए बहुत-से ख़याल जिन्हें आम-तौर पर अन्ध-विश्वास कह कर ख़ारिज कर दिया जाता है, दरअसल देसी वैज्ञानिक समझ के सबूत हैं और अब पश्चिमी जगत में भी मानसिक रोगियों के इलाज में इस सबका इस्तेमाल हो रहा है। 
डॉ0 मुनीश ग्रोवर रातों-रात चर्चा का विषय बन गये थे, क्योंकि हाल के हर हिन्दुस्तानी विशेषज्ञ की तरह उन्होंने अपनी पुस्तक और अपनी स्थापनाएँ सब से पहले अंग्रेज़ी में प्रस्तुत की थीं और अच्छी-ख़ासी रायल्टी वसूलने के साथ-साथ टेलिविजन पर आधे-घण्टे का एक साप्ताहिक ‘शो’ भी शुरू कर दिया था। और अब मुनीश ग्रोवर ने अंग्रेज़ी पढ़ी-लिखी पश्चिम-परस्त जनता के लिए कामसूत्र वाले वात्स्यायन पर एक उपन्यास भी लिखना शुरू कर दिया था। 
अपने भाई की बातें सुन कर नन्दू जी को डॉ0 मुनीश ग्रोवर का ख़याल आ गया था और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हर गंगातट वासी संशयात्मा की तरह उन्होंने ‘क्या पता इसमें कुछ सच्चाई हो’ के सम्भ्रम में अपना मुंह बन्द रखने में ही भलाई समझी थी।
इस बीच होंटों-ही-होंटों में बुदबुदाते हुए चन्दू गुरु ने बिन्दु को झोला पकड़ाने के लिए इशारा किया था और उसमें से एक मैगी-सॉस की छोटी बोतल निकाली भी जिसमें मटमैला-सा पानी भरा था। 
‘गंगाजल है,’ चन्दू गुरु ने बिन्दु की सवालिया निगाहों को लक्ष्य करके कहा था, ‘हम हमेसा अपने साथ रखते हैं, सुद्ध करने के वास्ते।’ 
यह सूचना देने के बाद उन्होंने बिन्दु से एक लोटा पानी मँगवाया और उसमें दो ढक्कन उस कथित गंगाजल के डाल दिये और गर्व से कहा, ‘एही तो गंगाजल की महिमा है, दुई बूंद भी आदमी को तार देती है।’ 
इसके बाद उन्होंने बोतल पर एहतियात से ढक्कन लगा कर उसे वापस झोले के हवाले किया और उठ कर लोटे से अँजुरी में पानी ले कर चारों तरफ़ छिड़कते हुए, अस्पष्ट स्वर में मन्त्रों का ऐसा पाठ करना शुरू किया जो किसी भौंरे के गुंजार सरीखा लग रहा था।
‘चलो, बाताबरन सुद्ध हो गया,’ गुंजार ख़्त्म करके वे बोले।
फिर चन्दू गुरु ने अन्दर के कमरे, रसोई, बाथरूम और बाहर की परछत्ती में भी उस लोटे से पानी ले कर छिड़कते हुए वही मन्त्रोच्चार दोहराया था जो वे बैठक में कर रहे थे और फिर वापस चटाई पर आसन जमाते हुए बोले थे, ‘हमको तो शनि का प्रकोप जान पड़ता है।’
नन्दू जी हिचकियाँ लेते हुए एक अजीब-सी श्लथ विरक्ति और उदासीनता से यह सारा व्यापार देख रहे थे। अगर चन्दू गुरु वाक़ई उनके बड़े भाई न होते तो यह सारा दृश्य चाँई ओझा और भोला यजमान के-से शीर्षक वाला कोई प्रहसन जान पड़ता।
इस बीच चन्दू गुरु अपने झोले से धूप निकाल कर जला चुके थे और उसके दूधिया बादलों को मोरपंखी से पूरे कमरे में फैला रहे थे। ‘बाताबरन’ को दोबारा ‘सुद्ध’ करने के बाद चन्दू गुरु ने मोरपंखी झोले में रखी और एक पीतल की तश्तरी निकाली, उसमें एक डिबिया से लाल सिन्दूर डाला, झोले ही से काली की एक छोटी-सी फ़्रेम-मढ़ी तस्वीर निकाल कर उस पर लाल सिन्दूर से टीका लगाया और अन्त में ताँबे का एक तावीज़ निकाल कर काली की तस्वीर के सामने रख दिया। इसके बाद उन्होंने नाक से तेज़-तेज़ साँस लेते और छोड़ते हुए, कुछ ऐसे मन्त्र पढ़ने शुरू किये जिनमें ‘ह्रीं क्लीं और फट’ जैसा कुछ सुनाई देता था।
जब आख़िरकार यह मन्त्रोच्चार ख़त्म हुआ तो चन्दू गुरु ने बिन्दु से कहा, ‘एक कटोरी में थोड़ा-सा कड़ू तेल तो ले आओ।’
जब बिन्दु तेल ले आयी तो चन्दू गुरु ने तावीज़ और सिन्दूर की तश्तरी उठायी और उसी व्यावसायिक तत्परता और कुशलता से जिससे वे अब तक की सारी क्रियाएँ सम्पन्न कर रहे थे, नन्दू जी को टीका लगाया, उनका कुर्ता उतरवा कर उनकी बाँह से वह तावीज़ बाँधा, उनके हाथ से छुआ कर एक रुपये का सिक्का तेल की कटोरी में डाल दिया और फिर सारा सामान उसी मुस्तैदी से झोले में रख कर वहीं चटाई पर पालथी मार कर बैठ गये। 
‘ई रुपिया कौनो भिखारी को दे देना,’ उन्होंने बिन्दु से कहा, ‘प्रकोप सान्त हो जायेगा।’
टीका लगाने पर तो नहीं, पर जब चन्दू गुरु ने उनकी बाँह से तावीज़ बाँधा था तो नन्दू जी कसमसाये थे और अब भी कुर्ते के ऊपर से उसे टटोल रहे थे।
‘हम जानते हैं, तुम लोग अब बिदेसी शिक्षा के असर में ई सब पूजा-पाठ और गण्डा-ताबीज नहीं मानते हो,’ चन्दू गुरु उस चाय की चुस्की लेते हुए बोले थे जो इस बीच दो मठरियों के साथ बिन्दु उनके सामने रख गयी थी, ‘मगर इन सब में बड़ी सक्ती होती है। आखिर हमारे सब बूढ़-पुरनिये नासमझ तो नहीं थे जो ई सब बिधि-बिधान बनाये रहे। और फिर, चलो मान लिया कि एमें कुछ नहीं होता, मगर एक गण्डा पहिरने से अगर आदमी का मन सान्त हो जाये तो समझो आधा कस्ट तो दूर हो गया। असली चीज तो मन की सक्ती है। हम लोग दवा खाते हैं तो डाक्टर के बिस्वासै पर तो खाते हैं न ? क्या हमको मालूम रहता है दवा में का है और कैसे असर करेगा?’ और जैसे इस तर्क से नन्दू जी को पूरी तरह आश्वस्त करके चन्दू गुरु ने चाय की एक लम्बी चुस्की ली।  

उन्नीस

तभी दरवाज़े के ऊपर लगी घण्टी बजी और किसी ने दरवाज़े को ठेलते हुए आवाज़ दी, ‘अरे भाई, नन्दू जी हैं?’
बिन्दु ने लपक कर दरवाज़ा खोला तो तेज़ी से गंजे होते सिर वाले एक गोरे, सुदर्शन, मझोले क़द के आदमी ने अन्दर क़दम रखा। उनके पीछे-पीछे फ़ैज़ाबाद और बिहार के वे तीनों साथी थे जो पिछली शाम नन्दू जी से प्रकाशन के बाहर मिले थे।
ये गोरे, सुदर्शन व्यक्ति हिन्दी के चर्चित युवा कहानीकार आदित्य प्रकाश थे जिन्होंने अपनी हाल की दो कहानियों से तहलका मचा दिया था। पहली कहानी में हिन्दी के एक प्रतिभाशाली, लेकिन भोले स्वभाव के क्रान्तिकारी कवि सौरभ मिश्रा को व्यंग्य और उपहास का निशाना बनाया गया था।
कहानी शुरू होती थी नयी दिल्ली के एक ऐसे शिक्षा संस्थान की पोल खोलते हुए जो सत्तर के दशक में बड़े ताम-झाम के साथ खोला गया था ताकि विदेशों के उच्च शिक्षा संस्थानों का मुक़ाबला कर सके। ज़ाहिर है इस शिक्षा संस्थान के ज़्यादातर छात्र उच्च वर्ग के थे। अलबत्ता, चूंकि तब तक हिन्दुस्तान में कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को बिलकुल ख़ारिज नहीं किया था, इसलिए सरकारी और सरकार समर्थित संस्थानों में मध्य और निम्न वर्गों के भी कुछ छात्र दाख़िल कर लिये जाते थे, बशर्ते कि वे पढ़ाई-लिखाई में अच्छे हों। सौरभ मिश्रा ऐसे ही छात्रों में थे जिन्हें आदित्य प्रकाश ने, जो उनसे तीन वर्ष बाद उस संस्थान में आये थे, पहले-पहल श्रद्धा-मिले विस्मय से देखा था। 
इस श्रद्धा में लगाव की एक भावना थी, क्योंकि सौरभ मिश्रा अगर पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव से आये थे तो आदित्य प्रकाश शहडोल से जो सतपुड़ा के जंगलों में एक सोया-खोया गाँव नुमा क़स्बा था। लेकिन उस समय आदित्य प्रकाश यह नहीं जानते थे कि एक ओर जहाँ गँवई-गाँव का होना और जमींदारों की पृष्ठभूमि उनमें और सौरभ में एक-सी थी, वहीं निजी परिस्थितियों के हिसाब से दोनों दो ध्रुवों पर खड़े थे। 
सौरभ की माँ बचपन में गुज़र गयी थीं, उन्हें उनकी बुआ ने पाला था, और उनका बचपन, किशोरावस्था और जवानी का शुरुआती हिस्सा अपने सामन्ती पिता की ‘परजा’ के दुख-दर्द से विचलित होने और पिता के अत्याचारी स्वभाव के ख़िलाफ़ तीखी नफ़रत और विद्रोह में गुज़रा था। उनकी शादी बहुत कम उमर में ही कर दी गयी थी, लेकिन पत्नी के अचानक गुज़र जाने के बाद घर से उनके रहे-सहे रिश्ते भी टूट गये। 
वे भाग कर बनारस चले आये, पिता ने उन्हें संस्कृत विद्यालय में शिक्षा दिलवायी थी, बनारस में सौरभ ने वह पुरानी केंचुल उतार दी और विश्वविद्यालय में अपनी आचार्य की उपाधि के बल पर बी0 ए0 और फिर राजनीति शास्त्र में एम0 ए0 किया, सक्रिय राजनीति में हिस्सा लिया, कविताएँ लिखीं, भोजपुरी के गीतों में क्रान्ति की उमंग और आग भरी और फिर दिल्ली के उस उच्च शिक्षा संस्थान में रिसर्च करने आये।
आदित्य प्रकाश का परिवार भी घोर सामन्ती था, लेकिन चूंकि उनके पिता उनके बचपन ही में नहीं रहे थे, इसलिए वे उस वैभवपूर्ण साम्राज्य में एक युवराज की तरह अपने ‘ठाकुर’ पिता की प्रशस्तियाँ सुनते बड़े हुए। उन्हें लगातार अच्छे स्कूलों में पढ़ाया गया था और उन्हें उस तरह की दीवारों से सिर नहीं टकराना पड़ा था जिन्हें तोड़ कर सौरभ दिल्ली आये थे। इसीलिए जैसे ही आदित्य प्रकाश उस उच्च शिक्षा संस्थान, उसकी अंग्रेज़ियत, उसके उच्चवर्गीय वातावरण में रमते गये, उन्हें सौरभ मिश्रा का भोला, सादालौह स्वभाव, उनका देसीपन, उनकी हिन्दी में भोजपुरी की महक, अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहने का उनका हठ खटकने लगा। 
कविताएँ और कहानियाँ आदित्य प्रकाश भी लिखते थे। उन्हीं दिनों वे एक वरिष्ठ कवि के सम्पर्क में आये जो ऊँचे सरकारी अफ़सर भी थे और संस्कृति को समाज से अलग एक स्वायत्त इलाक़ा मान कर, किसानों की आत्महत्या, पुलिस के फ़र्ज़ी एनकाउण्टरों, लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, विषमता और माफ़ियागीरी के निपट निचाट भारतीय उजाड़ में कला और संस्कृति के छोटे-छोटे शाद्वल बनाने के संकल्प में जुटे रहते थे।
आदित्य प्रकाश के सामने एक ऐसा लुभावना संसार खुल गया जिसमें सौरभ मिश्रा अगर किसी संयोग से पहुंच भी जाते तो जहाँगीर के दरबार में कबीर सरीखे जान पड़ते। इसी बीच सौरभ मिश्रा राजस्थानी हैण्डीक्राफ़्टस के एक बड़े निर्यातक की बेटी मालविका सिंघानिया को, जो उसी शिक्षा संस्थान में लातीनी अमरीका पर शोध कर रही थी, दिल दे बैठे। मालविका को भी इस युवक में, जो कौटिल्य और मैकियावेली के राजनैतिक सिद्धान्तों पर शोध कर रहा था, एक ही साथ कवि भी था और क्रान्तिकारी भी, अपने खाँटी भोजपुरी अन्दाज़ में मार्क्स पर बहस करता था, ज़रूर कुछ अनोखा लगा होगा, क्योंकि कुछ दिन तक दोनों विश्वविद्यालय के परिसर में, और बाहर भी, घूमते-फिरते पाये गये। 
विश्वविद्यालय दक्षिणी दिल्ली की पहाडि़यों पर ऐसी जगह बना था जहाँ दिल्ली की आबादी अपनी पगलायी रफ़्तार के बावजूद पहुंची न थी। विश्वविद्यालय को आने वाली सड़क इन पहाडि़यों में घूमती-घुमाती ऊपर हॉस्टलों, अध्यापक निवासों और विभागों तक पहुंचती थी। विश्वविद्यालय का प्रशासनिक और दफ़्तरी काम पहाडि़यों की तली में बनी इमारतों में होता था। इस तरह विश्वविद्यालय में छात्रों के पढ़ने के लिए (और प्रेम करने, गाँजा-चरस-दारू पीने और सशस्त्र क्रान्ति की योजनाएँ बनाने के लिए भी, क्योंकि अलग-अलग दौरों में ये सारी गतिविधियाँ एक-एक करके या एक साथ भी विश्वविद्यालय के सुरम्य परिवेश में होती रही थीं) भरपूर एकान्त था। 
ऐसी स्थिति में वैसे तो सौरभ-मालविका प्रसंग पर कोई हंगामा न मचता, मगर यह प्रसंग अगर देखते-देखते चर्चा-कुचर्चा का विषय बन गया तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही था कि सौरभ मिश्रा और मालविका सिंघानिया के प्रेम की तो क्या, उनके सहज सम्पर्क की भी कल्पना कोई नहीं कर सकता था। फिर, मालविका की तरफ़ बहुत-से लोग सतृष्ण निगाहों से देखते थे, जिनमें आदित्य प्रकाश भी थे, और उसने किसी को कहावती घास भी नहीं डाली थी।
ज़ाहिर है, उस चर्चा-कुचर्चा के पीछे वास्तविक विस्मय के साथ-साथ ‘हम न हुए’ की हाय-हाय भी थी। सबसे तीखी प्रतिक्रिया आदित्य प्रकाश की थी। सौरभ के सामने तो वे उन्हें प्रोत्साहित करते और मालविका के साथ उनकी जो बातें हुई होतीं, उन्हें बड़ी गम्भीरता से सुनते, मगर पीठ-पीछे वे सौरभ का मज़ाक़ उड़ाते। लेकिन इससे पहले कि यह प्रसंग कोई ऐसा रूप लेता कि उन्हें सार्वजनिक रूपसे सौरभ मिश्रा की किरकिरी को देखने या उनसे प्रत्यक्ष सहानुभूति प्रकट करते हुए उनकी खिल्ली उड़ाने का मौक़ा मिलता, मालविका सिंघानिया अपनी शोध पूरी करने के लिए हवाना विश्वविद्यालय की स्कॉलरशिप पर क्यूबा चली गयी। सौरभ मिश्रा कुछ दिन उदास रहे, फिर अपने ढर्रे पर लौट आये। आदित्य प्रकाश ने अपनी ताज़ा कहानी इसी प्रसंग पर लिखी थी।

Article 4

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हिचकी

किस्त : 20-21

बीस

‘खेलावन मिसिर की व्यथा-कथा’ जब एक सामान्य-सी पत्रिका में छपी तो किसी ने उसका नोटिस ही नहीं लिया। लेकिन जब उसे एक लोकप्रिय कहानी-पत्रिका ने दोबारा ‘साभार’ छापा तो एक हंगामा मच गया। कहानी के संकेत इतने स्पष्ट थे कि किसी को रत्ती भर शक नहीं हो सकता था कि कहानी के प्रमुख पात्र कौन हैं।
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कहानी की शुरुआत यह भ्रम पैदा करती थी कि कहानी उस उच्चवर्गीय विश्वविद्यालय पर चोट करने के लिए लिखी गयी है, लेकिन अन्त तक पहुंचते-पहुंचते इसमें कोई सन्देह नहीं रहता था कि यह कहानी रामखेलावन नामक उस पात्र का उपहास करने के लिए लिखी गयी है। 
कहानी के चर्चित होने के पीछे परनिन्दा का यह पहलू तो था ही, आदित्य प्रकाश की चटकीली चमत्कारी भाषा-शैली का भी हाथ था। चूंकि सौरभ मिश्रा के हिमायतियों और हितचिन्तकों की भी कोई कमी नहीं थी, इसलिए इस कहानी के दोबारा छपते ही एक अच्छा-ख़ासा युद्ध छिड़ गया।
आदित्य प्रकाश से जब दिल्ली की एक चिकनी रंगीन साप्ताहिक पत्रिका में साहित्य के पन्ने देखने वाली एक उउत्फुल्लमना उपसम्पादिका ने, जो होली के त्योहार पर अपनी चुटीली हास्य-व्यंग-भरी शैली में चुटकियाँ लेने के लिए मशहूर थी, इस प्रसंग पर छोटा-सा इण्टर्व्यू लिया तो आदित्य प्रकाश ने कहा, ‘लेखक अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से ही तो सामग्री लेता है न ? भला और कहाँ से वह सामग्री लायेगा ? वैसे, यह केवल प्रचार है कि मैंने कहानी किसी ख़ास व्यक्ति पर लिखी है। मैं तो उस उच्चवर्गीय शिक्षा संस्थान की असलियत दिखाना चाहता था।’
इस कहानी से सौरभ मिश्रा का कुछ बना या बिगड़ा, यह तो उनके मित्र ही बता सकते थे, अलबत्ता आदित्य प्रकाश का नाम उन युवा कहानीकारों में दर्ज हो गया जिन्होंने अपनी एक अलग पहचान बना ली थी। इसलिए जब कुछ समय बाद आदित्य प्रकाश ने अपने सरपरस्त आई.ए.एस. कवि की छत्रछाया से बाहर आने की सोची तो उन्होंने उस सारे तन्त्र को निशाना बनाया जो मँहगी शराबें पीते हुए साहित्य और संस्कृति का जलवा राजधानी के ऐसे सभागारों और अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्रों में दिखाता था जहाँ अव्वल तो आम मध्यवर्गीय लेखक की पहुंच नहीं थी, और अगर कभी वह किसी आयोजन में शिरकत करने पहुंचता भी था तो कला-संस्कृति के किसी क्षत्रप या सेठ के दरबारी या मुसाहिब की हैसियत में। 
इस बार आदित्य प्रकाश ने अपनी कहानी के मुख्य पात्र के रूप में हिन्दी के ऐसे जाने-माने कवि को लिया जिसने शुरुआत तो अकविता की विचारशून्य अराजकता से की थी, लेकिन बहुत जल्द उससे किनारा करके अपने समय और समाज की तस्वीरें उकेरनी शुरू कर दी थीं। अकविता के अराजकतावादी दिनों में परम्परा से एक विचारशून्य विरोध सिर्फ़ कविता तक ही सीमित नहीं था, औरों से अलग नज़र आने और चौंकाने वाला कुछ करना भी इसमें शुमार था। 
लिहाज़ा, शिरीष कुमार ने अपने अच्छे-ख़ासे नाम को बदल कर शिमार कुरीष कर लिया था। बाद में जब वह अकविता के कोहरे से बाहर आया तो उसे अपनी इस बचकानी हरकत पर पछतावा भी हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वह शिमार कुरीष के नाम से जाना जाने लगा था। औरों से अलग लीक पर चलने का ज़ज्बा अब एक नये रूप में उसके भीतर अँकुवाया था। 
जब राजधानी के अधिकांश मध्यवर्गीय हिन्दी कवि अस्सी के दशक में विद्रोह की सारी पुरानी बातें भूल कर जनता के इहलोक से पहले अपना इहलोक सुधारने की दौड़ में शामिल हो गये थे और परस्पर पीठ-खुजाऊ मण्डलियाँ बना कर पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार और पारितोषिक के चक्कर में कभी इस साहित्यिक गॉड फ़ादर सभी उस साहित्यिक गॉड फ़ादर के दरबार में सज्दा करने लगे थे, कुरीष ग़ाज़ियाबाद से रोज़ उस राष्ट्रीय दैनिक के दफ़्तर तक बस में अप-डाउन करता था, जिसके सम्पादकीय विभाग में वह अपने अराजतावादी दौर से बाहर निकलने के बाद बहैसियत जूनियर सह सम्पादक शामिल हुआ था। 
बीस बरस तक ख़बरों और किसिम-किसिम की रिपोर्टों और टिप्पणियों से सिर मारने के बाद अब वह सीनियर उपसम्पादक  की कुर्सी सुशोभित कर रहा था, हालाँकि बहुत-से लोगों को इस सन्दर्भ में ‘सुशोभित’ शब्द अनुपयुक्त लगता, क्योंकि कुरीष का वतीरा अब भी वैसे-का-वैसा था। समय की करवटसाज़ी के साथ जब पत्रकारिता में भगदड़ मची और पत्रकार लगभग अश्लील-सी जान पड़ने वाली तन्ख़्वाहों पर इस अख़बार से उस अख़बार में छलाँगें लगाने लगे, मानो वे पत्रकार न हों, पश्चिमी फ़ुटबॉल क्लबों में ख़रीदे-बेचे जाने वाले खिलाड़ी हों, और कुछ भाग्यशाली तो टी.वी. की नयी लालसा-उपजाऊ दुनिया के बाशिन्दे बन गये, तब भी कुरीष उसी राष्ट्रीय दैनिक में बना रहा। यों, समय-समय पर वेतन आयोगों की सिफ़ारिशों की वजह से आम तौर पर तन्ख़्वाहें बढ़ गयी थीं और पहले जैसी तंगी न रही थी, तो भी कुरीष ने न स्कूटर ख़रीदा था, न कार, और उसी तरह बस से आता-जाता रहा।    
उसकी बहुत-सी कविताओं में बसों की महिमा गायी गयी थी, दिल्ली की बसों के कुख्यात कण्डक्टरों और ड्राइवरों के दुख-दर्द और उनकी सहज मानवीयता अंकित की गयी थी, आम निम्न-मध्यवर्गीय बाबूपेशा वर्ग के जीवन और हर्ष-विषाद की छवियाँ अंकित की गयी थीं। जब भोपाल के कवि गैस काण्ड के बाद नसैनी लगा कर आकाश में चढ़ जाने की बात कहने लगे थे और दिल्ली के कवि शरीर के अनन्त स्वप्न देखने, तब कुरीष ने अपनी एक चर्चित कविता में यह कामना की थी कि वह मरे भी तो दिल्ली की बस में लटकते हुए सफ़र करता हुआ मरे।
ज़ाहिर है, अपनी इस टेक की वजह से कुरीष बहुत-से लोगों की आँख में गड़ने वाला तिनका था और उनकी खीझ अक्सर उसकी सादगी की तारीफ़ की आड़ में उसकी ‘सनकों’ का मज़ाक़ उड़ाने में निकलती थी। तभी दो-तीन घटनाएँ एक साथ हुईं। कुरीष जिस राष्ट्रीय दैनिक में काम करता था, उसके अख़बार का दफ़्तर कॉरपोरेट जगत में आ रही तब्दीलियों के चलते नॉएडा चला गया, जहाँ अख़बार के पूंजीपति मालिकों की नयी पीढ़ी की नज़र में ज़्यादा सुविधाएँ थीं। फ़ायदा यह था कि कनॉट प्लेस और बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग के युगों पुराने महँगे दफ़्तरी ताम-झाम की बजाय ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त ढाँचा क़ायम किया जा सकेगा जो बड़ी पूँजी वाले अख़बार की काम-काजी फ़ितरत के भी ज़्यादा माफ़िक बैठता था। छिपी हुई असलियत यह थी कि ने अख़बार के पूंजीपति मालिकों की नयी पीढ़ी ज़मीनों की बेतहाशा बढ़ी हुई क़ीमतों को देख कर अपने पुरखों के कुशादा बँगलों को रफ़ा-दफ़ा करके उस पैसे को किसी और मुनाफ़ेदार धन्धे में लगाने की इच्छुक थी।    
इसी बीच कुरीष ने भी नॉएडा ही में डी.डी.ए. का एक छोटा-सा मकान किस्तों पर ख़रीदा -- एच.आई.जी. नहीं, एम.आई.जी. भी नहीं, बल्कि आर्थिक रूपसे कमज़ोर तबक़ों के लिए बनायी गयी कॉलोनी का दो कमरों वाला मकान। राहत सिर्फ़ इतनी थी कि मकान एक मंज़िला था और अपनी ही ज़मीन पर बना था, ऊपर उसे बढ़ाने की गुंजाइश थी और उसके पीछे की तरफ़ एक छोटा-सा आँगन भी था। कुरीष ने हिसाब लगाया था कि जितना किराया वह ग़ाज़ियाबाद के फ़्लैट का देता था, लगभग उतनी ही किस्त इस मकान की बैठ रही थी। 
तीसरी घटना थी कुरीष का साइकिल ख़रीदना। उस समय जब पूरी दुनिया इक्कीसवीं सदी में दाख़िल होने के लिए बेसब्री से आख़िरी दशक के बीतने की बाट जोह रही थी, हिन्दी के कवि नये कथ्य और शैली की बजाय कारों के नये मॉडलों पर बहस करने लगे थे, कुरीष का साइकिल ख़रीदना भी उसकी एक और ‘सनक’ का सबूत जान पड़ा था। 
हंगामा तो तब मचा था जब एक दिन कुरीष साहित्य अकादेमी के एक कार्यक्रम में नॉएडा से दस किलोमीटर साइकिल ही पर चला आया था। इसी साइकिल को ले कर आदित्य प्रकाश ने अपनी ख़ास चुलबुली शैली में, जिसे आम तौर पर मार्केज़ के जादुई यथार्थवाद का हिन्दी क्लोन कहा जाता था, एक नयी कहानी लिखी थी ‘मारीच चीमरा की साइकिल।’ 
इस कहानी में भी ज़ाहिरा तौर पर आदित्य प्रकाश ने दिल्ली की उन उच्चवर्गीय संस्थाओं, हाई-फ़ाई सभागारों और संस्कृति के उठाईगीरों पर चोट करने की कोशिश की थी, लेकिन अपनी मुकम्मल शक्ल में उनकी कहानी कुरीष का एक कैरीकेचर बन कर रह गयी थी।
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इधर उनकी एक ताज़ा कहानी हिन्दी की एक जानी-मानी कहानी पत्रिका में धारावाहिक रूपसे छप रही थी -- ‘क्लोज़ अप की मुस्कान वाला लड़का’ जिसमें उन्होंने एक दक्षिण भारतीय युवक और एक कश्मीरी लड़की की प्रेम-कथा को बड़े ऐन्द्रिक, लगभग रीतिकालीन श्रृंगार कविताओं की-सी शैली में पेश किया था और कहानी में आर्य-द्रविड़ तनाव से ले कर पर्यावरण, आर्थिक उदारीकरण, कॉरपोरेट जगत, शेयर बाज़ार और भूण्डलीकरण सब कुछ पिरो दिया था। 
दिलचस्प बात यह थी कि प्रेमचन्द की विरासत के गुन गाने वाले हिन्दी के नये-पुराने कहानीकारों को अब सच के सीधे-सीधे बयान में कोई तुक नज़र नहीं आता था। प्रेमचन्द अब उन्हें इकहरे यथार्थ के कथाकार जान पड़ते थे। अपने घर से बाहर निकलते ही एक औसत हिन्दुस्तानी का सामना पैसे और ताक़त के जिस खुले और निर्मम खेल से होता था, घूसख़ोरी और अपराध पर टिके जिस राजनैतिक तन्त्र से होता था उसका अक्स बिरले ही किसी कहानी या उपन्यास में नज़र आता। 
ऐसी हालत में आदित्य प्रकाश की चमकीली भाषा, उनकी कहानियों में तनाव और ऐन्द्रिकता का मसाला और बुराइयों पर चोट करने के मिस उनका एक जुगुप्सा-भरा चित्रण बहुत-से लोगों को रुच रहा था और उनका बेबाक अन्दाज़ और भी बेबाक होता जा रहा था। कहानियों में भी और जीवन में भी।
अपनी इसी बेबाक अदा से उन्होंने ‘अरे भाई, नन्दूजी हैं क्या?’ कहते हुए दरवाज़ा ठेला था और बिहार से आये तीनों कॉमरेडों को अपनी अर्दल में लिये अन्दर आये थे।



इक्कीस

इस बीच चन्दू गुरु चाय ख़त्म कर चुके थे और जेब से एक नफ़ीस-सा देसी बटुआ निकाल कर, उसकी डोरी खींच, सुपारी और कत्थे के डले निकाल कर हथेली पर रख रहे थे। जिस बीच आदित्य प्रकाश और दूसरे लोगों ने बैठक में रखे मूढ़ों को सरका कर जगह बनाते हुए आसन जमाया, पण्डित चन्द्र किशोर तिवारी सुपारी, कत्था, चूना, लौंग मिला कर गुटका बनाते रहे, फिर उन्होंने उसकी एक फंकी लगा कर एक छोटी-सी डिबिया से चुटकी भर तम्बाकू मुंह में डाला और दीवार से टेक लगा कर थोड़ा इतमीनान से टिक गये।
‘मैंने आज सुबह जब कल की रैली के बारे में बधाई देने के लिए पार्टी ऑफ़िस फ़ोन किया,’ अदित्य प्रकाश ने नन्दू जी को सम्बोधित करते हुए, लेकिन जैसे किसी सभा को सुनाते हुए कहा, हालाँकि कमरे में नन्दू जी के भाई और बिहार से आये उन तीन कॉमरेडों के अलावा और कोई नहीं था, ‘तो साथी प्रकाशपुंज ने बताया कि नन्दू जी की तबियत ख़राब है। शायद आपकी पत्नी ने वहाँ फ़ोन किया था। बहरहाल, ज़्यादा-कुछ तो पता नहीं चला, इसलिए और भी चिन्ता हो गयी। साथी लोग तो आ ही रहे थे, हमने कहा, हम भी नन्दू जी से मिलते आयें। आख़िर, हमारे नये संग्रह का दारोमदार तो नन्दू जी के कन्धों पर ही है।’
इतना सब एक ही साँस में कह कर आदित्य प्रकाश बैठक में रखे मूढ़ों में से एक पर इत्मीनान से टिक गये और उन्होंने बैठक में चारों तरफ़ निगाह दौड़ायी। उनके साथ आये पार्टी कॉमरेड पहले ही से नन्दू जी की बैठक और उसमें लगी संस्कृति की नुमाइश का नज़ारा कर रहे थे। एक साथ इतनी कला को देख कर उन्हें बस यही महसूस हो रहा था कि नन्दू जी ने सम्पन्नता की (और संस्कृति की भी) कई सीढि़याँ एकबारगी तय कर ली हैं। रहे आदित्य प्रकाश तो उनका कहानीकार सहसा जागृत हो गया था और वे एक-एक ब्योरे को मन में बिठाते जा रहे थे।
कुछ पल की ख़ामोशी के बाद, जिसमें नन्दू जी की हिचकियों ही की आवाज़ सुनायी देती रही, आदित्य प्रकाश ने फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में कहा, ‘बैठक तो आपने ख़ूब सजायी है। जगह भी यह कुसुम विहार से अच्छी है। सबसे बड़ी बात है कि आपके दफ़्तर के नज़दीक है।’
नन्दू जी इतने निढाल थे कि इस पर एक फीकी-सी मुस्कान के अलावा और कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर पाये, लेकिन अनिल वज्रपात ने फ़ौरन टीप जड़ी, ‘साथी, रघुवीर सहाय एक कविता में लिखे हैं जहाँ बहुत कला होगी वहाँ परिवर्तन नहीं होगा। जेतना सादगी होगा, कला ओतना ही कारगर होगा।’
‘ई बात में थोड़ा दम तो है, कॉमरेड,’ नालन्दा के किसान सभाई राम अँजोर बोले। ‘सब कला समाजिक परितवर्तन का औजारै तो है। कला कला के लिए का सिद्धान्त तो बहुत पहले ही खारिज कर दिया गया रहा।’
‘लेकिन जिस आदर्श की आप बात कर रहे हैं, कॉमरेड,’ आदित्य प्रकाश बोले, ‘उस तक पहुंचने में अभी समय लगेगा। यह संक्रान्तिकाल है, इसमें हम मध्यवर्गीय लोग तरह-तरह के चरणों से गुज़रेंगे और इसी क्रम में उस सहजता को हासिल करेंगे जिसकी तरफ़ आप इशारा कर रहे हैं। जैसा कि अभी आते समय भी चर्चा हो रही थी, एक वर्ग विभाजित समाज में लोगों की चेतना भी लामुहाला विभाजित होगी और.......’
इस सारी बहस से नन्दू जी का मन बेतरह ऊबने लगा था। उन्हें अपने साथियों की यही बात बहुत बुरी लगती थी। वे मौक़ा-मुहाल देखते नहीं थे और सिद्धान्त झाड़ने में जुट जाते थे। कई बार वे सोचते, इस तीसरी धारा को भी तो अब पैंतीस-चालीस साल हो चले थे, अब तक तो कुछ ठहराव आ जाना चाहिए था ‘वसन्त का वज्रनाद’ वालों में। पार्टी बनी थी, टूटी थी, लगभग मिट गयी थी, फिर राख से जन्म लेने वाले पौराणिक पक्षी की तरह उठ खड़ी हुई थी, और अब तो खुले में जा कर चुनावों में भी भाग लेने लगी थी, मगर समस्या शायद पार्टी में उतनी नहीं थी जितनी पार्टी के कार्यकर्ताओं में, सवाल पार्टी की उमर का नहीं, साथियों की उमर का था। और वह भी शारीरिक से ज़्यादा दिमाग़ी उमर का।
तभी आदित्य प्रकाश की नज़र वहीं चटाई पर बैठे और दीवार से टेक लगाये नन्दू जी के बड़े भाई की तरफ़ गयी। उन्होंने नन्दू जी की तरफ़ देखते हुए पूछा, ‘नन्दू जी, आपने इनसे परिचय नहीं कराया। आप....’
‘मेरे बड़े भाई हैं, चन्द्र किशोर तिवारी,’ नन्दू जी ने कहा।
‘अच्छा-अच्छा, नमस्कार,’ आदित्य प्रकाश सिर को हल्का-सा झुकाते और हाथ जोड़ने की-सी मुद्रा बनाते हुए बोले। ‘यहीं दिल्ली में हैं आप, या...’
‘दिल्लियै में हैं। उधर ओखला साइड में। एक फ़ैक्टरी में स्टोर कीपर हैं।’ चन्दू जी ने संक्षेप में बात निपटा दी। वे अपने भाई के इन साथियों की फ़ितरत भाँप गये थे।
लेकिन आदित्य प्रकाश इतनी जल्दी झटके जाने को तैयार नहीं थे। ‘तो नन्दू जी को देखने आये होंगे आप? वैसे देखने में आप स्टोर कीपर नहीं, पूजा-पाठ कराने वाले पण्डित लगते हैं। कुछ इसमें भी विश्वास है आपका?’
‘काहे नहीं होगा, साहेब,’ चन्दू जी का ब्राह्मणत्व जाग उठा। ‘बिस्वास में बहुत ताक़त है। सन्त लोग कह गये हैं बिस्वास के बल पर पंगु गिरि लाँघ जाते हैं, बधिर को सुनायी देने लगता है ।’
‘तो नन्दू जी को आप कौनो उपाय बताये कि नहीं, ई हिचकी को ठीक करने का?’ बीड़ी निकालते हुए अनिल वज्रपात ने पूछा।
‘हम को जो जनाता था, सो हम कर दिये हैं, सीधा-सीधा प्रेत-बाधा का लच्छन है,’ चन्दूजी बोले।
‘प्रेत-बाधा ?’ कॉमरेड प्रकाशपुंज भड़क कर कोई तीखी बात कहने ही वाले थे कि आदित्य प्रकाश ने बात का सिरा थाम लिया।
‘साथी, सब खेल नयी-पुरानी शब्दावली का है।’ वे बोले, ’जिसे पुराने लोग प्रेत-बाधा कहते थे, उसे आज की भाषा में मनोविकार भी कहने लगे हैं। ये सब ऐंग्ज़ाइटी सिंड्रोम और तरह-तरह की मनोग्रन्थियाँ पहले एकजुट करके प्रेतबाधा कह दी जाती थीं।’
इस बीच वज्रपात इस चर्चा से ऊब कर बीड़ी को नाख़ून पर ठोंकते हुए बारजे पर चले गये थे। उन्होंने बीड़ी सुलगायी, दो-चार कश लगाये और इत्मीनान से नन्दूजी के घर का मुआयना किया। उन्हें चाय की तलब लग रही थी। वहीं टहलते हुए उन्होंने रसोई की तरफ़ झाँका कि ‘भाभी जी’ दिखें तो चाय की फ़रमाइश की जाय। ‘भाभी जी’ तो दिखीं नहीं, अलबत्ता उन्होंने रसोई में रखी गैस और उसके बाहर बारजे के घिरे हुए हिस्से में रखा फ़्रिज और वॉशिंग मशीन ज़रूर देख ली।
अन्दर चन्दू जी, जिनका ब्रह्मतेज अब तक जागृत हो गया था, अपने फ़ॉर्म में आ गये थे। 
‘देखिए, आप सब लेखक-कलाकार लोग हैं,’ वे बोले, ‘हम आप लोग के बराबर पढ़े-लिखे तो नहीं हैं, मुदा थोड़ा-बहुत सास्तर-ज्ञान हमहूं प्राप्त किया है। ई जो प्रकृति है इसमें सब पदार्थ या तो जड़ है या चेतन। एतना ही नहीं, ई सब आपस में टकराता भी रहता है। का कहते हैं आप लोग सब, हाँ, द्वन्द्वात्मकता। तो ई भौतिक जगत में सब खेल जड़ और चेतन के संघर्ष का है। एही से सब परगति भी होता और बिकार भी फैलता है। आप लोग अपना उपाय लगाते हो, हम लोग अपना। उद्देस एकै है, बिकार दूर करना।’
चन्दू जी कुछ इतने विश्वास से बोल रहे थे कि न तो आदित्य प्रकाश को बीच में कहने का कुछ मौक़ा मिला, न प्रकाशपुंज या नालन्दा के राम अँजोर को। यह प्रवचन अभी जारी रहता, मगर अनिल वज्रपात के अन्दर आते ही एकबारगी रुक गया, क्योंकि चाय से तलबियाये कॉमरेड ने, बिना इस बात का ख़याल किये कि वहाँ कितनी गूढ़ चर्चा चल रही थी, छूटते ही कहा, ‘अरे नन्दू जी, कुछ चाय-ओय पिलवाइएगा कि नहीं ? घरवा तो खूब टिच-टाच कर लिये हैं आप। गैस, फ़्रिज, वासिंग मसीन। आराम का सब्बे चीज है। वासिंग मसीन नया लिये हैं आप, ऐसा जनाता है?’
नन्दू जी को समझ नहीं आया कि वे वॉशिंग मशीन लेने पर ग्लानि महसूस करें या गर्व। वे बुदबुदाते हुए कुछ कहने ही वाले थे कि अन्दर से बिन्दु ऑँचल से हाथ पोंछती हुई बाहर आयी। यह साफ़ नज़र आ रहा था कि जिस बीच इधर बैठक में ज्ञान-चर्चा हो रही थी, वह साथियों के आने से मिली फ़ुरसत का फ़ायदा उठा कर नहा रही थी। चूंकि वह सबसे पहले ही से परिचित थी, इसलिए उस झमेले में समय ज़ाया न करके उसने सीधे सवाल किया था, ‘कॉमरेड रामजी यादव भी तो आने वाले थे। वे नहीं आये?’
‘दिल्ली कमेटी का मीटिंग चल रहा है, रैली का समीक्षा करने का खातिर। ओही में फँसे हैं। बोले हैं, बाद में टाइम मिलेगा तो आयेंगे,’ जवाब किसान सभाई राम अँजोर जी ने दिया था।
‘रैली तो सुनते हैं, बहुत अच्छी हुई,’ बिन्दु ने पूछने के अन्दाज़ में कहा।
लेकिन कॉमरेड वज्रपात इन सब बातों में अभी सिर खपाने के मूड में नहीं थे, उन्होंने अपने मुंहफट अन्दाज़ में कहा, ‘ऊ सब बात भी होगा, भाभी जी, फिलहाल तो चाय पिलाइए। दिल्ली का ई सब लेफ़्ट-राइट में चाय का तलब बहुत लगता है।’
‘अभी बनाते हैं चाय। हम ज़रा नहाने चले गये थे, नहीं तो चाय पहले ही मिलती,’ यह कह कर बिन्दु चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी। अचानक उसकी नज़र चन्दू जी पर पड़ी और उसने पूछा, ‘आपके लिए भी लाऊँ भैया?’
‘नहीं, नहीं, अबहिन तो पिये हैं,’ चन्दू जी बोले। फिर उन्होंने सहसा घड़ी की तरफ़ देखा और उठ खड़े हुए, ‘बारह बज गया है। आज हमको सेठ बदरी प्रसाद दुबारा बुलायेन हैं। संझा को हुआँ फिर जाना है। अउर अभी करोल बाग के लाला हरदयाल चोपड़ा का काम बाक़ी है।’
यह कह कर चन्दू जी ने तत्परता से अपना झोला उठाया और उसमें से गंगाजल की बोतल निकाल कर बिन्दु को थमा दी। ‘एका तुम्हीं रखो, घण्टे-घण्टे पर एक चम्मच नन्दू को पिलाय देना। बड़ी-बड़ी दवाइयन से गंगाजल में बहुत ताकत होती है। अउर ई तो सुद्ध है, पिछली बार हम माघ में संगम नहाये गये थे तब हुंअई से लाये रहे।’ फिर वे नन्दू की तरफ़ मुड़े थे, ‘ईस्वर ने चाहा तो संझा नहीं तो रात तक आराम आ जायेगा! धियान रखना अऊर हमका खबर करवाये देना।’

Article 3

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हिचकी

किस्त : 22-23

बाईस

सबको नमस्कार करके चन्दू जी सीढि़याँ उतर गये तो नन्दू जी को अचानक हाजत-सी महसूस हुई। वे कुछ मिनट में आने को कह कर पीछे के कमरे से होते हुए बाथरूम में चले गये। कुछ देर बाथरूम में गुज़ारने के बाद उन्हें लगा कि हाजत तो महज़ झूठा संकेत था, असल में तो उन्हें पेशाब करना था। सुबह से ही लगातार पानी पीने के कारण उनके मसाने पर दबाव बढ़ गया था।
जब वे निपट-निपटा कर बाहर आये तो एक ऐसी बात उनके कान में पड़ी कि उनका तन-मन एकबारगी झनझना उठा। जैसा कि किसी भी महफ़िल में आम तौर पर होता है, आदमी के बाहर जाते ही चर्चा उसी पर केन्द्रित हो जाती है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ था।
‘केतना तन्खाह पाते होंगे साथी नन्दू जी,’ वज्रपात ने कमरे में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए कहा था।
‘ठीकै-ठाक पाते होंगे। तब्बै तो ई सब सामान जुटाये हैं। पार्टी के अखबार लोकमत में तो कम्यून चलता रहा न, सो खाना-खर्चा ही पाते थे।’ राम अँजोर बोले।
‘अरे भई, बीच में कुछ साल अमर ज्योति में भी काम किया है नन्दू जी ने,’ आदित्य प्रकाश भाँप गये थे कि बातों की दिशा कौन-सा रुख़ ले रही थी, सो वे इस टीका-टिप्पणी को सीमा से बाहर जाने से रोकने के लिए हस्तक्षेप-सा करते हुए बोले, ‘सामान तो जुट ही जाता है। फिर कुछ चीज़ों की ज़रूरत भी तो होती है।’
‘जरूरत हो तब न,’ वज्रपात को पिछली शाम की भेंट से ही जो मलाल था, वह बाहर आ रहा था। ‘अब एही सब देखिए, ए सब टीम-टाम का कऊन ज़रूरत है। जहाँ लोग दू मुट्ठी अन्न नहीं पाते हों, हुआँ ई सब सजावट हमको तो अस्लील जनाता है कॉमरेड।’ उन्होंने जैसे अन्तिम फ़ैसला सुनाते हुए कहा।
‘हम ए बात मान लिये जे सादी के बाद पार्टी के अखबार में जियादा गुंजाइस नहीं रहा। अच्छा-भला अमर ज्योति में काम करते रहे नन्दू जी, पार्टी का भी कुछ भला होता था। दस ठो काम सपरता था। ई परकासन में का धरा है। एसे जनवाद और क्रान्ति का कऊन भला होने वाला है?’ फ़ैज़ाबाद के संस्कृतिकर्मी उदय प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी।
‘आप ई भी देखिए न साथी,’ राम अँजोर जो बहुत देर से चुप थे अचानक बोले, ‘जे ई समस्या व्यक्ति का नहीं है। नन्दू जी का परिवर्तन वास्तव में प्रवृत्ति का संकेत देता है। इसका सम्बन्ध पार्टी से भी है।’
‘पार्टी से?’ वज्रपात चिंहुके। ‘साथी, आप लोग हर मामला थियोराइज जो करने लगते हो, ई ठीक नहीं है।’
‘कइसे साथी,’ राम अँजोर ने कहा, ‘कोनो आदमी पैदाइस से क्रान्तिकारी नहीं होता है। पार्टी में आने अऊर बिचारधारा अपनाने पर धीरे-धीरे वर्ग चेतना से लैस होता है। अब एही देखिए, आजकल पाटी में विलोपवाद, विसर्जनवाद और डेविएसन पर केतना बहस चल रहा है। जब तक क्रान्ति के गर्भ से नया इन्सान नहीं आयेगा जइसा कॉमरेड महासचिव बोले हैं, तब तक डेविएसन तो होगा और उसको ठीक भी करना होगा। नन्दू जी का धीरे-धीरे पार्टी से कटना भी एही का संकेत है।’
‘हमको तो ई जनाता है, साथी,’ प्रकाशपुंज ने कहा, ‘कि पुराना लोग सही-सही कहता था। ई सब छान-फटक नहीं करता था। हमरा गाँव का बात होता तो बूढ़-पुरनिया बोलता -- अरे, भूखा ब्राह्मण है, भोजन पाने पर तृप्ति तो होगा ही। सो इहाँ भी ओही मसल है।’
‘दरअसल महत्वाकांक्षी हैं,’ आदित्य प्रकाश ने प्रकाशपुंज की बात के डंक को कुछ कम करते हुए कहा। 
‘हाँ, महत्वाकांछा तो होगा ही, तभी जल्दी धनवान होना चाहते हैं।’ साथी रामअँजोर बोले, ‘पोलित ब्यूरो का भी एही कहना है।’ फिर उन्होंने हँसते हुए बात ख़त्म की, ‘वर्गीय चेतना की बात है न, मार्क्स भी कहे हैं, मध्यवर्ग में लालसा सहज रूप से होता है।’
यही वह आख़िरी टिप्प्णी थी जो नन्दू जी के कान में पड़ी थी और बाहर को आते हुए वे ठिठक गये थे। 
‘महत्वाकांक्षी हैं, जल्दी धनवान होना चाहते हैं, पोलित ब्यूरो का भी यही कहना है।’ शब्द जैसे कीलों की तरह उन्हें चुभे जा रहे थे। 
उन्हें अपने साथियों की संकीर्णता पर खीझ हुई जो यह भी नहीं समझते थे कि सुरुचि भी कोई चीज़ होती है। हर वक़्त वही मामूली-से कपड़े पहने, सुर्ती ठोंकते या बीड़ी फूंकते हुए, कम्यून में जीना और संस्कृति कर्म के नाम पर नुक्कड़ नाटक खेलना या क्रान्तिकारी गीत गाना ही काफ़ी नहीं होता। आख़िर उच्चतर सौन्दर्य बोध, ‘हायर एस्थेटिक्स’ भी तो कोई चीज़ होती है। साथी लोग यह कभी नहीं समझेंगे, इसीलिए तो पार्टी दलदल में फँसी हुई है। उन्हें फिर ज़ोर की हिचकी आयी। उन्होंने सिर झटका और बैठक में दाख़िल हुए।
इस बीच बिन्दु चाय बना लायी थी और सब लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।
‘तुम चाय लोगे ?’ बिन्दु ने नन्दू जी से पूछा।
‘थोड़ी-सी चाय लेना ठीक होगा,’ आदित्य प्रकाश ने कहा, ‘हिचकी में आराम मिलेगा।
बिन्दु ने केतली से एक कप में थोड़ी-सी चाय ढाल कर नन्दू जी की तरफ़ बढ़ायी। नन्दू जी ने बेमन से दो-एक घूंट भरे। उन्हें अचानक बेहद थकान और ऊब महसूस होने लगी थी। साथी लोग अब भी पार्टी की गतिविधियों को ले कर जुटे हुए थे मानो यह नन्दू जी का घर नहीं, पार्टी का दफ़्तर हो।
‘साथी, जेतना समय तक पार्टी में डेमोकैटिक सेंट्रलिज्म है, ओतना समय तक आप पार्टी पर डेविएसन का आरोप नहीं न लगा सकते,’ साथी राम अँजोर दृढ़ता से कह रहे थे, ‘दो लाइन का संघर्ष पार्टी का बुनियादी नीति है।’
‘बुनियादी नीति था, हम भी ई मानते हैं,’ वज्रपात ने प्रतिवाद किया, ‘लेकिन इधर जब से पार्टी चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला किये है, तब से ई दू लाइन का संघर्ष कुछ कम हो गया जनाता है।’
‘अऊर डेमोक्रैटिक सेंट्रलिज्म भी,’ प्रकाशपुंज ने टीप जड़ी, ‘कम हो गया है। अब एही देखिए कि जब पार्टी का सांस्कृतिक घटक लोक संस्कृति मंच बना था तो पार्टी का नेता लोग बोले थे जे ई स्वायत्त रहेगा। जब ऊ धड़ल्ले से काम करने लगा तो पार्टी को लगा अब लगाम कसना चाहिए। सो, कॉमरेड अवध बिहारी सुक्ला को कार्यकारिणी में को-ऑप्ट कराये दिया। साथी अवध बिहारी पार्टी के पुराने नेता सही, लेकिन ऊ कभी सांस्कृतिक मोर्चे पर ऐक्टिव नहीं रहे। ई फैसला इकतरफा नहीं रहा?’
अभी यह बहस जाने कितनी देर चलती और नन्दू जी को कितना ऊबाती-तपाती (क्योंकि पार्टी लाइन और प्रवृत्तियों की यह सारी बहसा-बहसी उन्हें अपने बारे में कहे गये दो वाक्यों के सन्दर्भ में की गयी लग रही थी) कि तभी सीढि़यों से टेरेस में खुलने वाले दरवाज़े के ऊपर लगी घण्टी बजी। बिन्दु उठ कर टेरेस की मुंडेर तक गयी और टेरेस से नीचे झाँक कर देखने के बाद उसने लौट कर बताया, ‘चण्डिका प्रसाद द्विवेदी हैं, दो-तीन लोगों के साथ, और ऊपर आ रहे हैं।’
‘ई दलाल हियाँ का करने आया है ?’ अनिल वज्रपात ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा।
इस बीच बिन्दु ने सीढि़यों से फ़्लैट में आने वाला दरवाज़ा खोल दिया था और कुछ पल बाद दो युवकों को (जो शक्ल-सूरत और हाव-भाव से चमचे लगते थे) अपनी अर्दल में लिये, एक सम्भ्रान्त-से व्यक्ति के साथ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी कमरे में दाख़िल हुए।

तेईस

साँवला रंग, मझोला क़द और गठा बदन; चुंधी-चुंधी आँखों पर मोटे शीशों वाला चश्मा जिसे उतारने पर उनकी आँखें और भी चुंधी-चुंधी जान पड़ती थीं; चेहरे के नक़्श ब्रश के मोटे स्पर्शों और मोटी रेखाओं से बनाये गये -- चण्डिका प्रसाद द्विवेदी जब चश्मा हटा कर बात करते तो सिर को थोड़ा ऊपर को उठाये रहते, जिस तरह से अमूमन नेत्रहीन उठाये रखते हैं और मुस्कराते तो उनके चेहरे पर एक निरीहता-सी झलकने लगती। लेकिन उनके खाँटी घाघपन पर अनायास छा जाने वाली यह निरीहता महज़ एक छलावा थी जिसके पीछे छिपी सूक्ष्म बुद्धि और शातिर काँइयापन उनके सरापे या सूरत-शक्ल से नहीं, बल्कि कामकाज, व्यवहार और आचरण से उजागर होता था।
राजनैतिक हलक़ों में चण्डिका प्रसाद द्विवेदी, जिन्हें हर ख़ास-ओ-आम अब उनके पुकारू नाम सीपीडी से जानता था, ‘फ़ितरती’ प्रसिद्ध थे - उन लोगों में से एक, जिनकी हमारे इस संसदीय लोकतन्त्र में सुदीर्घ परम्परा थी। 
साँठ-गाँठ, जोड़-तोड़ और जुगाड़ में माहिर सीपीडी ने शुरुआत तो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा से की थी जब वे हाई स्कूल में थे और ‘वियोगी’ के उपनाम से गीत लिखा करते थे, लेकिन जल्दी ही वे मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एस.एफ़.आई. में आ गये, छात्र-संघ के अध्यक्ष बने, उपनाम बदल कर ‘अग्निशिखा’ रखा और अर्से तक वहीं बने रहे। जब तक कि उन्हें अपनी एक अलग क़िस्म की सौन्दर्य वृत्ति के कारण, जो लोगों के ख़याल में उनके संघी सान्निध्य और साहचर्य की देन थी, पार्टी से अलग नहीं होना पड़ा। 
यों, ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो कहते थे कि दरअसल सीपीडी  संघ-विरोधियों का निशाना बन गये थे या फिर कुछ दूसरों का दावा था कि संघ को सीपीडी की नैसर्गिक सौन्दर्य-वृत्ति के कारण कलंकित होना पड़ा था। बहरहाल, ज़हीन आदमी थे, दुनिया भर का साहित्य-दर्शन घोखे हुए, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से ले कर संस्कृति, आदि पर साधिकार बोल सकते थे और अपनी महत्वाकांक्षाओं पर घूंघट काढ़ कर बड़े नेताओं का साथ निभा सकते थे, उनके भाषण लिख सकते थे और साँठ-गाँठ में ऐसे बिचौलिये की भूमिका निभा सकते थे जो अदृश्य और मूक रहने का गुर जानता हो और जिसके कान में डाली गयी बात न तो दूसरे कान के रास्ते हवा हो जाय, न मुँह के रास्ते आग भड़का दे ।
जल्दी ही सीपीडी एक ऐसे प्रभावशाली नेता के साथ ‘लग लिये’ थे, जिसने अनेक पार्टियों की जननी हमारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पुरानी रवायत बरक़रार रखते हुए अपनी स्वतन्त्र पार्टी बना ली थी। चूंकि उस पुरानी रवायत के मुताबिक़ ऐसा काम वही करते आये थे जो फ़क़ीर हों या फ़नकार, चुनांचे इस नेता ने मोक्ष का दूसरा मार्ग पकड़ा था। पैसा उन्होंने कांग्रेस के मन्त्रिमण्डलों में प्रभावशाली और रसीले पदों पर रह कर अकूत गँठियाया था और अब भी केन्द्र की अस्थिर सरकार को समर्थन देने-न देने या वापस लेने-न लेने के एवज़ में गँठिया रहे थे। नतीजतन इस गुड़ के बल पर राजनैतिक चींटों को अपनी तरफ़ खींचे रखने की क़ूवत रखते थे। 
चण्डिका उर्फ़ सीपीडी ऐसे ही चींटे थे और चूंकि अत्यन्त विपन्न परिवार से आये थे, इसलिए गुड़ की अहमियत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। अब तो ख़ैर अपने शुभाकांक्षी-संरक्षक की कृपादृष्टि की बदौलत सीपीडी के पास दो-दो गाडि़याँ और दिल्ली, बम्बई और बनारस में मकान, यहाँ तक कि बनारस के पास अपने गाँव में, ज़मीन भी थी मगर एक ज़माना ऐसा भी था जब वे पढ़ने के लिए बनारस आने से पहले चाय-पकौड़ी और जलेबी की एक दुकान के अन्दर परछत्ती पर गुज़ारते थे।
दुकान चण्डिका के पिता की थी जो सन तीस में कांग्रेस की लहर पर सवार हो कर अपने गाँव जोखूपुरवा, ज़िला चन्दौली से कलकत्ता चले आये थे और ज्वार के उतर जाने पर किनारे फेंक दिये गये तिनकों की तरह कलकत्ता ही में रह गये थे। चूंकि ताल-तिकड़म वाले आदमी नहीं थे, इसलिए पार्टी के नेताओं ने वहीं बड़ा बाजार में उन्हें एक छोटी-सी चाय-पकौड़ी की दुकान खुलवा दी थी और उसी के ऊपर रिहाइश का इन्तज़ाम करा दिया था।
यहीं चण्डिका प्रसाद द्विवेदी के आरम्भिक वर्ष गुज़रे थे, जब तक कि वे इण्टर के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बनारस नहीं आये। उनके अन्दर के जौहर को बनारस ने सान पर चढ़ाया था जो ठेठ बनारसी मुहावरे में कहें तो ‘राँड़-साँड़-सीढ़ी-संन्यासी’ ही के लिए नहीं, बल्कि अपने एक और समुदाय की वजह से जाना जाता था, जिसके गुणों की आज़माइश के लिए राजनीति सबसे उपयुक्त अखाड़ा था।
बनारस के बाद सीपीडी ने मुड़ कर नहीं देखा था। रोज़ पहने जाने वाले कपड़ों की तरह साथी-संगाती, दल और नेता बदलते हुए आज वे अपने ताज़ातरीन आक़ा की पार्टी के महासचिवों में से एक थे। चूंकि शुरू ही से चण्डिका ने बादशाहों के हश्र को पहचान लिया था, इसलिए बादशाह बनने की बजाय, उन्होंने बादशाह बनाने की तरकीबें सिद्ध की थीं। इससे दो फ़ायदे थे; एक तो विश्वास का संकट नहीं पैदा होता था, दूसरे उनकी अपनी गाड़ी प्रेम से अप्रयास खिंचती रहती थी।
आजकल चूंकि वह दल जिसके चण्डिका महासचिव थे किसी भी प्रान्त में सत्ता में नहीं था, इसलिए चण्डिका निस्बतन ख़ाली थे। गो, उनका अपना धन्धा बदस्तूर जारी था। अपने पिछले सफ़र में चण्डिका ने हर दल में एक न दो ऐसे सम्पर्क बनाये हुए थे कि वे अपने पास आने वाले लोगों के ‘काम आ सकें।’ काम आ सकने की यही ख़ासियत अब तक चण्डिका की सफलता का एक रहस्य थी। उनके साथ इस समय भी जो दो युवक थे, वे अपने काम के सिलसिले में चण्डिका के साथ थे और चण्डिका उन्हीं की क्वालिस गाड़ी में नन्दू जी से मिलने आये थे।
कमरे में दाख़िल होते ही चण्डिका की नज़र वहाँ बैठे लोगों पर पड़ी थी और इस बात पर भी कि सारे मूढ़ों पर लोग बैठे थे और दीवान पर लगभग भीष्म पितामह की मुद्रा में नन्दू जी लेटे हुए थे। उन्होंने मुड़ कर अपने साथ आये युवकों से कहा था, ‘तुम लोग थोड़ी देर बाहर का नज़ारा लो, हम दू मिनिट नन्द किशोर जी से बतिया लें, फिर चल कर तुम्हारा काम कराते हैं।’
इसके बाद हालाँकि अन्दर मौजूद लोगों ने चण्डिका और उनके साथ आये व्यक्ति के लिए जगह ख़ाली करने की पेशकश की थी, लेकिन बड़ी तत्परता से सबसे अपनी जगह बैठे रहने का आग्रह करके चण्डिका नीचे चटाई पर उसी जगह जा बैठे थे जो थोड़ी देर पहले नन्दू जी के भाई के जाने पर ख़ाली हुई  थी। वे जानते थे कि महत्व व्यक्ति का होता है, आसन का नहीं और राजा धरती पर बैठे तो भी राजा ही रहता है। इसके साथ ही उन्होंने अपने साथ आये व्यक्ति से कहा, ‘आइए डॉक्टर साहब,’ और उन्हें भी अपने साथ ही बिठा लिया।
ज़ाहिर है कि कमरे में चल रही बहस में चण्डिका के आने से जो ख़लल पैदा हुआ था, उसकी वजह से एक अजीब-सी-चुप्पी छा गयी थी जिसके नीचे-नीचे तर्कों, दलीलों और अनकही रह गयी बातों की एक अदृश्य-सी हलचल मची हुई थी, जैसा कि अमूमन ऐसे वक़्तों में होता है। मगर इससे पहले कि यह चुप्पी असहजता अख़्तियार करे, चण्डिका ने मोर्चा सँभाल लिया था और ‘नमस्कार-नमस्ते’ और ‘आइए-आइए’ का कीर्तन समाप्त होने के बाद चटाई पर अपनी परिचित योग-मुद्रा वज्रासन में बैठ कर चण्डिका ने जो पहला वाक्य बोला, उससे सब लोगों को अन्दाज़ा हो गया कि चण्डिका को नन्दू जी की हालत का रत्ती भर पता नहीं है और वे और भले ही किसी काम से आये हों मिज़ाजपुर्सी के लिए नहीं आये।
‘कहिए साथी राम अँजोर जी,’ चण्डिका ने किसान सभाई कॉमरेड से पूछा जिनसे वे पूर्व परिचित थे, ‘नालन्दा में काम कैसा चल रहा है?’
‘ठीकै है,’ राम अँजोर बोले, ‘पिछली बार चुनाव में सीट पाटिये जीता था।’
‘रैली तो आपकी ज़ोरदार हुई, बहुत अच्छी कवरेज की है अख़बारों में, लगता है आप लोगों ने दिल्ली चलो का बिगुल फूंक ही दिया है आख़िर,’ चण्डिका ने चश्मा उतार कर एक हाथ से आँखों को मलते हुए कहा।
‘दिल्ली आये बिना किस का गुजारा हुआ है साथी,’ वज्रपात ने हल्के-से व्यंग्य और तल्ख़ी से कहा, ‘सत्ता तो दिल्लियै बिराजती है न।’
अब चण्डिका ने ग़ौर से उस युवक पर नज़र डाली। वे पल भर में पहचान गये कि अभी ज़िन्दगी ने इस युवक को लड़ाई के अवसर चुनना नहीं सिखाया है।
‘भाई, हम तो अब तक यही जानते थे कि सत्ता सर्वहारा के अधिनायकवाद में बिराजती है। दिल्ली तो एक पड़ाव है। आपकी पार्टी ने भी तो चुनाव में हिस्सा लेने का फ़ैसला करके यही मान लिया है न?’ वे बिना उत्तेजित हुए बोले।
अब कॉमरेड राम अँजोर को अचानक अपने साथियों का परिचय देने का ख़याल आया। उन्होंने अनिल वज्रपात, उदय प्रकाशपुंज और आदित्य प्रकाश का परिचय दिया। आदित्य का नाम सुनते ही चण्डिका चहक उठे, ‘अरे आप ही आदित्य प्रकाश हैं। अहो भाग्य। मैं तो आपकी कहानियों का मुरीद हूं। भाषा-शैली का भी और जिस तरह से आप विषय उठाते हैं, उसका भी।’
‘लेकिन कॉमरेड,’ अबकी बार बारी उदय प्रकाशपुंज की थी, ‘आपकी इस राजनैतिक व्यस्तता में कहानी पढ़ने का टाइमौ मिलता है ?’
‘आपने हमारी दुखती नस छेड़ दी साथी,’ स्वर में अवसाद ला कर चण्डिका ने कहा, ‘समय तो कम मिलता है, यह ठीक है, पर हमने साहित्य-संस्कृति और विचार से अपने को कभी अलग नहीं किया है। लोकवादी कांग्रेस में भी हमने साफ़ कर दिया है कि यह सब हमारे लिए साँस लेने के बराबर है। अरे, हमको तो आज भी वे दिन याद आते हैं जब हम बनारस में गोरख पाण्डे, महेश्वर और दूसरे साथियों के संग मिल कर काम करते थे, गीत गाते थे...’
और बात अधूरी छोड़ कर चण्डिका ने अचानक दिवंगत कवि गोरख पाण्डे के गीत की कुछ पंक्तियाँ सस्वर सुनानी शुरू कर दीं।

‘सूतल रहलीं सपन एक देखलीं 
सपन मनभावन हो सखिया
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा 
त खेत भइलें आपन हो सखिया
गोसयाँ के लठिया मुरइया अस तूरलीं 
भगवलीं महाजन हो सखिया....’

शक्ल-सूरत और सरापा चाहे जैसा हो, पर कण्ठ चण्डिका का लाजवाब था। तरह-तरह की अतियाँ भी (वे सुबह से शाम तक पी सकते थे और रात-रात भर जाग कर ख़रमस्तियाँ कर सकते थे) उसकी मधुरता को कम नहीं कर पायी थीं। गीत था भी उस साध के बारे में जो हर आम हिन्दुस्तानी किसान के मन में दुल्हिन की तरह सफल होने की चाह में बैठी रहती है। 
कमरे में बैठे लोग मन्त्र-मुग्ध-से सीपीडी को गाते सुनते रहे। यहाँ तक कि बिन्दु भी रसोई से वहाँ आ गयी।
गीत की दो कडि़याँ गा कर चण्डिका मुस्कराये और फिर घड़ी की तरफ़ नज़र डाल कर नन्दू जी की तरफ़ मुड़े जो चण्डिका के आने के बाद दीवान पर दीवार से पीठ टिका कर अधबैठे हो गये थे।
‘दरअसल, हम एक ख़ास काम से आये हैं, नन्दू जी,’ उन्होंने बात शुरू की, मगर इस बीच नन्दू जी की हिचकियों का क्रम थोड़ा तेज़ हो गया था, इसलिए उन्होंने पहले नन्दू जी की कुशल पूछना ज़रूरी समझा, ‘क्या बात है, हम आये तो आप लेटे हुए थे, तबियत तो ठीक है न?’
‘कहाँ ठीक है,’ बिन्दु ने चिन्ता-भरे स्वर में कहा, ‘कल शाम से हिचकी शुरू हुई है और अभी तक नहीं रुकी। हमें तो बहुत चिन्ता हो रही है।’
‘अरे, फिर तो देखिए, हम कैसे सही समय आये, ज़रूर इसमें टेलिपैथी का कुछ हाथ है,’ चण्डिका चहके। ‘आप डॉक्टर विनय कुमार हैं, होमियोपैथी के जाने-माने डॉक्टर हैं।’
अपने साथ आये सज्जन का परिचय दे कर चण्डिका ने एक ही साँस में यह जानकारी दे दी कि डॉ0 विनय कुमार मुज़फ्फ़रपुर के रहने वाले हैं और वहाँ के सुप्रसिद्ध होमियोपैथ डॉ.आर.पी. शर्मा के साथ कई बरस काम कर चुके हैं और साल भर से दिल्ली में पैर जमाने की कोशिश में हैं, बल्कि कहा जाय कि पैर जमा चुके हैं और अपनी एक पुरानी साध को पूरा करने के मक़सद से चण्डिका के साथ नन्दू जी से मिलने आये हैं। 
यह सब जानकारी एक ही साँस में दे कर चण्डिका डॉक्टर विनय कुमार की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘मगर वह काम बाद में। पहले नन्दू जी को इस लायक़ तो बनाया जाय कि वे हमारी मदद कर सकें।’ 
यह कह कर चण्डिका ने डॉ0 विनय कुमार की तरफ़ देखा, मानो गेंद उन्होंने अब गोल के नज़दीक पहँच कर अग्रिम पाँत के सही खिलाड़ी को सौंप दी हो, और अपनी सवालिया निगाहें डॉ0 विनय कुमार पर गड़ा दीं।
‘कब से आ रही है हिचकी आपको?’ डॉक्टर विनय कुमार ने चन्दू से पूछा।
‘कल रात खाने से पहले से,’ नन्दू जी ने जवाब दिया।
‘अच्छे-भले शाम को काम से घर लौटे थे,’ बिन्दु ने तफ़सील दी, ‘चाय-वाय पी। बस, अचानक हिचकी शुरू हो गयी। खाना भी नहीं खाया। अभी मुश्किल से चाय पी है। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। यहाँ हम नये-नये आयें हैं। किसी को जानते नहीं कुसुम विहार में तो दस पड़ोसी थे, डॉ0 सुशील वर्मा भी नज़दीक थे, यहाँ किसी को दूसरे से जैसे कोई वास्ता ही नहीं...’ 
इतना कहते-कहते बिन्दु का स्वर मद्धम होते-होते अचानक रुंध-सा गया।
‘घबराने की कोई बात नहीं,’ डॉ0 विनय कुमार बोले, ‘हिचकी कोई रोग नहीं, एक कण्डिशन है। क़रीब-क़रीब उलटी आने जैसी - रिवर्स पेरिस्टॉल्सिस - जब शरीर स्वाभाविक रूप से खाने-पीने की चीज़ों को अन्दर लेने की बजाय बाहर फेंकता है या और तरीक़ों से रिऐक्ट करता है। शरीर का कुदरती उपाय है यह ख़ुद अपनी रक्षा करने का, उन चीज़ों से जो उसे महसूस होता है कि उसे सूट नहीं करतीं। कभी-कभी तीखी मिर्च खाने पर भी हिचकी आती है तो इसीलिए। इसके कुछ साइको-सोमैटिक कारण भी होते हैं।’ 
’साइको-सोमैटिक ?’ आदित्य प्रकाश ने फ़ौरन कहा,’यानी मनो-शारीरिक ?’
’हां, हमारा शरीर और मन तो आपस में जुड़े ही हैं न,’ इतना कह कर डॉ0 विनय कुमार चण्डिका की तरफ़ मुड़े और बोले, ‘गाड़ी में मेरा बैग रखा है, उसे मँगवा दीजिए।’
चण्डिका ने फ़ौरन अपने साथ आये युवकों में से एक को आवाज़ दे कर बुलाया और नीचे भेजा कि वह डॉ0 विनय कुमार का बैग ले आये। इस बीच सबका ध्यान डॉक्टर विनय कुमार पर जमा हुआ था। वे मझोली क़द-काठी और खुलते गेंहुए रंग के सुदर्शन व्यक्ति थे। यह उनकी स्वाभाविक वृत्ति थी या फिर होमियोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति अपनाने से बना स्वभाव, उनके लहजे में एक आश्वस्तिकारक भाव रहता था।

Article 2

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हिचकी

आख़िरी किस्त 


चौबीस

‘दरअसल, हमारा शरीर एक अत्यन्त जटिल मशीन है,’ डॉ0 विनय कुमार ने बात जारी रखी थी, ‘और इसका गहरा सम्बन्ध हमारे मन-मस्तिष्क से है। इसीलिए आपने देखा होगा कि जब दिमाग़ बहुत परेशान रहने लगे तो एसिडिटी की शिकायत हो जाती है। जीवन की भौतिक स्थितियाँ हमारे मन-मस्तिष्क पर और मन-मस्तिष्क की हलचल हमारे शरीर पर असर डालती हैं। इसीलिए आपने देखा होगा किसी अप्रिय समाचार या दृश्य को देखने पर उलटी आ जाती है। यह शरीर की स्वाभाविक क्रिया है।’
डॉ0 विनय कुमार बड़े धीर-गम्भीर अन्दाज़ में नन्दू जी को समझा रहे थे उनके हाव-भाव और लबो-लहजे में कुछ ऐसा आश्वस्त करने वाला भाव था कि पहले से बैठे साथी लोग तन्मयता से उनकी बातें सुनने लगे थे, यहाँ तक कि साथी अनिल वज्रपात के चेहरे पर भी हर चीज़ को सन्देह की नज़र से देखने का जो भाव स्थायी रूप से बना रहता था, वह तिरोहित तो नहीं, पर ढीला ज़रूर पड़ गया था। 
अचानक उन्होंने डॉ0 विनय कुमार की बातों में आयी हल्की-सी फाँक का फ़ायदा उठा कर टप्प-से कहा, ‘साथी बहुत वैज्ञानिक बात कह रहे हैं। मार्क्सवाद में भी एही तो कहा गया है न। भौतिक सत्ता और मन का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है।’
‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’ डॉ0 विनय कुमार अपने धीर-गम्भीर स्वर में बोले। ‘आम चिकित्सा पद्धतियों में शरीर और मन को अलग करके देखा जाता है, लेकिन होमियोपैथी में दोनों का सम्बन्ध मान कर रोग की जाँच की जाती है। इसीलिए दवा रोगी-रोगी के हिसाब से बदलती है, इसमें पेटेण्ट दवा जैसा कोई फ़ण्डा नहीं है। पुरानी सभी पद्धतियाँ इसी हिसाब से चलती थीं। हमारे यहाँ भी तो कहा गया है विषस्य विषमौषधम। होमियोपैथी भी ज़हर को ज़हर से काटने की कोशिश है।’
तभी दरवाज़े पर चण्डिका जी का मुण्डू नमूदार हुआ। उसके हाथ में एक नफ़ीस-सा चमड़े का बैग था, जैसा अमूमन दवाई कम्पनियों के प्रतिनिधि लिये रहते हैं। फ़र्क़ बस इतना था कि इस बैग में अन्दर एक ही ख़ाना था जिसमें क़रीने से काँच की छोटी-छोटी काग-लगी शीशियों में पानी की तरह तरल दवाइयाँ सजी थीं। चूंकि शीशियाँ सटा कर रखी हुई थीं, इसलिए दवा का नाम शीशी पर लगी चिप्पी के साथ-साथ स्याही से ऊपर काग पर भी अंकित था। 
डॉ0 विनय कुमार ने पल-दो पल सोच कर एक शीशी निकाली, उसकी चिप्पी पर लिखा नाम पढ़ा, फिर उसे वापस रख कर दूसरी शीशी निकाली। इसके बाद बैग के अन्दर से ही सफ़ेद काग़ज़ का छोटा-सा चौकोर टुकड़ा ले कर उस पर एक बड़ी बोतल से कुछ सफ़ेद गोलियाँ पलटीं और शीशी के तरल पदार्थ की कुछ बूंदें टपका दीं। टुकड़े को हलका-सा मोड़ कर, जिससे गोलियाँ नीचे न गिरें, उन्होंने नन्दू जी की तरफ़ बढ़ा दिया।
इस बीच सब लोग ख़ामोशी से, जैसे मन्त्र-बिद्ध, यह प्रक्रिया देख रहे थे। जेसे ही डॉ0 विनय कुमार ने मुड़ा हुआ काग़ज़ नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया, सब लोगों पर छाया हुआ जादू मानो एकबारगी टूट गया और एक हलचल-सी हुई।
‘यह डोज़ ले लीजिए। दो ख़ूराक़ और बना देता हूं, पन्द्रह-पन्द्रह मिनट पर लेनी है,’ डॉक्टर विनय कुमार ने कहा, ‘उम्मीद है, इतने से आराम आ जायेगा। वैसे मैं एक शीशी में दूसरी दवा भी दे रहा हूं। हिचकियाँ बन्द न हों तो दो घण्टे के बाद उसकी पाँच गोलियाँ ले लीजिएगा और चार-चार घण्टे पर लेते रहिएगा। हालाँकि मेरे ख़याल से उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।’
यह कह कर डॉ0 विनय कुमार ने तत्परता से दो पुडि़यों में पहली दवा बनायी और और बैग में रखी छोटी-सी ख़ाली शीशी में दूसरी दवा बनाने लगे। माहौल पर इतनी देर से जो सक़ता-सा छाया हुआ था, उसके टूटने पर लोग हरकतज़दा हो उठे थे। यह डॉ0 विनय कुमार के व्यक्तित्व का कमाल था कि उनकी दवा के असर का, नन्दू जी की हिचकियों की तीव्रता भी हलकी-सी कम हो गयी जान पड़ती थी।
अब नन्दू जी को अपने कर्तव्य का भी ख़याल आया। उन्होंने बिन्दु से चाय बनाने के लिए कहा।
‘नहीं, नहीं, भाभी जी,’ चण्डिका ने फ़ौरन उसे रोका, ‘चाय किसी और दिन। अभी हमें यहाँ कइयो बार आना है।’
अचानक उनका ध्यान गया कि इस बीच कॉमरेड राम अँजोर मूढ़े से उठ खड़े हुए थे।
‘बैठिए अभी, साथी,’ चण्डिका ने राम अँजोर को बैठने के लिए कहा, ‘कुछ राय आपकी भी दरकार होगी। बात यह है,’ उन्होंने राम अँजोर के बैठने का इन्तज़ार करके पल भर बाद कहा, ‘डॉक्टर विनय कुमार एक पत्रिका निकालने की योजना बना रहे हें और उसी में आप सबकी मदद चाहिए।’
‘कैसी पत्रिका?’ अब तक ख़ामोशी से इस सारे व्यापार को देख रहे आदित्य प्रकाश ने पूछा।
‘विचार प्रधान पत्रिका,’ चण्डिका ने फ़ौरन जवाब दिया। ‘बाक़ी बात डॉक्टर साहब ख़ुद बतायेंगे।’
‘अभी एक रफ़-सा आइडिया है दिमाग़ में,’ डॉ0 विनय कुमार ने कहा, ‘अर्सा पहले जैसे ‘दिनमान’ पत्रिका निकलती थी, वैसी ही कुछ-कुछ। वह साप्ताहिक थी, हम मासिक निकालेंगे। ज़ाहिर है, ख़बरों का हिस्सा कम, विश्लेषण और बहस का हिस्सा ज़्यादा होगा। पत्रिका विचार प्रधान होगी।’
‘मगर साथी,’ अनिल वज्रपात ने टीप जड़ी, ‘जैसा हमारे कवि मुक्तिबोध कहते थे, पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’
‘विचार-विमर्श का खुला मंच होगा,’ डॉ0 विनय कुमार ने स्पष्ट किया। ‘हम रज़ामन्दों को राज़ी करने के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों को राज़ी करने के लिए पत्रिका निकालेंगे जिनका ख़याल है कि चीज़ें बदल नहीं सकतीं। और ऐसा पहले से तैयार की गयी कोई घुट्टी पिला कर नहीं, खुली बहस से होगा।’
‘इसीलिए हम आपके पास आये थे,’ चण्डिका ने नन्दू जी से कहा, ‘यह कहने कि आप भी हमारी टीम में शामिल होइए, सम्पादक मण्डल में, लेकिन आप तो भीष्म पितामह बने हुए थे।’ और वे ठठा कर हँसे। ‘ख़ैर, आपके कान में बात डाल दी है। डॉक्टर साहब ने रजिस्ट्रेशन के लिए अर्ज़ी दे दी है। इस बीच आप सोचिएगा पत्रिका की रूप-रेखा कैसी हो। अब हम चलते हैं, अभी हमको राम किशुन पासवान के यहाँ जाना है, इन दो साथियों के काम से।’ और उठते हुए उन्होंने बाहर खड़े युवकों में से एक को आवाज़ दी, ‘राजू।’
युवक के अन्दर आने पर चण्डिका ने उसे डॉ0 विनय कुमार का बैग उठा कर गाड़ी में रखने के लिए कहा। फिर वे पहले से बैठे लोगों की तरफ़ मुड़े जो इस बीच उठ कर खड़े हो गये थे। ‘आप लोगों को अगर कहीं जाना है तो हम आपको छोड़ते हुए निकल जायेंगे,’ उन्होंने राम अँजोर से कहा।
‘जाना तो अब पाटियै आफिस है,’ राम अँजोर ने कहा और फिर कुछ हिचकते हुए बोले, ‘मुदा आप चलिए, हम बाद में आ जायेंगे। फिर हम चार जने हैं।’
‘अरे तो क्या हुआ,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम समूचा ट्रक लिये हैं। क्वालिस गाड़ी है ई साथी लोग की, रस्ते में थोड़ा और गप-शप हो जायेगी।’
लेकिन राम अँजोर की हिचकिचाहट को देख कर सीपीडी फ़ौरन समझ गये कि जिस काम से वे लोग नन्दू जी के पास आये थे, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। चण्डिका को मालूम था कि आम तौर पर दूसरे की फटी चादर में पैर डालना चाहे नागवार समझा जाता हो और घाटे का सौदा, मगर राजनीति में कई बार छप्पर से गिरी थैली-सरीखा होता है।
‘नन्दू जी से बात करना है तो कर लीजिए, हम पाँच-सात मिनट रुक जाते हैं,’ वे बोले।
राम अँजोर ने सवालिया नज़रों से नन्दू जी की तरफ़ देखा तो नन्दू जी कसमसाये।
‘साथी, आप ऊ चिट्ठी पढ़ लिये थे?’ राम अँजोर ने पूछा।
नन्दू जी ने सिर हिलाया लेकिन जवाब देने की बजाय एक हिचकी ली।
‘फिर, कुछ सोचे आप?’
नन्दू जी के पास कोई जवाब होता तो देते। वे जिस राह पर चल पड़े थे, उसमें अब मुड़ कर उस कम्यून-सरीखी मानसिकता में लौटना उनके लिए सम्भव नहीं रह गया था। फिर वे अगर ख़ुद को और बिन्दु को किसी तरह तैयार कर भी लेते, तो मकान-मालिक बंसल जी को कैसे मना पाते। अगर बंसल जी ने एक बार अपने मख़सूस लहजे में कह दिया कि ‘हमने तो जी मकान आपको रैने के लिए दिया है, हस्पताल खोलने के लिए नहीं,’ तो वे क्या करेंगे।
जब उनकी ख़ामोशी स्वीकृत अवधि को पार कर गयी तो चण्डिका ने सक्रिय हस्तक्षेप की सोची और बोले, ‘तनी हमको भी समस्या बतायी जाय, साथी। हो सकता है, कोई हल निकल आये।’
अब बिन्दु ने, जो काफ़ी देर से खड़ी यह मौन सवाल-जवाब का खेल देख रही थी, लगाम अपने हाथ में ली। ‘बात यह है भाई साहब कि दिनेश कुमार जी को तो आप जानते ही हैं, इनके बड़े भाई, बुज़ुर्ग, सभी कुछ हैं, उन्हीं को ले कर परेशान हैं।’
‘अरे, तो बताइए न,’ चण्डिका ने कहा, ‘सारी परेशानी मिल कर दूर की जा सकती है।’
‘उन्हीं का पत्र आया है। पिछले साल एक लाठी चार्ज में उनकी टाँग टूट गयी थी, उसी का इलाज कराना है। यहाँ। और जगह पार्टी ऑफ़िस में है नहीं। हमारे लिए चिट्ठी भेजी थी, पर हमारे यहाँ भी दिक़्क़त है। हम तो चलो जैसे-तैसे गुज़ारा कर लें, आख़िर दिनेश जी बड़े भाई जैसे हैं, पर इस मकान मालिक को क्या कहेंगे। वैसे ही नाक में दम किये रखता है।’
‘तो ई सब आप लोगों ने हमें पहले क्यों नहीं बताया,’ चण्डिका ने कहा, ‘हम पराये थोड़े ही हैं। क्या हम नहीं जानते साथी दिनेश कुमार के बारे में? चलिए, अभी एम्स में डॉ0 विनोद खुराना को फ़ोन करके टाइम लेते हैं। वहीं इलाज का बन्दोबस्त हो जायेगा। रहने का क्या है, हम तो आजकल भाई साहब के साथ उनके एम.पी. फ़्लैट ही में रहते हैं, दिनेश जी को हम अपने डिफ़ेन्स वाले मकान में ठहरा देंगे। एम्स के पास रहेगा।’ वे राम अँजोर की तरफ़ मुड़े, ‘चलिए साथी, हमको रास्ते में सब डिटेल बताइए। हम सीपीएम छोड़ दिये हैं, पर पुराने सम्बन्ध थोड़े ही तोड़े हैं। फिर दिनेश जी तो हमारे पुराने साथियों में से हैं। चलिए, रास्ते में सब फरिया लिया जायेगा।’
सब लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए तो नन्दू जी भी उठ कर टेरेस पर आये। डॉ0 विनय कुमार ने जेब से अपना कार्ड निकाला और नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाया।
‘यह मेरा कार्ड है, दोनों फ़ोन हैं इसमें, घर का भी और क्लिनिक का भी। कोई परेशानी हो फ़ोन करने में संकोच मत कीजिएगा।’
‘लाइए, हम भी अपना नम्बर लिख दें,’ चण्डिका ने रास्ते ही में कार्ड थामते हुए कहा और उसकी पिछली तरफ़ अपना फ़ोन नम्बर लिख दिया। 
कार्ड को नन्दू जी की तरफ़ बढ़ाते हुए वे बोले, ‘कोई समस्या हो फ़ोन करने से हिचकिएगा नहीं। उम्मीद है संझा तक आराम आ जायेगा। बस, अब आप पत्रिका की रूप-रेखा तैयार कर लीजिए।’ यह कह कर वे मुड़े और बिन्दु से बोले, ‘अच्छा भाभी जी, चाय अगली बार पियेंगे। और घबराइए नहीं, सब सेट हो गया तो पत्रिका का अपना ऑफ़िस होगा और उधर ही एक अच्छा-सा फ़्लैट खोजा जायेगा आप के लिए।’
यह कह कर वे मुड़े और सभी लोगों को अपनी अर्दल में लिये सीढि़याँ उतर गये। नन्दू जी लौट कर पहले ही तरह दीवान पर ढह गये। हिचकियों की तीव्रता में कुछ कमी तो आयी थी, मगर वे आ अब भी रही थीं। अलबत्ता हिचकियों के बीच का फ़ासला काफ़ी बढ़ गया था। उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली और डॉ0 विनय कुमार की दी हुई पुडि़या खोल कर दवा फाँक ली।
बिन्दु ने इस बीच चाय के मग और कॉमरेड वज्रपात की बीडि़यों के प्लेटों से भरी कटोरी ले जा कर रसोई के सिंक में रख दी थी। जब वह लौट कर बैठक में आयी तो नन्दू जी दीवान पर चित लेटे हल्के-हल्के ख़र्राटे ले रहे थे।
अब यह कहना मुश्किल है कि यह बंसल जी के चूरन का कमाल था, या नन्दू जी के भाई की झाड़-फूंक और तावीज़ का, डॉ0 विनय कुमार की दवा की करामात थी या चण्डिका प्रसाद द्विवेदी उर्फ़ सीपीडी के आश्वासन की, दोपहर बाद जब स्वामी नन्दू जी से मिलने आया और वे उठे तो उन्हें तबियत काफ़ी हल्की लगी थी और कुछ देर बाद ही अचानक यह एहसास हुआ था कि उनकी हिचकियाँ बिलकुल बन्द थीं। रात उन्होंने दो दिनों में पहली बार तृप्त हो कर खाना खाया था और चैन की नींद सोये थे।
अगली शाम प्रकाशन के दफ़्तर से बाहर आ कर उन्होंने डॉ0 विनय कुमार को अपने बिलकुल ठीक हो जाने की ख़बर दी और यह भी बताया कि उन्होंने पत्रिका का एक रफ़ ख़ाका तैयार कर लिया है। यही सूचना उन्होंने सीपीडी उर्फ़ चण्डिका प्रसाद द्विवेदी को देते हुए कहा था कि पत्रिका पर काम शुरू करने के लिए जब चाहें बैठ जायें।
लेकिन यह सब करते हुए उन्होंने चन्दू गुरु का तावीज़ अपनी बाँह पर बँधा ही रहने दिया था।
                                                                                                                                             
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Article 1

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सबूत

क़दम क़दम पर
वे मांगते रहे सबूत
हम देते चले आये

मुसलमान होने पर 
अपनी देशभक्ति का सबूत
औरत होने पर 
अपने सतीत्व का सबूत
हरिजन होने पर
अपनी मेधा का सबूत
बलत्कृत होने पर 
चरित्र की श्रेष्ठता का सबूत
नौकरी करने पर निष्ठा का सबूत
तरक़्क़ी के लिए
योग्यता का सबूत
हर राष्ट्रीय आपदा में
त्याग और साहस का सबूत

हमने मांगा उनसे सिर्फ़
मनुष्यता का सबूत

उन्होंने दिया यह हमें
फांसी के तख़्ते पर ले जा कर


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[यह टिप्पणी लगभग डेढ़ साल पहले लिखी थी. 
तब हमारे यहां नया निज़ाम लागू नहीं हुआ था, गो पुराना निज़ाम लड़खड़ाने लगा था. हवा में हलचल थी पर किसी को यक़ीन नहीं था कि हम पूरी तरह सौदागरों के हाथों में चले जायेंगे, साम्प्रदायिकता एक तरफ़ अपनी आक्रामकता दिखायेगी, दूसरी तरफ़ साम्प्रदायिकता के अलमबरदार चालाकी से यह दिखायेंगे कि वे कितने उदार हैं. जनता की गुहार लगाते-लगाते उसे बेचने, गिरवी रखने, ग़ुलाम बनाने, डराने-धमकाने का खुला खेल शुरू हो जायेगा क्योंकि जनता ने पांच बरसों के लिए अपने हाथ बांध लिये हैं.
इस सब के बावजूद इस टिप्पणी को दोबारा पढ़ते हुए आप सब से साझा करने का मन हुआ है तो इसलिए कि आप सब सोचें और इसमें अपनी राय जोड़ें, इसे आगे बढ़ायें.]  




सर्वहारा राजनीति और संस्कृति के नये औज़ार


एक भयानक चुप्पी छायी है समाज पर
शोर बहुत है पर सचाई से कतरा कर गुज़र रहा है...
एक भयानक बेफ़िक्री है पाठक अत्याचारों के क़िस्से पढ़ते हैं अख़बारों में 
मगर आक्रमण के शिकार को पत्र नहीं लिखते हैं सम्पादक के द्वारा
सभी संगठित दल विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के लिए जुट लेते हैं
एक भयानक समझौता है राजनीति में हर नेता को एक नया चेहरा देना है."
(समझौता : रघुवीर सहाय)


किसी विचारशील युद्ध विशेषज्ञ ने कहा है कि जब लड़ाई लम्बी चलती है तो दोनों पक्ष अपने गुरुओं, सलाहकारों और पक्षधरों से उतना नहीं सीखते जितना अपने दुश्मनों से. शायद यही कारण है कि जो लड़ाई सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदियों में औद्योगिक क्रान्ति के बाद यूरोप में शुरू हुई थी और जिसने हज़ारों वर्षों से क़ायम सामन्ती व्यवस्था को उखाड़ फेंका था और पूंजीवाद की शक्ल में एक नयी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की नींव रखी थी, उसके अलग-अलग दौरों पर नज़र डालते ही यह साफ़ हो जाता है कि उस लड़ाई के दोनों पक्ष एक-दूसरे पर लगातार गहरी निगाह रखते रहे हैं. पिछले तीन-चार सौ बरसों के दौरान इस लड़ाई ने कई रूप बदले हैं. पूंजीवाद ने, जो औद्योगिक क्रान्ति के नतीजे के तौर पर आया था और जिसकी झोली में ऐसे अनेक वरदान थे जिन्होंने मनुष्य को नयी बुलन्दियों तक पहुंचाया, एक-डेढ सौ बरस ही में अपनी झोली से अभिशापों की झड़ी लगा दी. अमीर और ग़रीब के बीच की सारी पुरानी लड़ाइयों ने नये और निर्मम रूप-रंग अख़्तियार कर लिये. लेकिन दूसरी तरफ़ से भी प्रतिरोध की कोशिशें जारी रही और हर दौर में मनुष्य को जकड़बन्दियों में घेरने के हर नये क़दम के ख़िलाफ़ नये हथियार और औज़ार गढ़े गये. लेकिन इस लड़ाई का यूरोप में जो भी स्वरूप रहा हो, दुनिया के और बहुत-से हिस्सों में यह बिलकुल अलग ढंग से पहुंची और छेड़ी गयी. 

हमारे देश में पूंजीवाद और आधुनिक मशीनी युग अपने पैरों पर नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के कन्धों पर चढ़ कर आया. उसने सामन्ती व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की बजाय, जैसा कि यूरोप में देखा गया था, उससे समझौता कर लिया. यही उसकी विशेषता होती है. वह सत्ता उस तरह नहीं हथियाता जैसे सामन्ती युग में एक राजा या राज्य दूसरे पर कब्ज़ा करके हथियाता है. वह सत्ता पर अपनी पकड़ बना कर उपनिवेश तो लूटने, चूसने और दुहने का काम करता है. सत्ता का असली केन्द्र उपनिवेश के भीतर नहीं बल्कि उस देश में स्थित होता है, जिसने उपनिवेश क़ायम किया हो. यूरोप के सभी उपनिवेशवादियों ने, चाहे वे अंग्रेज़ रहे हों या डच, फ़्रांसीसी रहे हों या जरमन, अपने-अपने उपनिवेशों में ठीक ऐसा ही किया. इस हालत में उपनिवेश और उसमें रहने वालों के प्रति उपनिवेशवादी सत्ता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती. वह उस उपनिवेश में जो भी तब्दीलियां करता है, अपनी लूट को बेहतर तौर पर अंजाम देने के लिए करता है. रेल हो या डाक-तार व्यवस्था या शासन का पश्चिमी तरीक़ा या आधुनिक शिक्षा पद्धति -- अंग्रेज़ों ने इन्हें हिन्दुस्तान के लोगों के हित के लिए नहीं यहां स्थापित किया था. उनका उद्देश्य अगर हिन्दुस्तानी जनता की बेहतरी होता तो सबसे पहले वे समूचे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में बुनियादी सुधार करते. लेकिन उन्होंने पुरानी बुराइयों को बने रहने की छूट देते हुए, कुछ नयी बुराइयां भी लाद दीं. 

यही वजह है कि आज हमें अपने देश में एक तरफ़ तो भयंकर रूप से लचर और अकल्याणकारी लोकतान्त्रिक ढांचा नज़र आता है, दूसरी तरफ़ सामन्ती संरचना भी अपने पुराने रूप में बहुत हद तक मौजूद है. १९४७ के बाद जिस तरह उत्तरोत्तर हर राजनैतिक दल के भीतर वंशवाद और कुनबापरस्ती पनपी है, वह सामन्ती मूल्यों के अस्तित्व ही का संकेत है. किसी भी विकसित पश्चिमी लोकतन्त्र में यह चलन देखने में नहीं आता. यही वजह है कि १९४७ में अंग्रेज़ तो गये, पर सत्ता भारतीय जनता के हाथ में नहीं आयी. भगत सिंह ने १९३० में अपनी शहादत से पहले ही यह आशंका व्यक्त की थी कि कथित आज़ादी और कुछ नहीं, सत्ता पर गोरे साहबों की जगह काले साहबों का कब्ज़ा होगा. ऐसा ही देखने में आया. यही वजह है कि प्रकट रूप से अंग्रेज़ उपनिवेशवादी तो गये लेकिन नव-उपनिवेशवादियों ने उनकी जगह ले ली. और अब नव-उपनिवेशवाद के ज़रिये हम पर काबिज़ पूंजीवाद सिन्दबाद की कहानी का वह "पीर-ए-तस्मा-पा"बन चुका है जिससे निजात पाने के लिए नयी सूझ-बूझ और नयी हिकमतों की ज़रूरत है. कहने की बात नहीं है कि यह भी पूंजीवाद ही की करनी है कि आज कोई भी देश औरों से अलग-थलग रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर नहीं कर सकता. हमारे देश के अन्दर जो और जिस क़िस्म की कश-म-कश चले, उसका ताल्लुक़ लामुहाला दूसरे देशों से होगा ही, ख़ास तौर पर उन देशों से जो असर डालने की ताक़त रखते हैं. सो, जो भी उपाय तलाश किये जायें, उनका स्वरूप अन्दर के हालात तो तय करेंगे ही, उस में बाहर की परिस्थितियां भी अपनी भूमिका निभायेंगी.

जैसा कि मैंने कहा, चीज़ें स्थिर और स्थायी नहीं होतीं. समाज चाहे जैसा भी हो लगातार बदलता है और हाल के वर्षों में हिन्दुस्तान के भीतर ही नहीं, उसके बाहर भी चीज़ें तेज़ी से बदलती रही हैं. बीसवीं सदी के शुरू में, खास तौर पर पूंजीवाद पर आये पहले संकट के बाद जो १९२९ की मन्दी के रूप में दिखायी पड़ा था, पूंजीवादी तन्त्र के खिलाफ़ एक ज़बरदस्त लहर दिखायी दी थी. सोवियत और चीनी क्रान्तियों ने बहुत-सी नयी आकांक्षाओं के लिए प्रेरणा ही का नहीं, उदाहरण का भी काम किया था. बहुत-से देशों में जो उपनिवेशवादी ताकतों के अधीन थे, स्वाधीनता की लड़ाइयां एक बेहतर और अधिक समानता आधारित समाज की परिकल्पना के साथ लड़ी गयी थीं १९६० और ’७० के दौर नये परिवर्तनों के उन्मेष के दशक थे. समूची दुनिया के स्तर पर स्वाधीनता को समानता के साथ जोड़ कर आन्दोलन चलाये गये. लेकिन इस बीच पूंजीवाद हाथ-पर-हाथ धरे बैठा नहीं रहा. उसने भी अपने दुश्मनों से बहुत कुछ सीखा और बीसवीं सदी के अन्तिम दौर में वह नयी सांस ले कर मोर्चे पर आ जमा. इस बीच सोवियत संघ के पतन और चीन द्वारा पूंजीवादी पथ अपनाने के कारण तीन दुनियाओं की पुरानी अवधारणा निरस्त हो गयी. अमरीका एक-ध्रुवीय शक्ति का सबसे बड़ा और निरंकुश केन्द्र बन कर उभरा, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए होड़ तेज़ हुई, पूंजीवाद ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और भूमण्डलीकरण के माध्यम से पूरे विश्व को एक विराट मण्डी में बदल दिया. साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ाई को कमज़ोर करने के लिए जगह-जगह युद्ध छेड़े गये. दूसरे देशों की जनता को अपने देश में खुद परिवर्तन करने की छूट देने की बजाय अमरीका ने साम्राज्यवादी धौंस से काम लेते हुए कभी इराअ में घुस-पैठ की कभी अफ़्घानिस्तान में. 

इस सब का असर हमारे देश पर पड़ना ही था. अगर हम पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों पर नज़र डालें तो उनकी बहुत-सी आहटें हमें रघुवीर सहाय की उन कविता पंक्तियों में मिलती हैं जो ऊपर उद्धृत की गयी हैं.. यह वही समय है जब हिन्दुस्तान की राजनीति का -- कहा जाये कि -- कार्पोरेटीकरण होता गया है. नतीजे के तौर पर एक ओर तो समूचे भारतीय समाज का ताना-बाना भयंकर तनाव का शिकार है, दूसरी ओर आर्थिक विषमता अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है, जिसका असर हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी नज़र आने लगा है. 
कहने को तो देश में अपने ही लोगों का शासन है, पर यह कोई छिपी बात नहीं है कि लगभग सारे फ़ैसले अमरीका कर रहा है या कार्पोरेट कम्पनियां.  कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ख़ारिज कर दी गयी है. अन्दरूनी और बाहरी लूट-खसोट का बाज़ार गर्म है. केन्द्र सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें वे अपनी ही जनता का कत्ले-आम करने में ज़रा भी नहीं हिचकतीं. जिस बेशर्मी से पश्चिमी बंगाल की पिछली वाम मोर्चा सरकार ने सिंगुर, लालगढ़, नन्दीग्राम में कहर बरपा किया या जिस बेरहमी से केन्द्र सरकार छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का सफ़ाया कर रही है, उसने सारे खेल का पर्दा फ़ाश करके रख दिया है. असली उद्देश्य लूट-खसोट है. ऊपर से एक के बाद एक जिस तरह घोटालों की लाइन लगी हुई है और जनता के अपने ही कथित नुमाइन्दे उसे लूट रहे हैं, वह भी इस से पहले के किसी दौर में देखने को नहीं आता. लोगों का ध्यान बुनियादी सवालों से हटाने के लिए आज़मूदा हिकमतें बड़ी कामयाबी के साथ लागू की जा रही हैं -- चाहे वह प्रधान मन्त्री द्वारा नक्सलवाद को भारत की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताने से ताल्लुक़ रखता हो या आतंकवाद के नाम पर सभी मुसलमानों को कटघरे में खड़े कर देने से. पकड़-धकड़ का एक अजीबो-ग़रीब खेल चल रहा जो "न दलील, न अपील, न वकील"वाले रौलट ऐक्ट को पीछे छोड़ गया है. देश लगभग एक पुलिसिया राज बन चुका है. मीडिया यानी सूचना-समाचार चूंकि इस लड़ाई में सबसे बड़े साधन का काम करता है, इसलिए मीडिया पर कारपोरेट घरानों का कब्ज़ा हैरत नहीं उपजाता. और इसके नतीजे भी सामने आ गये हैं. नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधान मन्त्री के रूप में पेश करने की मुहिम में मीडिया तन-मन से शामिल है. दूसरी ओर बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद जिस तरह का हंगामा हुआ, उसने बड़े-से-बड़े आतंकवादी से ज़्यादा आतंक पैदा करने का काम किया. ऐसा लगा जैसे कोई अद्वितीय देश-सेवक चला गया हो. यह तब जब चुनाव आयोग बाल ठाकरे के खिलाफ़ कार्रवाई कर चुका था. यह हंगामा अभी तक शान्त नहीं हुआ है. क्षेत्रीयतावाद और फ़िरकापरस्ती की अलमबरदार शिव सेना के लोग अब भी बम्बई के शिवाजी पार्क में डटे हुए हैं कि बाल ठाकरे की मूर्ति वहां लगायी जाये. पिछले दिनों प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ले कर जिस तरह मनमोहन सरकार ने विश्वास मत जीता है और उसमें विभिन्न राजनैतिक दलों ने नक़ली विरोध करने से ले कर फ़र्ज़ी वजहों से मतदान न करने तक जो और जिस क़िस्म की भूमिकाएं निभायीं, उन्हों ने यह साफ़ कर दिया कि सवाल देश की बुनियादी नीतियों का नहीं है, सवाल है कि जनता की लूट में कौन कितना हिस्सा पाता है, पा सकता है. देश गारत होता है तो हो, लोग मरते हैं तो मरें, संसद और प्रान्तीय असेम्बलियों में बैठे "जनता के नुमाइन्दे"अपना और लगे हाथ अपने कुनबे का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित कर लें, कारपोरेट घराने अपने ख़ज़ाने और भर लें और जनता को बस उतना मिले जितने से वह मरने से बची रहे.

इसमें सबसे घातक बात यह है कि जहां लुटेरों में एक ज़बरदस्त एकता नज़र आती है, वहीं उनका विरोध करने वालों में अभूतपूर्व बिखराव दिखायी देता है. कथित रूप से जन-पक्षधर वाम दल एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देख पाते. अगर एक मज़लूम समुदाय की ओर से कोई एक वाम दल आवाज़ बुलन्द करता है तो बाकी विचारधारा और रणनीति और तमाम दीगर और गैर ज़रूरी बतें उठा कर उस मुद्दे को भटका देते हैं. यह सिलसिला सब से प्रमुख रूप से छत्तीसगढ़ और दण्डकारण्य में देखने को मिला जहां मौजूदा सरकार द्वारा आदिवासियों के कत्ले-आम का विरोध करने के लिए आवाज़ उठाने वाले वाम-पक्ष को इसलिए समर्थन नहीं दिया गया क्योंकि प्रश्न "हिंसा"का था. यानी "सरकारी हिंसा हिंसा न भवति?"इस बिखराव का सबसे ज़्यादा फ़ायदा पूंजीवादी और सामन्ती शक्तियां उठाती रही हैं और आज भी उठा रही हैं.
यह भी गौर करने लायक है कि इस दौर में जहां एक ऊपरी चका-चौंध दिखती है, वहां ज़्यादातर लोग इस बात से ग़ाफ़िल हैं कि वे दरअसल अपने मौलिक अधिकारों से, जीवन के सुख से, रहन-सहन और रख-रखाव की सहूलतों और सुविधाओं से बेदखल हुए हैं. उन्हें व्यक्तिगत उन्नति और निजी बेहतरी की ऐसी दौड़ में हांक दिया गया है कि उन्हें कई बार रुक कर अपने समय और समाज पर सोचने का वक्त तक नहीं मिलता. मध्यवर्ग को लूट के कुछ टुकड़ो का हिस्सेदार बना कर बुनियादी परिवर्तनों के लिए संघर्ष करने से विमुल्ह करने का काम भी हमारी चालाक शोषकों ने किया है. इसे के साथ एक नया सर्वहारा वर्ग भी पैदा हुआ, लाखों-करोड़ों की तादाद में, जिसे विराट सरवहार समुदाय में शामिल करके गोलबन्द करने की ज़रूरत है. यह समुदाय उन टेक्नोक्रैट्स और सूचना तकनीक से जुडे लोगों का है जिन्हें पुरानी पद्धति में निम्न-पूंजीवादी वर्ग में रखा जाता था. हमें अब पुरानी खानेबन्दियों पर भी फिर से विचार करने की ज़रूरत है. अगर सर्वहारा की परिभाषा यह है कि वे लोग जिनके हाथ में उत्पादन के साधन नहीं हैं तो फिर हिन्दुस्तान जैसे देश में किताबी परिभाषाएं बदलनी पड़ेंगी और वर्गीय आधार पर लोगों को एकजुट करने के काम में नयी सूझ-बूझ अपनानी होगी.
फिर, हमारे यहां वर्ण-व्यवस्था जिस रूप में और जिस पेचीदगी के साथ जड़ें जमाये है और हर बुनियादी परिवर्तन के खिलाफ़ रुकावट का काम करती है, उसे भी समझना होगा और यह भी स्वीकार कर लेना होगा कि वर्ण-व्यवस्था की चंगुलों से निकल कर ही हमारा समाज इन्सानी बेहतरी की तरफ़ पहला कदम बढ़ा सकता है.   

इस पसमंज़र में जो बात सब से ज़्यादा खटकने वाली है वह हमारे बुद्धिजीवियों और समाज के दानिशवर और जागरूक तबके की खामोशी है. ज़रा याद कीजिये आज से बीस-पच्चीस साल पहले का समय जब किसी भी जन-विरोधी कार्रवाई के खिलाफ़ लेखक और दूसरे संस्कृतिकर्मी और सामान्य बुद्धिजीवी एकजुट हो जाते थे, बयान जारी करते थे, यहां तक कि धरनों-प्रदर्शनों में भी हिस्सेदारी करते थे. लेकिन आज बड़ी-से-बड़ी घटना पर भी किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती.  या तो लोग अपनी-अपनी दुनिया में मगन हैं या फिर बिखरे हुए हैं. हिन्दी पट्टी के साहित्यकारों ने लिखना बन्द कर दिया हो ऐसा नहीं है. पर वे अपनी जनता से इतने विमुख क्यों हैं ? सैकड़ों लोग या तो माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर या आतंकवाद के नाम पर जेलों में ठूंस दिये गये हैं, आदिवासियों के साथ ऐसा सुलूक हो रहा है जैसा सुलूक शायद बर्बर भी न करें, मगर लेखक समुदाय चुप है. लेखक, कलाकार, रंगकर्मी, संगीतकार, डौक्टर, इंजीनियर, वकील, सम्पादक, पत्रकार और दूसरे बुद्धिजीवी  मौन धारण किये हैं. आज से ठीक २९ वर्ष पहले दिसम्बर १९८३ में अपनी "आज की कविता"शीर्षक से लिखी गयी कविता में रघुवीर सहाय ने जो सवाल उठाया था, वह आज और भी तीखा बन गया है :

"यह दृष्टि सुन्दरापे की कैसे बनी कि हर वह चीज़ जो ख़बर देती है हो गयी ग़ैर ?     
क्यों कलाकार को नहीं दिखायी देती अब गन्दगी, ग़रीबी और ग़ुलामी से पैदा ?
आतंक कहां जा छिपा भाग कर जीवन से जो कविता की पीड़ा में अब दिख नहीं रहा ?
हत्यारों के क्या लेखक साझीदार हुए..." 

क्या सचमुच अब ऐसी स्थिति आ गयी है कि हमारे प्रमुख साहित्यकार और हर प्रकार के बुद्धिजीवी उस हलवे-मांडे में इस हद तक हिस्सेदार हो गये हैं जो सत्ता परोस रही है कि उन्हें सबसे प्रकट और दिल-दिमाग़ को विचलित करने वाली सच्चाइयां नज़र नहीं आतीं या आती भी हैं तो उद्वेलित नहीं करतीं. ऐसी संस्कृति और साहित्य से क्या फ़ायदा जो अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ न उठाये ? क्योंकि संस्कृति सिर्फ़ साहित्य, कला और नृत्य-संगीत ही नहीं है, वह इससे भी आगे बढ़ कर मनुष्य बनने की हुनरमन्दी है. हमारा देश अब एक विराट मृत्यु उपत्यका में बदल चुका है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. किसानों के इस देश में सबसे पहली बलि मौजूदा दौर के निज़ाम ने किसानों ही की ली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. लाखों किसान आत्महत्या करके भारत भूमि में जन्म लेने का टैक्स अदा कर चुके हैं. इनमें औरतें भी हैं जिन्हें किसानों में शुमार न कर के सरकार किसी और खाते में डाल देती है. तो भी आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या दिल दहलाने वाली है. लेकिन हमारे बुद्धिजीवी चुप हैं. 

आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे बुद्धिजीवी क्यों चुप हैं ?

ये सारे मसले सिर्फ़ राजनैतिक और आर्थिक कार्रवाई की मांग नहीं करते, बल्कि उससे भी पहले सांस्क्रुतिक और सामाजिक परिवर्तनों की मांग करते हैं. कई बार उपनिवेशवाद के खिलाफ़ लड़ाई राजनैतिक पहलकदमी की बजाय सांस्कृतिक पहलकदमी से हुई है. हमारे सामने अंगोला, गिनी बिसाउ और मोज़ाम्बीक के उदाहरण हैं जहां राजनैतिक परिवर्तनों की जोत उन लोगों ने जगयी जो अव्वलन कवि, साहित्यकार और बुद्धिजीवी थे -- औगस्टो नेटो, अमिलकर कब्राल और एदुआर्दो मोन्दलेन. हमें अगर पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और नव-उपनिवेशवाद से लड़ाई को तेज़ करना है तो हमें पुराने आज़माये गये औज़ारों को देख-परख कर उनकी छंटाई करते हुए संस्कृति के नये औज़ारों को भी गढ़ना होगा. यही आज हम बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की सबसे बड़ी चुनौती है. 

१६ दिसम्बर २०१२ 

Article 10

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हिचकी

किस्त : 8-9


आठ

नन्दू जी कुछ देर तक डिज़ाइन को हाथ में लिये अकबकाये-से खड़े रहे थे। उनकी नज़र लाल स्केच पेन से बनाये गये उस गहरे निशान पर गयी, जो हरिश्चन्द्र दत्त बड़थ्वाल के नाम में हुई प्रूफ़ की ग़लती के गिर्द परिवार नियोजन के लाल तिकोन की तरह बना हुआ था। 
‘जल्दी-जल्दी में प्रूफ़ की ग़लती रह गयी है,’ उन्होंने माफ़ी माँगने के अन्दाज़ में कहा था।
‘प्रूफ़ की ग़लती तो है ही,’ हरीश अग्रवाल के स्वर में नरमी के बावजूद नश्तर की-सी धार थी, ‘लेकिन यह चित्र भी रमा जी को बिलकुल पसन्द नहीं आया। क्या इससे बेहतर तस्वीर नहीं चुन सकते थे आप?’
‘चित्र तो बदला जा सकता है,’ नन्दू जी ने हरीश अग्रवाल को आश्वस्त किया था।
‘बाक़ी चित्र कहाँ हैं?’ हरीश अग्रवाल ने पूछा था।
‘अभी तो शमशाद के ही पास हैं। उसने कहा था कि वह दे जायेगा, पर लगता है, इधर कोई रिकॉर्डिंग रही होगी। पुस्तक मेले के बाद से नहीं आया।’
‘सारे चित्र उसे देने की क्या ज़रूरत थी ?’ हरीश अग्रवाल के स्वर में खीझ-भरा उलाहना था। ‘अब आप उसे कहिए, फ़ौरन सारे चित्र यहाँ दे जाये। फिर इस डिज़ाइन में प्रूफ़ की भूल ठीक करवा के कम्प्यूटर से इसका एक और प्रिंट निकलवा लीजिए, जिसमें चित्र की जगह ख़ाली हो। यह सारी सामग्री एक लिफ़ाफ़े में रख कर कल शाम तक हर हालत में रमा जी के मालवीय नगर के फ़्लैट में भिजवा दीजिए। वे परसों या नरसों दिल्ली आ रही हैं और यहीं बैठ कर तय करेंगी कि कौन-सा चित्र जाना है। मैं तीन दिन के लिए भोपाल जा रहा हूँ, बृहस्पत की सुबह तक आ जाऊँगा। मेरे आने से पहले रमा जी का फ़ोन आये तो आप जा कर उनसे कवर डिज़ाइन के बारे में समझ लीजिएगा।’
नन्दू जी सिर हिला कर मुड़े ही थे कि हरीश अग्रवाल ने कहा था - ‘बुध को रमा जी के घर फ़ोन करके पता कर लीजिएगा कि वे आयी हैं या नहीं। और जब आप उनसे मिलने जायें तो शमशाद को साथ मत ले जाइएगा। इस किताब में वैसे ही बार-बार अड़ंगे लगते रहे हैं। मैं इसे जल्दी-से-जल्दी छाप कर झंझट ख़त्म करना चाहता हूँ। बाक़ी काम बाद में होते रहेंगे।’
सोमवार का पूरा दिन नन्दू जी जगह-जगह फ़ोन करके शमशाद का पता लगाने की कोशिश करते रहे थे। आख़िरकार, शाम को पाँच बजे शमशाद उस स्टूडियो में उन्हें मिला था, जहाँ वह डिस्कवरी चैनल के लिए अनुवाद की गयी स्क्रिप्ट की रिकॉर्डिंग कराता था। फ़ोन पर आ कर उसने जल्दी-जल्दी नन्दू जी की बात सुनी थी और अगले दिन प्रकाशन संस्थान के कार्यालय में चित्रों के साथ आने का आश्वासन दे कर तत्काल फ़ोन रख दिया था। 
प्रकट ही, मंगलवार को वॉशिंग मशीन लेने की योजना नन्दू जी को मुल्तवी करनी पड़ी थी, लेकिन वे दोपहर बाद तक शमशाद का इन्तज़ार करते रहे थे और वह नहीं आया था। झल्ला कर वे फ़ोन उठा कर फिर से शमशाद के मिलने की सम्भावित जगहों के ठकठकाने ही वाले थे कि वह बड़े इत्मीनान से अपना हेल्मेट झुलाता हुआ सीढि़याँ चढ़ कर कार्यालय में दाख़िल हुआ था। मगर वह सीधे उनकी मेज़ पर नहीं आया था। पहले उसने रिसेप्शेनिस्ट रागिनी शर्मा से गप-शप की थी, फिर स्वामी का हाल-चाल लिया था और जब उनका धैर्य चुकने ही वाला था, वह आ कर उनके पास बैठा था।
‘मैं सुबह से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ,’ नन्दू जी की आवाज़ में झल्लाहट भी थी और अन्ततः शमशाद के आ जाने पर राहत भी।
‘देर हो गयी कॉमरेड,’ शमशाद ने बैग से तस्वीरों का लिफ़ाफ़ा निकालते हुए कहा था, ‘मैं थोड़ी देर को पार्टी ऑफ़िस चला गया था। उन्हें रैली के लिए एक बैनर देना था।’
‘अब चलो, जल्दी से डिज़ाइन ठीक करवा दो तो मैं यह सब मालवीय नगर भेज कर छुट्टी करूँ।’ नन्दू जी उठे थे।
‘सब हो जायेगा कॉमरेड,’ शमशाद ने लगभग खिझाने वाली निश्चिन्तता से कहा था, ‘पहले एक प्याला चाय तो पिलवाइए।’
झख मार कर नन्दू जी को चपरासी रामसेवक से ख़ास तौर पर अनुरोध करके चाय बनवानी पड़ी थी। चाय आने पर शमशाद ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला था। उसे मालूम था कि हरीश अग्रवाल ने कार्यालय में सिगरेट-बीड़ी न पीने के बारे में कड़ी हिदायतें दे रखी थीं, लेकिन उसका कहना था कि वह तो प्रकाशन संस्थान का मुलाज़िम था नहीं, और इसी तर्क के आधार पर वह नन्दू जी या स्वामी के पास बैठे-बैठे सिगरेट सुलगा लिया करता था। 
एक बार उसने हरीश अग्रवाल के कैबिन में भी ऐसा ही किया था और जब हरीश अग्रवाल ने मुलायमियत के साथ उसे टोका था तो वह यह कह कर सीढि़याँ उतर गया था कि सिगरेट अब सुलगा ही ली है तो उसे ख़त्म करके आता है, और आधे घण्टे के बाद वापस आया था। नन्दू जी और हरीश अग्रवाल मन-मारे बैठे उसका इन्तज़ार करते रहे थे। 
अगर अच्छे कवर डिज़ाइन बनाने वालों का इतना टोटा न होता तो हरीश अग्रवाल शमशाद को दोबारा न बुलाता, पर शमशाद के आवरण चित्र काफ़ी पसन्द किये गये थे; इसीलिए हरीश अग्रवाल चुप लगा गया था और इसके बाद शमशाद को अपने कैबिन में बुलाने की बजाय ख़ुद उठ कर नन्दू जी की मेज़ पर चला जाता।
सिगरेट ख़त्म करने के बाद शमशाद ने कम्प्यूटर कक्ष में जा कर आवरण पर नाम के हिज्जे ठीक करवाये थे और फिर चित्र की जगह ख़ाली छोड़ते हुए कवर डिज़ाइन का ताज़ा प्रिंट निकलवाया था। इस दौरान वह हरिश्चन्द्र दत्त बड़थ्वाल, कांग्रेस पार्टी, रमा जी, हरीश अग्रवाल और हेरम्ब त्रिपाठी को ले कर चुटकियाँ लेता रहा, जिससे नन्दू जी को भले ही अस्वस्ति का बोध होता रहा, लेकिन कम्प्यूटर-कक्ष में बैठे ऑपरेटरों का काफ़ी मनोरंजन हुआ था। 
यह सब करते-कराते साढ़े पाँच बज गये थे। प्रकाशन संस्थान में छै बजे छुट्टी हो जाती थी और जब हरीश अग्रवाल शहर में न होता तो चपरासी साढ़े पाँच-पौने छै बजे ही चल देते थे, इसलिए नन्दू जी के लाख मनुहार करने पर भी कोई चपरासी मालवीय नगर जाने को तैयार न हुआ था। हार कर नन्दू जी को स्कूटर पर बारह-तेरह किलोमीटर का फ़ासला तय करके मालवीय नगर जाना पड़ा था। 
उस दिन वॉशिंग मशीन लेना तो दूर रहा, उन्हें लक्ष्मी नगर लौटते-लौटते ही साढ़े आठ बज गये थे क्योंकि जमुना के पुल पर शाम को लौटने वालों की भीड़ के कारण जाम लगा हुआ था।


नौ

बुधवार को कई बार रमा जी के फ़्लैट पर फ़ोन मिलाने के बाद, लगभग बारह बजे एक महिला ने फ़ोन उठाया था और सूचना दी थी - ‘मैडम, बाई कार, लखनऊ से दिल्ली के लिए मूव कर चुकी हैं और शाम तक पहुँचने वाली हैं।’
लेकिन उस दिन उस मार्केट की साप्ताहिक बन्दी रहती थी जिसमें उनके परिचित दुकानदार का शो रूम था। सो, समय होते हुए भी नन्दू जी वॉशिंग मशीन नहीं ले पाये थे।
अगले दिन नन्दू जी पक्का इरादा करके दफ़्तर पहुँचे थे कि जैसे भी हो, वे उस दिन वॉशिंग मशीन ज़रूर ख़रीदेंगे। कारण यह भी था कि वॉशिंग मशीन के आसरे में बिन्दु ने तीन-चार दिन से कपड़े नहीं धोये थे और नन्दू जी एक बार ना करके दोबारा पुराने धोबी की सेवाएँ लेने के इच्छुक नहीं थे। 
दफ़्तर पहुँचते ही उन्होंने रमा जी के घर फ़ोन किया था। फ़ोन रमा जी ने ही उठाया था और नन्दू जी से कहा था कि रास्ते में कार ख़राब हो जाने की वजह से वे देर रात को दिल्ली पहुँची थीं और उस समय तत्काल अकबर रोड जा रही थीं जहाँ कांग्रेस पार्टी का दफ़्तर था।
‘मुझे एक ज़रूरी बैठक में भाग लेना है,’ उन्होंने कहा था, ‘वहीं से मैं आपके ऑफ़िस आऊँगी। मैंने पूज्य पिता जी के तीन चित्र छाँटे हैं। इन्हें मैं अपने आदमी के हाथ, आवरण के सादे प्रिंट के साथ आपको भिजवा रही हूँ। नाम की ग़लती तो ठीक हो गयी है। आप इन तीनों चित्रों को ख़ाली जगह में सेट करवा के कम्प्यूटर से तीन अलग-अलग प्रिंट निकलवा लीजिए। मैं वहीं आपके दफ़्तर में बैठ कर इनमें से एक फ़ाइनल कर दूँगी। अरे हाँ,’ उन्होंने आगे जोड़ा था, ‘एक बात और। कवर पर तस्वीर तो ब्लैक ऐण्ड वाइट ही जायेगी, क्योंकि फ़ोटो मैंने वैसे ही चुने हैं, मगर हर कवर का प्रिंट आप अलग-अलग रंग में निकलवाइएगा। चुनाव में आसानी रहेगी।’
लगभग एक ही साँस में यह सब कह कर बिना दूसरी तरफ़ से हाँ-ना सुने, श्रीमती रमा बड़थ्वाल पन्त ने फ़ोन रख दिया था। नन्दू जी के पास रमा जी के आदमी का इन्तज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। बारह बजे के आस-पास जब हरीश अग्रवाल हवाई अड्डे से सीधा प्रकाशन संस्थान के कार्यालय पहुँचा था तो नन्दू जी ने उसे तब तक की घटनाओं के बारे में सिलसिलेवार ढंग से बताया था।
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हरीश अग्रवाल बहुत अच्छे मूड में था। उसने भोपाल में किताबों की सरकारी ख़रीद का एक अच्छा-ख़ासा ऑर्डर हासिल किया था और उसी सुबह फ़ाइल पर अधिकारी के हस्ताक्षर करवाने के बाद वहाँ से रवाना हुआ था। ख़ुशी के इसी आलम में उसने नन्दू जी को मुस्तैद रहने की अहमियत पर एक संक्षिप्त-सा प्रवचन दिया था और तब तक डटे रहने का आग्रह किया था, जब तक वे रमा जी से कवर डिज़ाइन मंज़ूर नहीं करा लेते। 
यह हिदायत दे कर हरीश अग्रवाल खाना खाने अपने घर चला गया था, जो पास ही में अजमेरी गेट के पीछे बाज़ार सीताराम में व्यवसायियों के पुराने मुहल्ले में था और जहाँ से निकल कर वह पटपड़गंज के एक बड़े फ़्लैट में जाने का इरादा बाँध रहा था। जाते-जाते वह रागिनी शर्मा से कह गया था कि जैसे ही रमा जी आयें, वह उसे घर पर फ़ोन कर दे, वह फ़ौरन आ जायेगा।
नन्दू जी तीन बजे तक इन्तज़ार करते रहे, लेकिन न तो रमा जी की कोई सुन-गुन मिली, न उनके भेजे आदमी की। इसी चक्कर में नन्दू जी खाना भी नहीं खा पाये। आख़िरकार, तीन बजे वे अपना टिफ़िन उठा कर पास के एक ढाबे में चले गये, जहाँ वे रोज़ घर से लाया खाना गरम करवा के खाते थे।  सीढि़याँ  उतरने से पहले वे भी रागिनी को ताक़ीद करना नहीं भूले कि अगर रमा जी उनके लौटने से पहले आ जायें तो चपरासी भेज कर उन्हें ढाबे से बुलवा लिया जाये।
जब वे आध-पौन घण्टे बाद खाना खा कर प्रकाशन संस्थान के दफ़्तर पहुँचे थे तो सूरत-शक्ल से छोटे शहर या क़स्बे का राजनीतिक कार्यकर्ता नज़र आने वाला एक साँवला-सा आदमी उनकी मेज़ के सामने कुर्सी पर एक पाँव चढ़ाये, इतमीनान से बैठा सुर्ती मल रहा था। उसने कुर्ते-पाजामे पर सदरी पहन रखी थी और पाँवों में किरमिच के भूरे जूते। नन्दू जी के पूछने पर उसने बताया था कि उसे रमा जी ने भेजा है।
‘रमा जी भी तो आने वाली थीं,’ नन्दू जी ने सवालिया अन्दाज़ में कहा था।
‘मैडम बहुत थक गयी रहीं, इसलिए मिटिन के बाद घर चली गयीं,’ उस व्यक्ति ने कहा था, ‘संझा को उन्हें पार्टी अध्यक्ष के यहाँ चाय पर जाना है। इसलिए हमसे बोली हैं कि आदरणीय बाबू जी वाली किताब का डिजैन ले जाओ, तीन गो फोटो के साथ और बनवा कर घरवा पर लेते आओ, रात को पसन्न कर लेंगे। मैडम कल हियाँ आने का कही हैं।’
नन्दू जी ने उस व्यक्ति से लिफ़ाफ़ा ले कर डिज़ाइन और चित्र देखे थे। तीनों चित्र उसी प्रकार के थे, जैसे घाघ कांग्रेसी नेता और बाद में उन्हीं के अनुकरण में अन्य दलों के नेता भी अख़बारों, अभिनन्दन ग्रन्थों और स्मारिकाओं में छपाते आये थे। नन्दू जी डिज़ाइन और चित्र ले कर कम्प्यूटर-कक्ष की ओर चलने वाले थे कि उस व्यक्ति ने उन्हें हाथ के इशारे से रोक लिया था।
‘क्यों बाबू साहेब, आपके कार्यालय में चाय की कौनो व्यवस्था नाहीं है क्या ? सुबह से बस में धक्का खाय रहे हैं। पार्टी आफ़िस से मालवी नगर, मालवी नगर से पार्टी आफ़िस। हुआँ से यहाँ। साथ में कुछ मठरी-ओठरी भी मिल जाती तो दम में दम आता।’ उसने फ़रमाइश की थी।
नन्दू जी ने चपरासी को बुला कर कहा था कि वह पास की चाय की दुकान से एक चाय और दो मठरी ला कर उस व्यक्ति को दे दे, पैसे एकाउण्टेण्ट से ले ले। उस व्यक्ति ने ठोंकी गयी सुर्ती को फ़ौरन एक काग़ज़ में पुडि़या बाँध कर अपनी सदरी की जेब में रख लिया और चाय की प्रतीक्षा में आराम से पसर गया था।
साढ़े पाँच बजे जब नन्दू जी उस व्यक्ति को विदा करके मुक्त हुए तो वे बुरी तरह चट चुके थे। जितनी देर में कम्प्यूटर पर डिज़ाइन बनाने वाले ऑपरेटर ने बड़थ्वाल जी वाली पुस्तक के आवरण चित्र के तीन प्रारूप तैयार किये थे, रमा जी द्वारा भेजा गया वह आदमी नन्दू जी को अपने बारे में बताता रहा - कि वह यानी रामसुजित केसरवानी, कुण्डा हरनामगंज में कांग्रेस कमेटी का ‘बिलाक सिकेटरी’ है, रमा जी के कई कार्यक्रम वहाँ आयोजित करा चुका है; माननीय बाबू जी की उस पर ‘बिसेस किरपा’ रही; वे ही उसे राजनीति में लाये थे; उसने भी उनका साथ नहीं छोड़ा; जब वे ‘पावर’ में नहीं रहे, तब भी नहीं; माननीय बाबू जी ने उसे सरकारी गल्ले की दुकान दिलवा दी थी; उसी से घर-परिवार चलता है और वह समाज सेवा कर पाता है, आदि, आदि। 
नन्दू जी मन-ही-मन उस टुटपुँजिये कांग्रेसी कार्यकर्ता की लनतरानियों पर खीझते हुए बेमन से अपने सामने रखे प्रूफ़ पढ़ते रहे थे। वे चाहते थे कि उन्हें बड़थ्वाल जी, उनकी सुयोग्य बेटी रमा और इस रमा-सेवक के जंजाल से छुट्टी मिले तो वे फ़ौरन जा कर वॉशिंग मशीन लदवा कर घर पहुँचें। अगले दिन पार्टी की रैली थी, जिसमें न जा कर वे अपने पुराने साथियों के बीच नक्कू नहीं बनना चाहते थे। और उसके बाद शनिवार था। 
पार्टी साहित्य में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के बारे में प्रकाशित अनगिनत लेख पढ़ने के बावजूद नन्दू जी बचपन ही मन में बिठायी गयी कुछ धारणाओं और विश्वासों से मुक्त नहीं हो पाये थे। वे अब भी शनिवार को बाल कटवाने या शेव करने से बचते थे। और मशीन या लोहे का कोई सामान ख़रीदना अशुभ मानते थे।
लेकिन नन्दू जी न तो उस दिन वॉशिंग मशीन ख़रीद पाये, न अगले दिन रैली में शिरकत कर सके। अभी रमा जी का आदमी रवाना हुआ ही था और नन्दू जी अपना बैग, हेल्मेट और टिफ़िन का डिब्बा सहेज ही रहे थे कि हरीश अग्रवाल दफ़्तर पहुँचा था। उसने उन्हें अपने कैबिन में बुलवा भेजा था और देर तक उनके साथ बैठा भोपाल वाले ऑर्डर की किताबें छपवाने के सिलसिले में हिदायतें देता रहा था। आख़िरकार, सात बजे के क़रीब, नन्दू जी चलने को हुए तो हरीश अग्रवाल ने उनसे कहा था कि अगले दिन वे दफ़्तर न आ कर घर से नॉएडा, चले जायें, जहाँ वह प्रेस था जिसमें इस प्रकाशन संस्थान की किताबें छपती थीं।
‘पुस्तकों के नाम मैंने आपको लिखा ही दिये हैं,’ उसने कहा था, ‘बड़ी किताबें पाँच-पाँच सौ और बाल-साहित्य तीन-तीन हज़ार छपेगा। आप सारी पुस्तकों के निगेटिव निकलवा कर सावधानी से लाइन-अप कर दीजिएगा। कवर की छपाई साथ-साथ होगी। रमा जी आयेंगी तो मैं उनसे समझ लूँगा।’ फिर उसने आगे जोड़ा था कि समय हो तो दफ़्तर आयें, वरना उधर ही से घर चले जायें। बस, प्रेस से चलते समय उसे फ़ोन कर दें।
नन्दू जी जब सीढि़याँ उतर कर बाहर गली में आये तो उनका दिमाग़ भन्नाया हुआ था। ऐसे वक़्तों पर उन्हें बड़ी शिद्दत से अपने अख़बारी दिनों की याद आती थी, जब सारी भाग-दौड़ के बाद भी वे अपने समय को किसी हद तक मन-मर्ज़ी ख़र्च कर सकते थे। 
उन्हें याद आया कि शादी-शुदा ज़िन्दगी के शुरुआती दिनों में एक बार जब बिन्दु ने शाहरुख़ ख़ान की नयी फ़िल्म देखने के लिए हठ बाँध लिया था तो उन्होंने पी.सी.ओ. से फ़ोन करके अख़बार के उप-सम्पादक से बहाना बना दिया था। इसी तरह जिस दिन उन्हें फ़्रिज ख़रीदना था, वे उप-सम्पादक से कह कर ड्यूटी के बीच ही में चले गये थे और साथ में फ़रहान अख़्तर को भी ले गये थे, क्योंकि दुकानदार उसी का परिचित था। 
अब, हालाँकि उन्हें अख़बार की नौकरी की तुलना में दुगना वेतन मिलता था और ज़िन्दगी में भी वैसा उतार-चढ़ाव नहीं रहा था, कई बार उन्हें तीखी घुटन का एहसास होता। मगर नन्दू जी ने पार्टी में और कुछ भले ही सीखा था या नहीं, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति में भी उम्मीद का दामन थामे रखना ज़रूर सीख लिया था। वे भीषण आशावादी थे और इसीलिए आई.टी.ओ. का पुल पार करते-करते फिर से सहज हो गये थे। 
उन्होंने तय किया था कि अगले दिन वे जल्दी तैयार हो जायेंगे और पहले वॉशिंग मशीन ख़रीद कर घर पहुँचा देंगे, उसके बाद नॉएडा जायेंगे। सम्भव हुआ तो दो घण्टे में प्रेस के काम से मुक्त हो कर कहीं बीच ही से रैली में चेहरा भी दिखा आयेंगे। उन्हें लम्बे तजरुबे से मालूम था कि अगर रैली का समय बारह बजे का दिया गया हो तो वह दो-ढाई से पहले नहीं शुरू होती। 
इस निश्चय पर पहुँच कर उन्होंने रास्ते में एक पी¤ सी¤  ओ पर रुक कर अपने परिचित दुकानदार को फ़ोन किया था कि वे अगले दिन ठीक साढ़े दस बजे उसके शो-रूम पर पहुँचेंगे, वह वॉशिंग मशीन के काग़ज़ तैयार कर रखे।


Article 16

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चट्टानी जीवन का संगीत 

जैज़ पर एक लम्बे आलेख की तीसरी कड़ी


2

जैज़ में बेक़रारी है, वह बेचैन है, थिर नहीं रहता 
और कभी रहेगा भी नहीं 
-- जे.जे.जौनसन, ट्रौम्बोन वादक


जैज़ के स्रोत भले ही तीन-चार सौ साल पहले अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर लाये गये लोगों के गाने-बजाने में खोये हुए हों, उसे अपना रूप लिये भी सौ साल से ज़्यादा हो चले हैं और किसी विशाल बरगद की तरह उसकी डालें और टहनियां और जड़ें इतनी अलग-अलग सूरतें अख़्तियार कर चुकी हैं कि उसकी परिभाषा देना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. मज़े की बात तो यह है कि आज अपनी एक ख़ास जगह हासिल करने और कई मानी में लगभग शास्त्र के दर्जे तक पहुंचने के बावजूद इस बात पर भारी-भरकम बहसें चलती रही हैं कि यह शब्द आया कहां से और संगीत की इस शैली पर लागू कैसे हुआ. शुरू-शुरू में इसे जैज़ कहा भी नहीं जाता था. बल्कि अमरीका के पश्चिमी तट के इलाक़ों में इस शब्द का इस्तेमाल बहुत करके खेलों के सिलसिले में होता था और इसके बहुत-से अर्थों में संगीत की तो कोई जगह भी नहीं थी. यह तो १९१५ के आस-पास हुआ कि संगीत समीक्षकों ने इसे "जैज़"कहना शुरू किया. जानकारों ने इसके ढेरों स्रोत खोज निकाले हैं, पर सब इस बात पर सहमत हैं कि जड़ इस शब्द की कहीं उतरी हुई हो, इस संगीत में चुस्ती-फुर्ती और दम-ख़म लामुहाला तौर पर मौजूद रहता है. ऐसी सिफ़त जो सुनने वाले को थिरकने पर मजबूर कर दे और जोश से भर दे.
जैज़ के सिलसिले में बहस सिर्फ़ उसके नाम को ले कर ही नहीं चली, बल्कि इस बात को भी ले कर चली कि इस संगीत की परिभाषा क्या होगी. तमाम तरह की कोशिशें की गयी हैं. कभी उसे पश्चिमी संगीत-परम्परा के सन्दर्भ में परिभाषित करने का प्रयास हुआ है तो कभी अफ़्रीकी परम्परा के सन्दर्भ में. मगर सभी समीक्षकों को ये कोशिशें सन्तोषजनक नहीं लगीं. ऐसी हालत में इस समस्या को एक अलग नज़रिये से सुलझाने की कोशिश की गयी, कहा गया कि यह संगीत का ऐसा कला-रूप है जो अमरीका में अफ़्रीकी मूल के लोगों और यूरोपीय संगीत के सम्पर्क और टकराव से पैदा हुआ. इस टकराव के नतीजे के तौर पर संगीत के सारे तत्वों में तब्दीली आयी और इन दोनों समृद्ध परम्पराओं के मेल से तीसरी और उतनी ही समृद्ध परम्परा पैदा हुई और परवान चढ़ी. महज़ लय, ताल और सुरों की अदायगी ही नहीं बदली, बल्कि संगीत की इस नयी शैली में स्वत:स्फूर्त प्रयास, आशु रचना, तात्कालिक प्रेरणा, जोश और गायक-वादक की व्यक्तिगत प्रकृति का योगदान महत्वपूर्ण हो उठा; साथ ही महत्वपूर्ण हो उठी हर संगीतकार-विशेष की अपनी ख़ास अदा और उस अदा के चलते धुन या राग में प्रयोगशीलता.
पश्चिमी शास्त्रीय संगीत "लिखा जाता"है. संगीत की रचना के बाद उसकी स्वर-लिपि तैयार की जाती है और रचनाकार के अलावा आगे आने आने वाले गायक और वादक उसे उसकी तैयार-शुदा स्वर-लिपि के अनुसार ही गाते-बजाते हैं. जैसा कि ड्यूक एलिंग्टन के मित्र पियानोवादक अर्ल हाइन्स ने एक बार बताया था -- "...जब मैं शास्त्रीय संगीत बजा रहा था, मैं जो पढ़ रहा था, उस से अलग हटने की हिम्मत नहीं कर सकता था. अगर आपने ध्यान दिया हो सिम्फ़नी बजाने वाले वे सारे संगीतकार उन शास्त्रीय धुनों को बरसों से बजाते आ रहे हैं, लेकिन वे एक सुर की भी तब्दीली नहीं करेंगे, हर बार उन्हें लिखा हुआ संगीत, यानी उसकी स्वर-लिपि दरकार होती है. यही वजह है कि कुछ शास्त्रीय संगीतकारों के लिए जैज़ की अदायगी इतनी मुश्किल होती है." 
अर्ल हाइन्स जिस बात की तरफ़ इशारा कर रहे थे, उसका ताल्लुक़ किसी समूची रचना की अदायगी से था. जैज़ का दक्ष कलाकार किसी धुन या राग को बिलकुल अपने निजी तरीक़े से अदा करेगा, ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि वह उसी रचना को दूसरी या तीसरी बार बजाते हुए हू-ब-हू पहली बार की तरह न बजाये. सब कुछ कलाकार की अपनी क्षमता, मूड, व्यक्तिगत अनुभव, साथी संगीतकारों की यहां तक कि श्रोताओं की संगत पर निर्भर करता है. और इसका ताल्लुक सिर्फ़ कौशल से नहीं है -- कि उस रोज़ कलाकार अपने "फ़ार्म"पर था या नहीं. कलाकार धुनों, स्वरों के क्रम या लय-ताल को मनमर्ज़ी से बदल सकता है. यूरोपीय शास्त्रीय संगीत बहुत हद तक रचनाकार का माध्यम कहा जाता है, जबकि दूसरी तरफ़ जैज़ की विशेषता ही यह है कि वह सहयोगी सामूहिक प्रयास है -- संगीतकारों की सामूहिक रचनात्मकता, आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया और सहयोग पर टिका रहता है. यह प्रयास रचनाकार -- यानी धुन या राग का रचयिता (अगर कोई है ) -- और गायक-वादक के योगदान को बराबर से महत्व देता है. मिसाल के लिए यूरोपीय शास्त्रीय संगीत की कोई रचना, बीठोफ़न की नवीं सिम्फ़नी ही लीजिए, जब किसी वादक द्वारा पेश की जायेगी तो वह उसे ठीक-ठीक वैसे ही पेश करेगा, जैसे बीठोफ़न ने उसे "लिखा है"यानी रचा है; वह उसके एक भी सुर को इधर-उधर नहीं कर सकता. मगर जैज़ में ऐसी बन्दिश नहीं है. वही धुन अलग-अलग गायकों और वादकों की अदायगी में एक नया ही रूप ले सकती है. अब तो रिकौर्डिंग की सुविधा के चलते दो अलग-अलग अदायगियों के अन्तर को लक्षित करना सम्भव हो गया है भले ही वे एक ही कलाकार ने पेश की हों या भिन्न कलाकारों ने; मगर जब यह सुविधा नहीं थी तो अभिनय की तरह जैज़ भी कलात्मक अभिव्यक्ति का बेहद लचीला माध्यम था. अब यही देखिये कि ड्यूक एलिंग्टन की एक रचना "इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड"को अलग-अलग गायकों और वादकों ने अपने-अपने ख़ास तरीक़े से पेश किया है, जो सिर्फ़ सुन कर ही जाना जा सकता है. 
http://youtu.be/sCQfTNOC5aE (ड्यूक एलिंग्टन और जौन कोल्ट्रेन)

http://youtu.be/1gOij0El_IY(एला फ़िट्ज़जेरल्ड)

http://youtu.be/E_sshOaBqnM (जैंगो राइनहार्ट)

http://youtu.be/qtfLmj-fgsA (सारा वौहन)

http://youtu.be/i2qJuQuDMf8 (जेसिका विलियम्स)

"इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड"को ड्यूक एलिंग्टन ने १९३५ में डरहम (उत्तरी कैरोलाइना) में रचा था और इसके बोल जैसा कि उन दिनों का रिवाज था, मैनी कुर्ट्ज़ ने तैयार किये थे. जैज़ की कोई रचना कितनी आशु-रचित हो सकती है, "इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड"इसका बहुत ही मुनासिब उदाहरण है और ख़ुद ड्यूक एलिंग्टन ने इसकी रचना का दिलचस्प क़िस्सा बयान किया है -- "हम ने तम्बाकू के एक बड़े-से गोदाम में आयोजित नृत्य कार्यक्रम में अपने बैण्ड के साथ संगत की थी और कार्यक्रम के बाद उत्तरी कैरोलाइना म्युचुअल इन्श्योरेन्स कम्पनी के एक बड़े अधिकारी ने जो मेरे मित्र भी थे, एक जलसे का बन्दोबस्त किया. मैं वहां पियानो बजा रहा था जब पार्टी में मौजूद दो लड़कियों के साथ हमारे एक और दोस्त का कुछ झगड़ा-सा हो गया. उन्हें शान्त करने के लिए मैंने दोनों लड़कियों को पियानो के दो सिरों पर खड़े रहने के लिए कह कर यह धुन उसी वक़्त वहीं-के-वहीं तैयार की."
"इन अ सेण्टिमेण्ट्ल मूड"को न सिर्फ़ ढेरों जैज़ वादकों ने अपनी-अपनी निजी शैली में पेश किया है, बल्कि कई फ़िल्मों में इस्तेमाल भी किया गया है.
ज़ाहिर है, जो कला-रूप, या हालिया शब्दावली में कहा जाये तो जो रूपंकर-कला, इतनी लचीली हो, उसे ले कर विवाद तो उठेंगे ही और जैज़ शुरू ही से विवादों का अखाड़ा बना रहा है. क्या जैज़ है, क्या नहीं -- इसके बारे में संगीतकारों से ले कर समीक्षकों के बीच गरमा-गरम बहसें चलती रही हैं और अब भी जारी हैं. अब यही देखिये कि कुछ समीक्षक ड्यूक एलिंग्टन की रचनाओं को ही ख़ारिज करते रहे हैं कि ये कुछ भी हों, जैज़ नहीं हैं, और इसके पीछे वे अपने-अपने कारण और तर्क देते रहे हैं; जबकि ड्यूक के साथी अर्ल हाइन्स ने ड्यूक की संगीत रचनाओं की जो बीस एकल प्रस्तुतियां पियानो पर पेश कीं उन्हें कई समीक्षकों ने जैज़ की बेहतरीन मिसालें क़रार दिया. मसला दर असल यह है कि बहुत-से लोग यह नज़रन्दाज़ कर देते हैं कि जैज़ में दूसरे संगीत रूपों और शैलियों से प्रभाव लेने और उन प्रभावों को अपनी प्रकृति में ढाल लेने की अद्भुत क्षमता है और यही जैज़ की ख़ूबी है, यानी जिसका लुब्बे-लुआब ड्यूक एलिंग्टन यह कह कर पेश करते हैं कि "वह सारा संगीतही तो है." 
इसीलिए जैज़ के सिलसिले में एक बात पर शायद सभी विशेषज्ञ सहमत हैं कि वह आज भी ‘शास्त्र’ की बजाय ‘करत विद्या’ है। इसी वजह से उसका रूप गायकों और वादकों के बीच विचारों के रचनात्मक लेन-देन से निर्मित हुआ है। किसी धुन को बजाते समय जैज़ मण्डली के किसी सदस्य के मन में कोई ख़याल आयेगा -- हो सकता है कि यह ख़याल पूरा ख़याल भी न हो, बल्कि वह एक ख़ाका  भर हो सकता है और दूसरा सदस्य उसे उठा कर विस्तार देते हुए अगले वादक के हवाले कर देगा और यूँ मूल धुन की बुनियाद पर पच्चीकारी होती चली जायेगी। इसी तरह किसी मण्डली या रिकॉर्ड को सुनते समय, हो सकता है, किसी संगीतकार को कोई विचार सूझे और वह अपने दल के साथ मिल कर उस विचार को विस्तार देने की कोशिश करे। जैज़ के विचार इसी तरह अक्सर संगीतकारों और मण्डलियों के बीच फैलते चले जाते हैं और जैज़ को एक निरन्तर बहती नदी का रूप दे देते हैं। इस सदी के शुरू से ले कर अब तक के अर्से में जैज़ का विकास इतनी तेज़ी से हुआ है कि जो लोग उसके बहुत नज़दीक हैं, उन्हें भी वह एक रहस्य-भरा संगीत जान पड़ता है। ऐसा संगीत, जिसे बजाना शुरू करते समय कोई नहीं कह सकता -- उसके वादक भी नहीं -- कि उसका तैयार रूप, उसकी अन्तिम अदायगी, क्या होगी। इस लिहाज़ से जैज़ बहुत हद तक शुरू से आख़िर तक ’इम्प्रोवाइज़ेशन’ की, ’आशु रचना’ की कला है।

(जारी)

Article 15

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चट्टानी जीवन का संगीत 

जैज़ पर एक लम्बे आलेख की चौथी कड़ी


३.
...जैज़ हमारी जीवन शैली की देन है और चूंकि वह हमारा राष्ट्रीय कला-रूप है,
 वह हमे यह जानने में मदद करता है कि हम कौन हैं क्या हैं. 
--विण्टन मार्सेलिस

जैज़ की शुरुआत गायकी से हुई है। उसके स्रोत उस नीग्रो लोक गायकी में डूबे हुए हैं, जो किसी ज़माने में अमरीका के दक्षिणी देहातों में ख़ूब फली-फूली थी। उस समय नीग्रो लोगों के लिए -- जिनके पास किसी तरह के साज़ नहीं थे और गाने के साथ देने के लिए बस डिब्बे या पीपे ही थे -- आवाज़ ही संगीत की अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन था। इसीलिए काम और आराम, आशा और निराशा की अभिव्यक्ति लगभग हर वर्ग के नीग्रो समुदाय से उभर कर आती -- खोंचे उठाये, घूम-घूम कर सामान बेचने वालों से ले कर रेल की पटरियाँ बिछाते मज़दूरों की टोलियों तक और खेत पर काम करते बँधुआ किसान से ले कर शाम को अपनी-अपनी झुग्गियों के सामने बैठे, गा-बजा कर थकान मिटाते नीग्रो परिवारों तक -- संगीत ही वह सूत्र था, जो उन्हें बाँधे रखता। इसमें पहली सुविधा यह थी कि बहुत थोड़े साज़ों से काम चल जाता. एक गिटार या माउथ ऑर्गन ही काफ़ी होता -और दूसरी सुविधा यह थी कि ये गीत नीग्रो समुदाय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से वाबस्ता थे, उसके सुख-दुख, कष्ट और कठिनाई, सपनों और आकांक्षाओं को उसी की भाषा में व्यक्त करते थे। इसीलिए नीग्रो समुदाय इन गीतों के साथ सहज रूप से तादात्म्य स्थापित कर सकता था और गहरे सन्तोष के साथ उसे महसूस कर सकता था। अवसाद और उदासी, श्रम और श्रम से होने वाली थकान को व्यक्त करने वाले इन गीतों को मोटे तौर पर नाम दिया गया -- ब्लूज़ यानी उदासी के गीत। कारण शायद यह है कि अंग्रेज़ी में नीला रंग उदासी के साथ जुड़ गया है और बोल-चाल में भी ‘ब्लूज़’ का मतलब है उदासी।
मगर ब्लूज़ से भी पहले अक्सर ये अफ़्रीकी मूल के अमरीकी लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए संगीत का सहारा लेते और काम के वक्त लगायी जाने वाली पुकारों को लय ताल में बांध कर उस हाड़-तोड़ श्रम को हलका करने की कोशिश करते जो उन्हें खेत-खलिहानों में या सड़कें बनाते या लकड़ी काटते समय करना पड़ता.

http://youtu.be/Oms6o8m4axg?list=PL9z1NWJyyII1cpOzleTV5v-jlBFHW9IVC (टेक्सास की जेल में कैदी-मज़दूरों का गीत)
http://youtu.be/fjv0MYIFYsg (श्रम-शिविर का गीत)
http://youtu.be/4G5KtQynWvc (कैदियों का गीत)
http://youtu.be/9ch5IWTavUc (Work Song)

अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर लाये गये लोगों के साथ उनकी लय-ताल भी आयी. इनमें तीन तरह की तालें ज़्यादा प्रचलित थीं -- ट्रेसियो, सिन्क्वियो और हाबानेरा -- 

http://youtu.be/YyyYW3bzzbQ (ट्रेसियो, सिन्क्वियो और हाबानेरा )

ग़ुलामी की तकलीफ़ें और आत्मा तक को निचोड़ लेने वाली मेहनत और ऊपर से बदसलूकी -- अमरीका के हब्शी ग़ुलाम के पास इस सब से पार पाने का एक ही रास्ता उस वक़्त था और वह था संगीत, जिसके लिए वह अपने अन्दर युगों-युगों से रची-बसी लय-ताल का सहारा लेता. इसी सब से जैज़ की पहली-पहली आहट उन गीतों में सुनायी दी जिन्हें ब्लूज़ का नाम दिया गया.
ब्लूज़, दरअसल गायक की भावनाओं से सीधे उपजने वाला संगीतात्मक बयान था, जो इन भावनाओं को पूरे खुलेपन के साथ व्यक्त करता। उसमें ज़िन्दगी की वास्तविकता को उघाड़ने की अद्भुत क्षमता थी। लिहाज़ा ब्लूज़ के माध्यम से अपने दुख-सुख को व्यक्त करना और जीवन और प्रेम के बारे में अपने सामान्य रवैये को वाणी देना नीग्रो समुदाय की ज़िन्दगी का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। और अधिक विकसित होने पर ब्लूज़ का स्वर बुनियादी तौर पर उल्लास और बड़बोलेपन से रंजित रहा, बहुत बार उसमें भावुकता भी नज़र आती है। मगर पीड़ा का एक तार हमेशा उसमें दौड़ता रहता है. संगीत के इसी रूप, इसी विधा ने उस ज़माने में नीग्रो समुदाय के लोक-गीत और लोक-संगीत की भूमिका अदा की। मगर ब्लूज़ की सूरत अख़्तियार करने से पहले जैज़ ने कई मंज़िलें तय की थीं.
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अमरीका में ग़ुलामी की शुरुआत उसके विशाल दक्षिणी हिस्से के खेतों के लिए सस्ते मज़दूरों की फ़ौज तैयार करने के मकसद से हुई थी.  बात यह थी कि "नयी दुनिया"की खोज ने यूरोप को आलू के साथ-साथ तम्बाकू से भी परिचित कराया था और अट्ठारहवीं सदी के आरम्भ तक अमरीका में बहुत बड़े-बड़े इलाक़े जोत में लिये जा चुके थे. अमरीका के दक्षिणी हिस्से में बड़े पैमाने पर तम्बाकू की खेती होने लगी थी, जिसे निर्यात किया जाता था. ज़ाहिर था कि इतने बड़े पैमाने पर खेती के लिए खेत मजूरों की ज़रूरत थी और ग़ुलामों से अधिक सस्ता और पूरी तरह काबू में रहने वाला खेत-मज़दूर और कहां मिलता. सो तम्बाकू की खेती ग़ुलाम व्यापार की नींव थी. आगे चल कर जब ज़रूरत से ज़्यादा तम्बाकू पैदा करने से खेतों की ताकत कम होने लगी तो डर पैदा हुआ कि इतनी बड़ी श्रम शक्ति का क्या होगा. लेकिन तभी उत्तरी अमरीका में रहने वाले एलाइ विटनी ने १७९२ में एक मशीन ईजाद करके कपास से बिनौले अलग करने का आसान तरीक़ा खोज निकाला. पहले हाथ से काम करने पर एक नीग्रो मज़दूर को आधा सेर रुई तैयार करने में दस घण्टे लगते थे. "कौटन जिन"की मदद से  वही मज़दूर एक म्दिन में ५०० सेर रुई तैयार कर लेता. साल भर में अमरीका लगभग दस लाख टन रुई इंग्लैण्ड और यूरोप की कपड़ा मिलों को भेजने लगा. कपास की बादशाहत ने थमते हुए ग़ुलामों के व्यापार में नये प्राण फूंक दिये.  
सन १८०८ तक यानी उन्नीसवीं सदी के शुरू होते-होते अतलान्तिक महासागर के आर-पार होने वाले ग़ुलामों के व्यापार के चलते लगभग पांच लाख अफ़्रीकी अमरीका लाये जा चुके थे. ये ग़ुलाम मुख्य रूप से अफ़्रीका के पश्चिमी हिस्से और कौंगो नदी की घाटी के इलाक़े से लाये गये थे. वे अपने साथ अपने प्राणों के साथ सिर्फ़ अपना जातीय ज्ञान, रीति-रिवाज और परम्पराएं ही ला सके थे जिनमें गीत और संगीत की परम्पराएं भी शामिल थीं. ज़ाहिर है कि अपने साथ अपने वाद्य-यन्त्र लाना उनके लिए सम्भव नहीं था. लेकिन लय-ताल और सुरों का जो ख़ास अफ़्रीकी ढंग था -- और यह भी कोई एक-सा न हो कर, अलग-अलग इलाक़ों से आने वाले लोगों के सिलसिले में अलग-अलग था -- उसे वे अपने साथ ले आये थे और यह यूरोपीय संगीत से बिलकुल भिन्न था. लय-ताल और सुरों का यह तरीक़ा बहुत हद तक अफ़्रीकी बोलने के तरीक़े पर आधारित था लय का छन्द-विधान यूरोपीय छन्द-विधान से अलग था. अफ़्रीकी परम्परागत संगीत एक पंक्ति की स्वर-संरचना का इस्तेमाल करती थी और इसमें पुकार और जवाब के एक सिलसिले पर संगीत आगे बढ़ता था, मगर स्वर-सामंजस्य की यूरोपीय अवधारणा के बिना और उससे बिलकुल अलग. अफ़्रीकी संगीत मोटे तौर पर काम-काजी था और रोज़मर्रा के काम या कर्म-काण्ड से जुड़ा था. उसकी लयकारी पूरे पश्चिमी जगत की संगीत परम्परा से भिन्न थी. मिसाल के लिए नीचे दिये गये लिंक को देखिए कि किस तरह रोज़्मर्रा के काम एक ख़ास तरह की लय और ताल के साथ किये जाते हैं. 

http://youtu.be/lVPLIuBy9CY (लय ताल के बिना हरकत सम्भव नहीं है)

इस सिलसिले में एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि काले लोगों, ख़ास कर दासों, से जुड़े कानूनों में उन पर बहुत-से प्रतिबन्ध भी लगा दिये गये थे. मिसाल के लिए ग़ुलामों को नगाड़े, ढोल, मंजीरे, झांझ या ऐसे ही ताल और थाप आधारित वाद्य बजाना मना था. नतीजा यह हुआ कि अफ़्रीकी थाप आधारित परम्पराएं अमरीका में उस तरह बचा कर संजोयी नहीं जा सकीं, जैसा कि क्यूबा, हाइती और कैरिब्बियाई क्षेत्र के अन्य स्थानों में देखने को मिलता है. ऐसे में वाद्यों की जगह "शारीरिक लय-ताल"से काम चलाया जाने लगा. इसमें ताली बजाना, थाप लगाना, पैर पटकना और थपकी देना शामिल था. १८५३ में एक भूतपूर्व ग़ुलाम ने बताया कि थपकी देना महज़ हथेली को शरीर के किसी हिस्से पर मारना नहीं था, बल्कि इसके भी कई नमूने और ढंग थे. संगीत के साथ गाते हुए एक हाथ से कन्धे पर थपकी दे जाती थी और उसी क्रम में ताली बजाते हुए हथेली को शरीर के दूसरे हिस्सों पर लयकारी के साथ थपका जाता था और इस बीच उसी लय पर पैर भी ज़मीन पर पटके जाते थे. कहने की बात नहीं है कि हरकतों के ख़याल से यह एक काफ़ी जटिल विधान था, जिसमें लय, ताल और हरकत का अपना ही ताल-मेल बनता था. ऐसे कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं.

http://youtu.be/FskPKXT_ciE?list=PLSxcGaTlwqVRzWrLHvyGHEqupmVHqoNOT (जूबा)

http://youtu.be/RgBLLcgePNo?list=PLSxcGaTlwqVRzWrLHvyGHEqupmVHqoNOT (जूबा)

http://youtu.be/rqtY7QLbUds?list=PLSxcGaTlwqVRzWrLHvyGHEqupmVHqoNOT (थपकी) 

http://youtu.be/FskPKXT_ciE?list=PLSxcGaTlwqVRzWrLHvyGHEqupmVHqoNOT (हरकत)

(जारी)

Article 14

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चट्टानी जीवन का संगीत 

जैज़ पर एक लम्बे आलेख की पांचवीं कड़ी


4.
ग़ुलाम सबसे ज़्यादा तब गाते हैं जब वे दुखी और ग़मज़दा होते हैं 
- फ़्रेड्रिक डगलस


गोरों के क़ानूनों ने भले ही ग़ुलामों के नगाड़ों पर पाबन्दी लगा दी हो, उनको दसियों तरीक़ों से ज़लालत भुगतने पर मजबूर किया हो, उन्हें उनके वतनों से जबरन एक पराये देश में ला कर ग़ुलामी की ज़ंजीरों से बांध दिया हो, मगर वे न तो वे इन अफ़्रीकी लोगों की जिजीविषा को ख़त्म कर पाये, न उनके जीवट को और न उनके अन्दर ज़िन्दगी की तड़प को. वाद्यों की कमी को इन लोगों ने कुर्सी-मेज़ पर या फिर टीन के डिब्बों और कनस्तरों और ख़ाली बोतलों पर  थपकी या ताल दे कर पूरा कर लिया था.

जहां तक दूसरे वाद्यों का सवाल था, ग़ुलाम बना कर लाये गये इन लोगों ने धीरे-धीरे पश्चिमी वाद्यों को अपनाना शुरू कर दिया था. उन्नीसवीं सदी के शुरू से ही पश्चिमी वाद्यों के इस्तेमाल के सबूत मिलने लगते हैं और जो सबसे पहला वाद्य ग़ुलामों ने अपनाया, वह था वायोलिन, जिसे आम तौर पर फ़िडल भी कहा जाता था. फिर जैसे-जैसे समय बीता उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते दूसरे वाद्य जैसे बिगुल, तुरही और कैरिनेट भी शामिल कर लिये गये. अलावा इसके, जहां नगाड़ों पर पाबन्दी नहीं लगी थी या जल्दी ही हटा ली गयी थी, जैसे अमरीका के दक्षिणी भाग न्यू और्लीन्ज़ में, वहां चमड़े से मढ़े घरेलू ढोल-नगाड़े सार्वजनिक-सामूहिक गीत-संगीत और नाच के आयोजनों में इस्तेमाल किये जाते थे. 

जहां एक ओर इसमें कोई शक नहीं है कि इन विस्थापित और उत्पीड़ित लोगों का जीवन आम तौर पर अकथनीय कष्टों से भरा था, वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि इन सभी मज़लूम लोगों ने अपने दारुण जीवन और उसके नीरस, निरानन्द, निराशा-भरे माहौल का सामना करने के लिए राहत के अपने शाद्वल बना लिये थे. कला के अन्य रूपों का रास्ता अवरुद्ध पाने पर उन्होंने संगीत में राहें खोज निकालीं. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते जब खेतों और फ़सलों की सालाना कटाई हो चुकती तो कुछ दिन मौज-मस्ती के लिए अलग कर दिये जाते. कई इलाक़ों में इन अवसरों पर जो उत्सव मनाये जाते, उनमें नर्तक सिर पर सींगों वाले पहरावे और ऐसे लोक-परिधान पहन कर नाचते जिनमें गाय-बैलों की दुमें लगी होतीं. वाद्यों में घरेलू नगाड़े, लोहे के तिकोन और मवेशियों के जबड़ों की हड्डियां इस्तेमाल की जातीं. वक़्त के साथ अफ़्रीकी धुनों और रागों में यूरोपीय धुनों की मिलावट भी होने लगी.

एक और असर जो इस विस्थापित अफ़्रीकी समुदाय पर पड़ा, वह ईसाई भजनों का था. बहुत-से ग़ुलामों ने ईसाई गिरजे में गाये और बजाये जाने वाले धार्मिक संगीत के स्वर-संयोजन को सीख लिया था और उसे अपने मूल अफ़्रीकी संगीत में घुला-मिला कर एक नया रूप तैयार कर लिया था जिसे वे "स्पिरिचुअल"कहते थे -- आध्यात्मिक संगीत.

चूंकि उस दौर में आस-पास के इलाक़े से बहुत-से व्यापारिक जहाज़ अमरीका के दक्षिणी हिस्से में आते, इसलिए कैरिब्बियाई क्षेत्र के अफ़्रीकी विस्थापितों का संगीत भी मल्लाहों और मज़दूरों के माध्यम से आता. इन कैरिब्बियाई इलाक़ों में फ़्रान्सीसी और स्पेनी असर लिये हुए अफ़्रीकी संगीत विकसित हुआ था. धीरे-धीरे यह भी उस धारा में आ कर शामिल होने लगा जो अमरीका में लाये गये ग़ुलामों ने विकसित किया था.
यहीं यह बात ख़ास तौर पर ध्यान देने की है कि अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर अमरीका लाये गये लोगों के संगीत की चर्चा जब की जाती है तो अक्सर उस अवधि पर ध्यान नहीं दिया जाता जब वह संगीत उभर कर सामने आया. गीत-संगीत के जमावड़ों, फ़सलों की कटाई के बाद मौज-मस्ती के पलों या फिर संगीत मण्डलियों का विकास बहुत करके १८६२-६४ के अमरीकी गृह-युद्ध और अमरीका में दास-प्रथा के उन्मूलन के बाद के दौर में हुआ और इसे भी किसी ढब का बनते-बनते चार-पांच दशक लग गये. जिन लोगों को ग़ुलामी और उस भयंकर नस्लवादी भेद-भाव का तजरुबा नहीं है, जो अमरीका में अफ़्रीकी मूल के लोगों को भुगतना पड़ा (और यह शायद आज तक पूरी तरह दूर नहीं हुआ है), वे अपनी सादालौही में मान लेते हैं कि इन ग़ुलामों का संगीत उनके सुख-सन्तोष का इज़हार है. ग़ुलामी से भागने में सफल होने के बाद एक भूतपूर्व दास फ़्रेड्रिक डगलस(१८१८-१८९५) ने, जो आगे चल कर दास-प्रथा के उन्मूलन और नीग्रो समुदाय के हक़ों के जाने-माने आन्दोलनकारी और सुप्रसिद्ध वक्ता बने, अपनी आत्म-कथा में लिखा :

"...मैंने कभी-कभी सोचा है कि ग़ुलामी के बारे में फलसफ़े की पूरी-पूरी किताबों को पढ़ने की बनिस्बत महज़ इन गीतों को सुनना कुछ लोगों के दिमागों पर ग़ुलामी की भयानक फ़ितरत के बारे में एक गहरी छाप डाल सकता है....जब मैं ग़ुलाम था तब मैं इन रूखे, बीहड़ और प्रकट रूप से अबूझ गीतों के गहरे अभिप्रायों को नहीं समझता था. मैं ख़ुद दायरे के भीतर था; लिहाज़ा न तो मैं उस तरह देखता था न सुनता था जैसे वे लोग देख-सुन सकते थे जो बाहर थे. ये गीत दुख की ऐसी कथा बयान करते थे जो मेरी कमज़ोर समझ के बिलकुल परे थे; ये ऊंचे, लम्बे और गहरे सुर थे; उनमें उन आत्माओं की प्रार्थनाएं और शिकायतें बसी हुई थीं जो अत्यन्त कड़वी व्यथा से छलक रही थीं. हर सुर ग़ुलामी के ख़िलाफ़ एक गवाही था और ज़ंजीरों से छुटकारे के लिए ईश्वर से एक प्रार्थना...अगर किसी को ग़ुलामी के अमानुषिक और आत्मा का हनन करने वाले प्रभाव के बारे में जानना हो तो उसे कर्नल लौयेड के बगान पर जाना चाहिए और दिहाड़ी वाले दिन चुपके से चीड़ के सघन वन  में छिप कर ख़ामोशी से उन ध्वनियों को जांचना-परखना चाहिए जो उसके कानों और आत्मा के गलियारों से गुज़रती हैं और तब अगर वह अविचलित रह जाये तो ऐसा तभी हो सकता है जब ’उसके निष्ठुर हृदय में ज़रा भी मांस न हो’....अमरीका के उत्तरी हिस्से में आने के बाद मुझे ऐसे लोगों से मिल कर अक्सर बेइन्तहा हैरत हुई जो ग़ुलामों के बीच गीत-संगीत को उनके सन्तोष और ख़ुशी का सबूत मानते हैं. इससे ज़्यादा बड़ी भूल मुमकिन नहीं है. ग़ुलाम सबसे ज़्यादा तब गाते हैं जब वे दुखी और ग़मज़दा होते हैं. ग़ुलामों के गीत उनकी व्यथाओं और पीड़ा की निशानियां हैं; उसे उनसे राहत मिलती है, वैसे ही जैसे दर्द-भरे दिल को आंसुओं से मिलती है. कम-से-कम मेरा तो यही अनुभव है. मैंने अपने दुख को व्यक्त करने के लिए अक्सर गीत गाये हैं, बिरले ही अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए. जब तक मैं ग़ुलामी के जबड़ों में जकड़ा हुआ था, ख़ुशी में रोना और ख़ुशी में गाना मेरी कल्पना से परे था. किसी ग़ुलाम का गाना उसी हद तक सन्तोष और ख़ुशी का सबूत माना जा सकता है जिस हद तक किसी निर्जन टापू पर ले जा कर छोड़ दिये गये आदमी का गाना; दोनों के गीत उसी सम्वेदना से उपजते हैं."
--फ़्रेड्रिक डगलस का जीवन-वृत्तान्त 

5.


अमरीका में दास-प्रथा लगभग तीन सौ साल तक रही और ये ग़ुलाम चूँकि अफ्रीका के अलग-अलग हिस्सों से लाये गये थे, इसलिए उनके संगीत-रूपों में भी विविधता थी। जहाँ तक यूरोपीय संगीत का सवाल है तो उसका अधिकांश ब्रिटेन से आया था, लेकिन अमरीका के लूज़ियाना राज्य पर बीच-बीच में फ्रांस और स्पेन का भी क़ब्ज़ा रहा, इसलिए फ्रान्सीसी और स्पेनी संगीत भी वहाँ की फ़िज़ा में रचा-बसा था। यूरोपीय संगीत में भजन और फ़ौजी धुनें तो थीं ही, साथ ही नाच के समय बजाया जाने वाला संगीत भी था।

क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने कविता के स्रोतों पर विचार करते हुए कविता को गीत से और गीतों को श्रम से, काम की लय से, जोड़ा था। जैज़-संगीत के स्रोत भी अमरीकी नीग्रो दासों की इसी काम की लय में खोजे जा सकते हैं। मज़दूरों के गीत, जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ऐसे गीत थे, जिन्हें लोग काम करते समय गाते थे। हमारे यहाँ भी धान की बोआई या गेहूँ की कटाई करने वाले किसान, गंगा पर बजरे खींचने वाले मल्लाह और मकान बनाने वाले मजूर इसी किस्म के गीत गाते हैं। इन गीतों की ताल और सुर, तुक और धुन काम की लय से जुड़ी होती है और इस तरह इन गीतों में गुहार और जवाब की एक बिनावट नज़र आती है। एक आदमी गुहार लगाता है और बाकी लोग जवाब में गीत की कडि़याँ दोहराते हैं और यह तान बराबर चलती रहती है। मैंने एक बार किसी इमारत के निर्माण के दौरान मज़दूरों की एक टोली को लोहे के बड़े-बड़े गर्डर उठाते समय ऐसी ही गुहार-जवाब लगाते सुना था। टोली का नायक गुहार लगाता-‘शाबाश ज्वान,’ ‘खींच के तान,’ आदि और हर गुहार के बाद टोली रस्सा खींचती हुई जवाब में ‘हेइस्सा’ कहती और लोहे का गर्डर इंच-इंच कर ऊपर चढ़ता जाता।

अमरीकी नीग्रो ग़ुलामों के ये मजूर-गीत भी इसी प्रकार के थे, जीवन और श्रम से जुड़े हुए, जो अपने आप में एक अफ्रीकी विशेषता थी। दिलचस्प बात है कि गुहार और जवाब की यह ‘जुगलबन्दी’ वहाँ भी बरकरार रही, जहाँ एक ही अकेला कामगार होता था। उस स्थिति में वह गीत की कडि़याँ बारी-बारी से मोटे और पतले सुरों में गाता -- बेस (भारी) सुर में एक कड़ी और फिर ‘फ़ौल्सेटो’ (स्त्रैण, पतले) सुर में दूसरी। आज जैज़-संगीत के परिष्कृत, शुद्ध सुरों को सुनते हुए भले ही यह कल्पना करना कठिन हो कि वह मज़दूरों के इन्हीं गीतों और उनकी गुहार-जवाब से विकसित हुआ होगा, लेकिन ध्यान से सुनने पर यह ‘जुगलबन्दी’ बराबर जैज़-संगीत में मौजूद मिलती है।

अमरीका के ग़ुलामी के दौर में और भी बहुत से संगीत-रूप निकल कर सामने आये और आज भी अमरीका के सुदूर ग्रामीण इलाकों में सुने जा सकते हैं, हालाँकि जब वे धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसी ही एक मिसाल है खेतिहरों के टिटकारी गीत, जिन्हें खेतों पर काम करने वाले मजूर, कहा जाय कि ख़ुद अपने आप से या अपने मवेशियों से बात करने के लिए, गाया करते थे। इन गीतों की टिटकारियाँ और भारी तथा पतले सुरों की जुगलबन्दी काफ़ी हद तक मज़दूरों के गीतों की ही तरह की थी और इन्हीं से हो कर जैज़ संगीत का सफ़र अपनी अगली मंज़िल -- ब्लूज़ -- तक पहुँचा।

आज जब ब्लूज़ की बात की जाती है तो यह ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है कि ब्लूज़ के शुरुआती दौर की कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है। मौजूदा रूप में जो ब्लूज़ उपलब्ध है, वह भी जैज़-संगीत की तरह अपनी जड़ों से इतनी दूर चला आया है कि उसके स्रोत अँधेरे में खोये हुए हैं। तो भी बुनियादी तौर पर ब्लूज़ की जड़ें मज़दूरों के गीतों और खेत-मजूरों के टिटकारी गीतों में ही खोजी जा सकती हैं। खेत के किसी अकेले कोने में काम करने वाला अमरीकी ग़ुलाम अपनी जातीय स्मृति में कैद बिम्बों को एक नयी सीखी भाषा में ढालते समय ज़ाहिरा तौर पर बेहद निजी गीतों का ही माध्यम अपना सकता था। इसीलिए ब्लूज़ मुख्य रूप से उदासी के, अवसाद के, विषाद के गीत हैं -- निजी और ज़्यादातर एकालाप में निबद्ध। अपने आप से की गयी संगीत-भरी बातचीत। शुरू के ब्लूज़ गाये ही जाते थे, पर आगे चल कर ब्लूज़ की धुनें बजायी भी जाने लगीं।

यहां एक ही धुन के दो रूप दिये जा रहे हैं. पहला, मशहूर गायिका बिली हौलिडे के स्वर में ब्लूज़ का प्रसिद्ध गीत "सेंट लूइज़ ब्लूज़"है और दूसरा, जाने-माने जैज़ वादक लूइज़ आर्मस्ट्रौंग द्वारा बजायी गयी वही धुन है जिसमें उनके साथ संगत वेल्मा मिडलटन कर रही हैं.

http://youtu.be/TmbQVx6SGao (बिली हौलिडे -- सेंट लूइज़ ब्लूज़)

http://youtu.be/D2TUlUwa3_o (लूइज़ आर्मस्ट्रौंग-- सेंट लूइज़ ब्लूज़)

(जारी)





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