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देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३८



मित्रता की सदानीरा - १७


लखनऊ ही में मेरे पुराने मित्र राजेश शर्मा भी थे, जो सूचना विभाग में थे जहां लीलाधर जगूडी भी उन दिनों था या कुछ ही अर्से बाद आया। राजेश जिसने बाद में ओसीआर बिल्डिंग से कूद कर आत्महत्या कर ली और बहुत-से लोगों को दुखी कर दिया, बहुत प्यारा इन्सान था।

राजेश शायद मूलतः गोरखपुर की तरफ का था या शायद उसका कुछ समय गोरखपुर गुजरा था और वह मदन वात्स्यायन के मित्रों में से था। आज तो खैर मदन वात्स्यायन की किसी को याद नहीं, पर एक समय उनकी कविताएं बहुत शान से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं और हम नये-नये लिखने वालों पर उनका बड़ा रोब और रूतबा था। लखनऊ आने से पहले राजेश का बहुत वक्त इलाहाबाद में गुजरा था, जहां वह पवन मन्ध्यान के नाम के एक सिन्धी युवक (जो बाद में वकील बना) और जगदीश सरदाना नाम के एक शख्स के साथ छोटे-से ‘एक्सक्लूसिव’ गुट का सदस्य था।

हालांकि मैं उन दिनों प्रभात और काफी हाउस में शाम को अड्डा जमाने वालों में बैठता था, लेकिन चूंकि मेरे प्रकाशन का कार्यालय काफी हाउस वाली इमारत में था इसलिए राजेश वगैरा, जिनकी नियमित बैठकी तीन-चार बजे के करीब होती, मुझे भी कृपा करके शामिल कर लिया करते।

तीनों नकचढ़े लोग थे और बड़ी ऊंचाई से कला-साहित्य वगैरा पर बात करते। जगदीश उधर कहीं कल्याणी देवी या मीरापुर की तरफ रहता था और मेरे पिता से सिफारिशी पत्र ले कर पूना के फिल्म संस्थान जाने, वहाँ की शुरूआती खेप में प्रशिक्षण लेने, लगभग तत्काल ही राजेन्द्र सिंह बेदी का प्रिय पात्र बन कर ‘दस्तक’ के सहायक निर्देशक का अवसर पाने से पहले, इलाहाबाद में पढ़ाई पूरी करने के बाद पर तोल रहा था। बाद में उसने पद्मा खन्ना से शादी कर ली थी और अनेक प्रतिभाओं की तरह जो उल्का की तरह उभर कर गायब हो जाती हैं, वह भी अचानक गायब हो गया था। कुछ साल तक उसकी खैर-खबर मिलती रही, फिर वह भी बन्द हो गयी। अभी दो-तीन साल पहले अमरीका बस गयी एक युवती से, जो जाने किसका पता पूछती भटक कर हमारे इलाहाबाद वाले बंगले में चली आयी थी, पता चला कि पद्मा खन्ना, जो डांस करते-करते ‘सौदागर’ में अमिताभ और नूतन के साथ बराबरी की भूमिका निभाने तक की मंजिलें तय कर आयी थी, अब लास ऐन्जिलीज या वहीं-कहीं कैलिफोर्निया के धूप-धुले इलाके में नृत्य का विद्यालय चला रही है, जिसका बन्दोबस्त ’जगदीश सर’ के हाथों में है।

खैर, बात राजेश शर्मा की हो रही थी। राजेश मुझे शुरू ही से एक बेचैन आत्मा लगता था। अक्सर वह मुझसे बात करते-करते, एक उड़ान-सी भरते हुए मेरे पिता से अपनी मुलाकातों का जिक्र छेड़ देता। ज़ाहिर है, जिस ऊंचाई पर वह विचरता था, वहाँ से उसे उपेन्द्रनाथ अश्क भी अदना-से नजर आते रहे हों तो कोई हैरत की बात नहीं। मैं चूंकि ऐसी ही फितरत वाले हिन्दी के बहुत से लेखकों की अदाओं से वाकिफ हूं, इसलिए मुझे राजेश से खीझ नहीं होती थी। यूं बेहद प्यारा आदमी था, नयी कविता के जमाने की कविताई करता था, जो शादी-ब्याह, बच्चों और नौकरी के बाद प्राथमिकताओं के क्रम में काफी नीचे खिसक गयी थी।

उस लखनऊ प्रवास में रिक्शे पर ‘अमृत प्रभात’ से महानगर मंगलेश के घर जाना, वहाँ मोहित (जो तब शायद साल भर का था) और संयुक्ता से मिलना याद है। एक रात शैलेश के कमरे पर बिताने की भी याद है, लेकिन सबसे गहरी याद उस मजलिस की है, जो राजेश के घर पर हुई थी। मेरी वापसी के मौके पर पंकज सिंह भी दिल्ली से लखनऊ आ गया था, वीरेन भी। अजय वहां था ही, सो एक उत्सवी हलचल हवा में थी।

तभी राजेश ने मुझसे कहा कि वह मेरी वापसी का जश्न मनाने के लिए अपने घर पर एक पार्टी रख रहा है। पार्टी मतलब ‘पवित्र विचार’। अजय तो पीता नहीं है, लेकिन हम सब कहा जाय कि ‘रिन्दे बलानोश’ किस्म के लोग थे, जो ‘अच्छी पी ली खराब पी ली, जैसी मिली शराब पी ली’ में विश्वास करते थे। सो जहां तक मुझे याद है ‘पवित्र विचार’ की उस सभा में मंगलेश, वीरेन, पंकज, शैलेश, अजय और मैं शामिल थे। राजेश तो मेजबान होने के नाते था ही।

मुझे इतने बरस बाद अब याद नहीं है कि यह पार्टी उसके नये घर पर हुई थी, जिसका नाम उसने ‘घर’ ही रखा हुआ था और बड़े मन से बनवाया और सुरूचि से सजाया था, या फिर उस मकान पर जहां वह इस मकान को बनवाने से पहले किराये पर रहता था। बहरहाल, एक बड़ा-सा कमरा था, जो सामने सोफे रखकर बैठक बना लिया गया था और पीछे की तरफ रखी खाने की मेज-कुर्सियों की वजह से खाने के कमरे के काम आता था। राजेश की दो बेटियां थीं, जो अपनी मां के साथ खाने-पीने के इन्तजामात कर रही थीं, पीछे शास्त्रीय संगीत बज रहा था, जिस पर वीरेन बीच-बीच में कुछ टिप्पणी कर बैठता। हम लोग बैठक वाले हिस्से में इत्मीनान से बैठे दारू की चुस्कियां ले रहे थे। लेकिन ऐसे खुशनुमा माहौल को यादगार बनाने के लिए जैसे उसका खुशनुमा होना ही काफी न हो, इत्तफाक ने कुछ और सरंजाम भी कर रखा था।

अभी महफिल शबाब पर आना चाहती थी कि बाहर अचानक किसी मोटरकार के तेजी से आ कर रूकने की आवाज आयी और कुछ पल बाद दरवाजे पर दस्तक हुई। राजेश ने दरवाजा खोला तो रवीन्द्र कालिया (जाने यह नाम धूमकेतु की तरह कब तक मेरे फलक पर बार-बार गर्दिश करता रहेगा और अपने पीछे छोड़े गये धुएं और गर्दो-गुबार से माहौल को धुंधलाता रहेगा - ‘आधार’ वाले प्रसंग से ले कर अन्यान्य प्रसंगों तक), उसका जालन्धर के दिनों का दोस्त प्रवीण शर्मा (जो उन दिनों उत्तर प्रदेश सरकार में कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी था) और विभूति नारायण राय (जो शायद तब एस.पी. थे, या एस.एस.पी. बन चुके थे) अन्दर दाखिल हुए। पी तो उन तीनों ने ही रखी थी, लेकिन कालिया "जाने भी दो यारो" का ओम पुरी बना हुआ था। टुन्न और ह्विस्की के घोड़े पर सवार। अन्दर आते ही उसने कहा, ‘यार मंगलेश, तुम यहाँ बैठे हो और हम सारा शहर तुम्हारी तलाश में छानते रहे हैं।’

जाहिर था कि कालिया को मंगलेश की वैसी खोज नहीं थी। वह सत्ता के जिन गलियारों और गलियों की सैयाही कर रहा था, वहाँ किन्हीं और किस्म के लोगों की संगत वह किया करता था। चूंकि कालिया कभी अपनी छोटे शहर की मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है, इसलिए पद के लिए -- वह सरकारी हो तो और भी -- उसके मन में बहुत जगह है। उस वक्त भी एक सचिव स्तर का प्रशासनिक अधिकारी और ऊंचे दर्जे का पुलिस अफसर उसके साथ था। जाहिर है कि प्रतिबिम्बित महिमा से कालिया ही मण्डित हो रहा था और प्रेमचन्द की कहानी ‘नशा’ की-सी कैफियत उस पर तारी थी।

चुनांचे उसने एक-एक करके हम सबसे चुटकियां लेनी शुरू कीं। अपवाद सिर्फ शैलेश और अजय थे। शैलेश को वह ज़्यादा जानता नहीं था और अजय से उसका कोई वैसा खुला रिश्ता नहीं था। वह जानता था कि अजय सख्ती से उसे डपट सकता है। बाकी सबसे वह खुला-खिला था। इस बीच प्रवीण शर्मा लगातार एक ही वाक्य दोहराता रहा -- ‘कालिया यू आर ड्रंक’। और विभूति भी ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’ कह कर कालिया को वहाँ से हटा ले जाने की दुर्बल-सी कोशिश करते रहे। तभी कालिया की नजर पंकज सिंह पर गयी और वह चहक उठा।

क्षेपक के तौर पर इतना ही कि पंकज सिंह तब तक दो बार पैरिस के चक्कर लगा कर लौट आया था, फिरोजशाह रोड पर भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद के पीछे किन्हीं लव साहब के सरकारी मकान में उनका किरायेदार बन कर एक कमरे में रहता था, पास ही रह रहे कैप्टन वर्मा के (जो भगवतीबाबू के सुपुत्र थे) परिवार में आता-जाता था और पहले से भी ज़्यादा बेढब और बोहीमियन जि़न्दगी गुज़ार रहा था। जाहिर है, उन सभी लोगों में जो वहाँ मौजूद थे, पंकज ही कालिया के लिए सबसे आसान ‘टार्गेट’ था।

‘अरे पंकज, यार तुम भी यहाँ जमे हो,’ कालिया चहका। ‘और सुनाओ तुम्हारी उस फ्रान्सीसी प्रेमिका का क्या हाल है, जिसे तुम ले कर हमारे यहाँ रानी मण्डी आये थे और जब वह सीढि़यां चढ़ रही थी तो मैंने उसके चूतड़ पर चुटकी काट ली थी?’

कालिया का यह कहना था कि महफिल पर सकता छा गया। उस सन्नाटे में बस प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राय की आवाजें ही सुनायी दीं -- प्रवीण शर्मा की, ‘कालिया यू आर ड्रंक,’ और विभूति की, ‘कालिया जी, आइए चलिए, आपने बहुत पी ली है।’

फिर जैसे एक बम-सा फट पड़ा। सब कालिया पर बरसने लगे। अब तो प्रवीण शर्मा और विभूति नारायण राव ने शब्दों को छोड़ कर हरकतों का सहारा लिया और कालिया को पकड़ कर बाहर ले गये। पीछे-पीछे हम सभी बाहर निकल आये। सबसे ऊंचा स्वर शैलेश का था, जो उन्हें तब तक गालियां देता रहा जब तक कि वे मोटर पर सवार हो कर वहाँ से सिर पर पैर रख कर भाग नहीं गये।

कुछ देर माहौल गड़बड़ाया रहा, लेकिन जल्दी ही फिर जमावड़ा अपनी पुरानी रफ्तार और मौज में आ गया।

कितनी अजीब बात है कि ‘गालिब छुटी शराब’ में अपनी और दूसरों की शराबनोशी के दसियों प्रसंग अंकित करते हुए कालिया ऐसे प्रसंगों से कतरा कर निकल गया है, जिनमें उसने दारू पी कर अभद्रताएं की हैं।
(जारी)


देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ३९



मित्रता की सदानीरा - १८

लखनऊ से मैं दिल्ली चला गया था, जहां पंकज सिंह, जैसा कि मैंने कहा, अजीब-से फकीरी अन्दाज़ में दिन गुजार रहा था। अभी सविता से उसकी भेंट नहीं हुई थी, वह तारीक अनवर और उनकी ‘युवक धारा’ से जुड़ा नहीं था। उसका बहुत-सा वक्त भगवती बाबू के छोटे बेटे कैप्टन वर्मा के परिवार के साथ बीतता था। कैप्टन वर्मा विमान चालक थे, उनकी पत्नी कत्थक नृत्यांगना थीं, बेटी सोना और बेटा पढ़ रहे थे। कैप्टन वर्मा और उनके परिवार में एक सहज स्वभाविक गर्मजोशी थी। पंकज से (और उसके मिस उसके दोस्तों से) वे सहज ही स्नेह करते थे। कभी-कभी वे सब 35 फिरोजशाह रोड पर श्री लव के फ्लैट में पंकज के कमरे पर आ धमकते और हम सबको अपने साथ ले जाते। कभी कुबेर दत्त अपने स्कूटर पर वहाँ आ जाता। कभी हम लोग कनाट प्लेस के चक्कर लगाने चले जाते।

देखते-देखते वह छह हफ्ते का समय भी बीत गया और मैं वापस लन्दन चला गया। चूंकि मन के किसी कोने में यह बात बैठी हुई थी कि मुझे अन्ततः हिन्दुस्तान लौटना है, लन्दन में ही नहीं रहना, इसलिए एक सोची-समझी योजना के तहत मैंने अपने अनुबन्ध के बढ़ाये जाने पर हामी भर दी थी ताकि मुझे बी.बी.सी. के खर्च पर हिन्दुस्तान की एक यात्रा का अवसर मिल जाय। इसके बाद अगर इरादा यह बनेगा कि दूसरा अनुबन्ध पूरा किये बिना ही वापस आना है तो साल भर बाद जब जी चाहेगा एक महीने की सूचना पर बोरिया-बिस्तर समेट लिया जायेगा। इसके अलावा मुझे बी.बी.सी. की ही अपनी सहकर्मी श्रीमती रजनी कौल को सात सौ पाउण्ड लौटाने थे जो उन्होंने बड़ी सहृदयतापूर्वक मुझे उस समय दिये थे, जब मैंने किस्तों पर अपना मकान खरीदा था और कहा था, ‘तुम इन पैसों को सुविधा से लौटाना। मुझे मालूम है शुरू-शुरू में कैसी दिक्कतें होती हैं।’ इसीलिए मैंने छुट्टियों में घर जा कर वापस आने के लिए सबसे सस्ती हवाई सेवा से टिकट लिये थे ताकि बचे हुए पैसों से उधार चुका सकूं।

और इस तरह मैं लन्दन लौट आया था। इस यात्रा से कुछ बातें बहुत साफ हो गयी थीं। एक तो यह कि मैं अपने घर-परिवार, परिवेश और शहर से कैसे अदृश्य लेकिन अटूट धागों से बंधा हुआ था। यह ठीक है कि लन्दन में मुझे किसी किस्म की दिक्कत नहीं थी। वैसी भी नहीं, जो आम आप्रवासियों को होती है। और मैं आम हिन्दुस्तानियों के विपरीत, जो सिर्फ अपने ही लोगों के बीच विचरते थे, अंग्रेजों और वेस्ट इण्डियन लोगों से भी मिलता-मिलाता और उठता-बैठता था। तो भी इतना मुझे मालूम था कि अगर मुझे सचमुच हिन्दी में लिखना जारी रखना है तो मुझे हिन्दुस्तान वापस जाना ही होगा। अगर मैं अंग्रेजी में लिखता होता जैसे सलमान रश्दी या मेरा मित्र फारूख ढोंढी तो फिर बात दूसरी होती।

फिर यह सच्चाई भी पेश-पेश थी कि मैं 34 की उमर में वहाँ गया था और जितना ही अधिक वहाँ रहता, उतना ही मेरे लिए लौटना मुश्किल होता जाता, क्योंकि मेरे बच्चे भी बड़े हो रहे थे और ऐसी दहलीज पर आ खड़े हुए थे, जिसे पार करने के बाद उनके लिए लौटना नामुमकिन हो जाता। आखिरी बात यह थी कि बी.बी.सी. से जो मुझे सीखना और हासिल करना था, और वह कम नहीं था, मैं कर चुका था; सामान्य ‘इन्द्रधनुष’, ‘झंकार’, ‘सांस्कृतिक चर्चा’ और ‘बाल सभा’ जैसे अचार-चटनी मार्का कार्यक्रमों से ले कर, ‘आपका पत्र मिला’ और मुख्य भोजन वाले ‘विश्व भारती’ और ‘आजकल’ जैसे कार्यक्रम सफलता से कर चुका था। उसके बाद दुहराव का अन्तहीन सिलसिला था, जो काम के सन्तोष से ज़्यादा भौतिक सुख-सुविधा का जीवन जी पाने के अवसर ही जुटा सकता था।

लिहाजा जब 1983 की गर्मियों में मैंने अपने पिता को पांच महीने के लिए अपने पास बुलाया तो उनसे काफी विचार-विमर्श करके यह फैसला किया कि मुझे अब इस्तीफा दे कर घर चले जाना चाहिए। फिर चाहे मैं प्रकाशन देखूं या लिखूं या जो करूं। सुलक्षणा इंग्लैण्ड में बहुत रमी हुई थी। चलने से पहले उसे एक पुस्तकालय से नौकरी का प्रस्ताव भी आ गया था, जिसे स्वीकार करने पर हमारी स्थिति और बेहतर हो जाती। ओंकार भाई की पत्नी प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री कीर्ति चौधरी पुस्तकालय ही में काम करती थीं ओर उन्होंने उसकी सुविधाओं के बारे में सुलक्षणा को बता रखा था। इसलिए सुलक्षणा वापस इलाहाबाद के उसी माहौल में लौटने की बहुत इच्छुक न थी, जहां संयुक्त परिवार की बन्दिशें थीं; सास ही नहीं, जेठानी का भी आधिपत्य था। बच्चों को बहुत फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि दोनों वहाँ की जि़न्दगी में रच-बस गये थे। इस सबके बावजूद मैंने फायदों और नुकसानों को तोला तो लौटना ही ज़्यादा लाभकर लगा।

मगर इस्तीफा देने की बात कहना एक बात है, इस्तीफा देना दूसरी; क्योंकि इस्तीफा देते ही उसके मंजूर हो जाने की संभावना नहीं थी। साथ ही मकान को बेचने से ले कर सारा सामान समेट-समाट कर वापस जाने का बन्दोबस्त करने तक बीसियों झंझट थे। मेरी शंका को साबित करते हुए कैलाश बुधवार ने पहले तो जबानी तौर पर मुझे समझाया, कहा कि ऐसी नौकरी आसानी से नहीं मिलती, कि मैं अनुबन्ध पूरा करूं तो वे मुझे स्थायी रूप से नियुक्त करने के लिए सिफारिश करेंगे; उनके समझाने के बावजूद मैं अपने फैसले पर कायम रहा तो उन्होंने कहा, ‘ठीक है, जैसा तुम चाहो।’ और यह कह कर उन्होंने अपनी निजी सचिव से कहा, ‘कैरोल, नीलाभ विशेज टू रिजाइन। प्लीज टेक डाउन हिज़ रेविगनेशन लेटर।’ जब मैंने इस्तीफा लिखाकर दस्तखत कर दिये तो कैलाश ने उसे अपने पास रख लिया और कहा, ‘मेरा खयाल है, तुम अभी कुछ दिन और सोच लो। इस्तीफा तो लिखा ही गया है, लेकिन मैं इसे अभी आगे की कार्रवाई के लिए नहीं भेजूंगा।’

मेरे पिता उन दिनों मेरे पास आये हुए थे और उन्होंने जिद बांधी हुई थी कि मुझे वादे के मुताबिक वापस चलना चाहिए। जो मुझे शिकायतें हैं वे सब दूर कर दी जायेंगी। उनके हठ और माता-पिता के प्रति अपने जुड़ाव के चलते मेरा सारा प्रतिरोध ढह गया था। चूंकि अश्क जी कैलाश बुधवार से बहुत पहले से परिचित थे, लिहाजा उन्होंने कैलाश पर जोर दिया कि वे मुझे मुक्त कर दें। कैलाश ने उन्हें भी समझाने की कोशिश की, पर वे माने नहीं और उन्होंने विस्तार से कैलाश को सारी परिस्थिति से अवगत कराया। अन्त में कैलाश ने मेरा इस्तीफा मंजूर करके आगे की कार्रवाई के लिए भेज दिया। बतौर नोटिस मैं अनुबन्ध के बढ़ाये जाने के बाद एक साल बाद ही मुक्त हो सकता था, जिसका मतलब था कि मैं जून 1984 में जा कर मुक्त होता। लेकिन मेरी लगभग तीन-चार महीने की छुट्टियां बाकी थीं, मैंने उन्हें नोटिस की अवधि में समायोजित करा दिया और इस तरह अपनी रवानगी की तारीख़ को फरवरी तक खींच लाया।

इस्तीफे के स्वीकार हो जाने के बाद सबसे ज़रूरी काम था मकान को बेचना। लेकिन जिस समय मैंने लन्दन से वापसी की सोची थी, मकानों की कीमतें और पाडण्ड का मूल्य, दोनों ही गिरे हुए थे। लेकिन मैंने जि़न्दगी में अहम फैसले करते समय पैसों की परवाह कभी नहीं की। यहाँ तक कि जब ओंकार ने कहा कि अगर मैं महज तीन महीने बाद मई के अंत में जाऊं तो मुझे इंग्लैण्ड में स्थायी निवास का अधिकार मिल जायेगा और मैं भविष्य में जब चाहूंगा लौट सकूंगा तब मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो दोबारा इंग्लैण्ड आ कर रहने की नौबत ही नहीं आयेगी। और अगर आयी तो तब की तब देखी जायेगी।

पिता भी मेरे इस्तीफे के स्वीकार हो जाने से आश्वस्त हो गये थे और जब सितम्बर में खबर आयी कि मेरी मां को हल्का-सा स्ट्रोक हुआ है तो उन्होंने लौटने का फैसला किया। देखते-ही-देखते मकान का सौदा हो गया और मैंने दिसंबर में सुलक्षणा और बच्चों को मय साजो-सामान इलाहाबाद के लिए रवाना कर दिया। सामान ले जाने का खर्च मुझे बी.बी.सी. से मिलना था और चूंकि मैं निवास का स्थानान्तरण कर रहा था इसलिए जो चाहता, बिना महसूल अदा किये वहाँ से ला सकता था। कुछ लोगों ने कहा भी कि यह ले जाओ, वह ले जाओ, लेकिन मैं सिवा अकाई के एक उम्दा म्यूजिक सिस्टम के, वहाँ से और कुछ अतिरिक्त नहीं लाया। यूं मेरे पास पैनासानिक का एक म्यूजिक सिस्टम था, जो मैंने अपनी पुरानी मित्र और बी.बी.सी. की सहकर्मी अचला शर्मा के म्यूज़िक सिस्टम को देख कर लिया था; लेकिन अकाई का यह सिस्टम उससे कहीं बेहतर था और मेरे बड़े बेटे को भी पसन्द था। सो वही एक चीज़ मैंने फाजिल ली।

सुलक्षणा को वापस भेजकर मैं फिर बेज़वाटर के उसी इलाके में चला गया, जहां बी.बी.सी. का हास्टल था और जहां मैं चार साल पहले तीन महीने रहा था। लेकिन हास्टल में जगह नहीं थी, चुनांचे एक ऐसे मकान में जो अब किराये पर कमरे उठाने के काम ही आता था, मैंने एक कमरा ले लिया। फरवरी में मुझे चल देना था। ज़्यादातर सामान मैं हिन्दुस्तान भेज ही चुका था। सिर्फ अकाई का म्यूजिक सिस्टम था, सो मुझे कोई वैसी चिन्ता नहीं थी।
(जारी)

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४०



मित्रता की सदानीरा - १९


तभी एक दिन कैलाश ने मुझे बुला कर कहा कि ओंकार हिन्दुस्तान जा रहे हैं, कुछ और लोग भी छुट्टी पर हैं, क्या मेरे लिए एक महीना और रूकना सम्भव होगा। मुझे बड़ा मजा आया। कैलाश बहुत कुशल प्रशासक थे और उनका दावा था कि वे एक कार्यक्रम सहायक के साथ पूरा सेक्शन चला सकते हैं और अगर कोई कल वापस जाना चाहता है तो वह चाहे तो आज ही चला जाये। यह बी.बी.सी. के चार वर्षों में मेरी अन्तिम सफलता थी। मैंने कैलाश से कहा, ठीक है, आप कहते हैं तो मैं रूक जाता हूं, लेकिन फिर आप ऐसा करें कि मुझे हफ्ते भर की छुट्टी अभी दे दें, ओंकार के हिन्दुस्तान जाने से पहले मैं अपनी एक मित्र से मिलने जर्मनी जाना चाहता हूं। कैलाश राजी हो गये और मैं कारीन ज्वेकर से मिलने वीसबाडन चला गया।

कारीन से मेरा परिचय कुछ साल पहले गालिबन 1977-78 में हुआ था। उन दिनों मेरे मित्र विजय सोनी जो चित्रकार थे और ग्रोटोवस्की के सिद्धान्तों पर नाटक खेलते थे, मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का एक नाट्य रूपान्तर ले कर इलाहाबाद आये हुए थे। हमने दौड़-भाग करके उत्तरी रेलवे के मनोरंजन क्लब के हाल में प्रदर्शन का इंतज़ाम कर दिया था। मंगलेश और वीरेन उन दिनों इलाहाबाद ही में थे। तभी जिस रोज नाटक का पहला प्रदर्शन था अचानक एक खूबसूरत-सी लम्बी-तगड़ी विदेशी लड़की मेरे दफ्तर में दाखिल हुई। उसने लहंगा पहन रखा था और काफी कुछ जिप्सियों जैसी धज बना रखी थी। उसने अपना नाम बताया और कहा कि वह अश्क जी के नाटकों पर जर्मनी में शोध कर रही है और उनसे मिलना चाहती है। यह कारीन ज्वेकर थी। मैं उसे घर ले गया। जब वह मेरे पिता से बातचीत कर चुकी तो मैंने उससे पूछा कि क्या वह ‘अंधेरे में’ का नाट्य-रूपान्तर देखना चाहेगी? वह तैयार हो गयी। मैं उसे फिर दफ्तर ले आया जहां मंगलेश और वीरेन आनेवाले थे। शाम को हमने नाटक देखा और फिर स्टेशन पर एक ढाबे में खाना खाया। दो-एक दिन ठहर कर कारीन वापस जर्मनी चली गयी।
फिर उसकी चिट्ठी-पत्री आती रही और जब मैं लन्दन गया तो मैंने उसे पत्र लिख कर सूचना दी। फिर उसका पत्र आया और गाहे-बगाहे फोन पर बात होती रही। उसने कई बार वीसबाडेन आने का न्यौता भी दिया, पर जि़न्दगी कुछ ऐसी रही कि मैं चाह कर भी उससे मिलने जा नहीं पाया।

अब जब यह एक हफ्ता अचानक मेरी झोली में आ गिरा तो मैं झटपट कारीन को फोन किया, सारे इन्तजामात किये और वीसबाडन के लिए रवाना हो गया। जर्मनी के उस प्रवास की बड़ी सुखद स्मृतियां मेरे मन में हैं।

कारीन का मकान शायद उसके नाना का था, जिसके पांच कमरे उसने किराये पर चढ़ा रखे थे और बाकी में अपने एक पुरुष मित्र के साथ रहती थी। लन्दन की बनिस्बत वीसबाडन बहुत व्यवस्थित, खुला-खुला और सम्पन्न था। व्यवस्थाप्रियता एक जर्मन विशेषता है शायद, क्योंकि वह हर जगह नजर आती थी। अंग्रेजों के विपरीत जर्मन लोग कुछ खुले और मुखर स्वभाव के थे, लेकिन व्यवस्था-प्रेमी। जिस तरह की फक्कड़ बेतरतीबी मैंने आपने कुछ अंग्रेज परिचितों में, खास कर युवक-युवतियों में और कारीन जैसी ही परिस्थितियों में रहने वालों में, देखी थी, वह यहाँ नदारद थी।

कारीन ने पहले ही दिन मुझे उस रिहाइशगाह का ढंग-ढर्रा समझा दिया था। फोन पर समय बताने का यन्त्र लगा था और पास ही में कापी रखी थी। जो भी फोन करता वह अपना नाम और समय लिख देता। बाद में बिल आने पर सब अपने-अपने उपयोग के हिसाब से पैसे दे देते। यही हाल बिजली-पानी का था। नहाने का क्रम बंधा हुआ था। रसोई घर में सबका सामान अलग रखा रहता। सब कुछ मेरी मां की कहावत -- हिसाब मां-बेटी का बक्शीश लाख टके की -- सरीखा था। मैं कारीन के लिए कुछ उपहारों के साथ शिवाज रीगल ह्विस्की की एक लीटर की बोतल ले गया था। वह उसने सबके साथ बांट कर पी। बल्कि उसी दौरान उसके कुछ मित्र मिलने आये तो उन्हें भी पिलायी।

मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं कि मैं कारीन के साथ कितने दिन रहा था। शायद एक हफ्ता, जिस दौरान वह मुझे अपने माता-पिता से मिलाने लिम्बुर्ग भी ले गयी थी और एक पूरा दिन हमने फ्रैंकफर्ट में हिन्दी विद्वान इन्दु प्रकाश पाण्डे और उनकी पत्नी हाइडी के साथ भी बिताया था। बाकी वक्त कारीन मुझे वीसबाडन घुमाती रही थी।

वीसबाडन पुराना शहर था। ऐसा शहर जिसे ‘स्पा’ कहा जाता था -- अपनी आबे-हवा के सबब से सेहत के लिए मुफीद। बहुत-से रूसी, फ्रान्सीसी लेखक यहाँ आ कर रहे थे और ‘स्पा’ होने के नाते यहाँ जुए के अड्डे और मनोरंजन और सांस्कृतिक दिलचस्पी के साधन भी विकसित हो गये थे। कारीन ने मुझे शहर के बीचों-बीच एक पुराना थिएटर हाल भी दिखाया था, जो दूसरे महायुद्ध के दौरान बहुत क्षतिग्रस्त हो गया था। नगर पालिका ने हर ईंट पर नम्बर लिख कर पुराने नक्शे के मुताबिक उसे हू-ब-हू पहले जैसा बना दिया था।

हिटलर के शासन और उसके बाद दूसरी महायुद्ध में हुई तबाही के बाद ध्वस्त इलाकों को फिर पहले जैसा बनाने का खयाल सिर्फ प्रसिद्ध इमारतों तक सीमित नहीं था। कारीन ने मुझे बीसबाडन में जस्टिशिया चौक भी दिखाया था -- छोटा-सा चौक जिसके चारों तरफ रिहाइशी मकान थे। उसने बताया था कि यह चौक भी पूरी तरह नष्ट हो गया था, लेकिन इसे भी फिर पहले जैसा ही बना कर खड़ा कर दिया गया था।

कुछ दिन बाद फ्रैंकफर्ट में इन्दु प्रकाश पाण्डे के साथ टहलते हुए मैंने इस बात का जिक्र करते हुए उन्हें बताया कि हमारे घर के पास जी.टी. रोड पर शहर की पुरानी फसील पर बने दो मुगलकालीन दरवाजों में से एक जब ढह गया था तो किसी ने उसे दोबारा बनाने की नहीं सोची थी, बल्कि लोग उसके पत्थर उठा ले गये थे, जबकि जर्मनी में इसका उलट देखने को आया था। तब पाण्डे जी ने इसका जो कारण बताया उसने आगे चल कर मुझे इतिहास के बारे में अपना दृष्टिकोण निर्मित करने में बड़ी मदद दी। उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान में समय की अवधारणा चक्राकार रही है, घटनाएं बार-बार होती हैं, युगों का क्रम बार-बार सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग के फेरे लगाता है। इसलिए संरक्षण पर बल नहीं है। पश्चिम में समय रेखीय है, इसलिए जो घटित हुआ है, उसका अभिलेख महत्वपूर्ण है, उसे संजोया जाना चाहिए।

मैं जो बुनियादी तौर पर अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा-लिखा और इतिहास के बारे में उसी पश्चिमी दृष्टिकोण से परिचित था, पहली बार एक नयी विचार सरणि के रू-ब-रू हुआ। फिर मैंने खोज-खोज कर इस बारे में और भी मालूमात हासिल की, कौसाम्बी और रोमिला थापर को दोबारा पढ़ा। बहरहाल, वह एक अलग ही कहानी है।

वीसबाडन ही में टहलते हुए एक दिन मुझे कारीन ने एक दुकान दिखायी, जिसमें बिकनेवाला सारा सामान फेंकी गयी चीजों को दोबारा में इस्तेमाल करके बनाया गया था। यह शायद जर्मन लोगों की एक और विशेषता थी, क्योंकि इसके लिए एक पारिभाषिक शब्द भी था -- बैसलिंग। यानी टूटी-फूटी, बेकार और फेंकनेवाली चीजों को दस्तकारी के माध्यम से, और जाहिर है रचनात्मक कौशल से, नयी चीजों में ढाल देना।

पांच-छह दिन देखते-देखते बीत गये और मैं वापस लन्दन के लिए चल दिया। इस बार मैंने रास्ते में थोड़ा परिवर्तन किया और पश्चिमी जर्मनी (जर्मनी तब तक एक नहीं हुआ था) की राजधानी बान हो कर लौटा, जहां जर्मन प्रसारण सेवा में बी.बी.सी. के मेरे पुराने सहकर्मी सुभाष वोहरा थे और कवि विष्णु नागर।

दोनों के साथ मैंने दिन भर गुजारा, डोएचे वेले में बिरादराना भाव से जर्मनी यात्रा पर एक वार्ता रिकार्ड की, कुछ खरीदारी की बान से सटे कोलोन शहर का सुप्रसिद्ध गिरजाघर देखा, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा बमबारी में विक्षत हो गया था, पर उसे फिर से पूर्ववत बनाने की बजाय शायद युद्ध के विनाशकारी प्रभाव के स्मृति के तौर पर मामूली ईंटों और अनगढ़ ढंग से मरम्मत करके छोड़ दिया गया था। वहाँ गिरजे के पास ही सुभाष के कहने पर मैंने कोलोनेर वासर -- कोलोन का पानी -- की बोतलों का छोटा-सा डिब्बा लिया। यह वही इत्र था, जिसे हम हिन्दुस्तान में ओ डि कोलोन के नाम से जानते थे और मेरी मां इस्तेमाल किया करती थी।

कोलोन से मैं फिर समुद्र तट की ओर रेलगाड़ी में रवाना हो गया, जहां से चैनल पार कर मुझे डोवर पहुंचना था। रास्ते में इत्तेफाक से मेरी बगल की सीट पर एक जर्मन युवती आ बैठी। सफर कई घण्टों का था, इसलिए उससे बातें शुरू हो गयीं। जब मैंने वीसबाण्डन के थिएटर और जस्टिशिया चौक के पुनर्निर्माण का जिक्र करते हुए प्रशंसा-भरा विस्मय प्रकट किया तो उसकी प्रतिक्रिया बिलकुल अनोखी थी।

क्या आपको नहीं लगता -- उसने सवालिया अन्दाज़ में कहा था -- कि हम जर्मन लोग हिटलर के निजाम, नात्सीवाद, यहूदियों के नरसंहार, दूसरे महायुद्ध, इस सब को ले कर एक भयंकर अपराध-भाव से भरे हुए हैं; जिसकी वजह से हम उन सारी घटनाओं को जैसे सायास भुला देना चाहते हैं। मानो न तो कोई हिटलर हुआ था और न 1932 से 1947 तक की भयंकर घटनाएं। इससे तो अच्छा था उस सबको और अपनी भयावह भूलों को तस्लीम करके उनसे सबक लेना और यों अपने मानस को सच्चे प्रायश्चित से साफ कर लेना। अब तो यह सब पर्दा डालने के प्रयास जैसा लगता है।

कुछ ही वर्ष बाद जब मैंने फ्रांस और जर्मनी में नव नात्सीवाद के उभार और अलजीरियाई तथा दूसरे प्रवासियों के प्रति फ्रांसीसियों और जर्मन नवनात्सी युवकों की नस्ली घृणा की खबरें पढ़ीं तो मुझे बेसाख्ता उस जर्मन युवती की याद हो आयी, जिसकी वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि मुझे बहुत कुछ सिखा गयी थी।
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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की इकतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४१



मित्रता की सदानीरा - २०

जर्मनी से लौट कर फिर वही क्रम चलने लगा। लेकिन फर्क इतना था कि मैं एक-एक दिन करके हिन्दुस्तान वापसी की तरफ सरक रहा था।

इन्हीं अन्तिम हफ्तों में एक दिन राज बिसारिया - जो तब तक आकाशवाणी के उपकेन्द्र निदेशक के पद को छोड़ कर बी.बी.सी. के कार्यक्रम सहायक बन कर आ गये थे -- और इतने वरिष्ठ होते हुए भी बी.बी.सी. के तर्क से वहाँ के कनिष्ठतम कार्यक्रम सहायक के भी नीचे थे -- मेरे पास आये और उन्होंने कहा कि मैं उनके लिए कुछ कविताएं रिकार्ड करा दूं। राज बिसारिया उन दिनों ‘सांस्कृतिक चर्चा’ प्रोड्यूस करते थे -- वही कार्यक्रम जिसकी बागडोर ‘आल इण्डिया रेडियो की सुनहरी आवाज़’ के खिताबयाफ्ता, जाने-माने प्रसारक आले हसन से 1980 में मैंने संभाली थी और दो साल तक प्रोड्यूस करने के बाद जिसे रमा पाण्डे को सौंपा गया था और फिर उसके बाद राज बिसारिया को।

राज बिसारिया गीत भी लिखा करते थे, जो उनके प्रसारणों जैसे ही मामूली और कोई प्रभाव न छोड़ने वाले थे। लम्बे अर्से तक आकाशवाणी की सरकारी नौकरी ने उन्हें काहिल बना दिया था और अगर शुरू में उनके भीतर कोई चिनगारी रही भी होगी तो बुझा दी थी। यों बड़े प्रेम से मिलते थे और बी.बी.सी. की ऊपरी बिरदराना भंगिमा के नीचे ईष्र्या-द्वेष की जो अन्तर्धारा बहती थी, उससे सर्वथा मुक्त थे।

मैं उनसे तो नहीं पर ‘सांस्कृतिक चर्चा’ को ले कर कैलाश से जरूर नाराज़ था। आले भाई के बाद जब मैंने उस कार्यक्रम को नये रूप में ढाला और वह पहले से ज़्यादा सुना जाने लगा तो एक दिन मुझे प्यारे शिवपुरी ने कहा कि वह कार्यक्रम मुझसे ले लिया जाने वाला है। मुझे हैरत भी हुई थी और बुरा भी लगा था। हैरत तो स्वाभाविक थी क्योंकि इसका कोई संकेत हवाओं नहीं था। बुरा इसलिए लगा था कि यह बात कैलाश को सबसे पहले मुझसे कहनी चाहिए थी। ऐसा न करके कैलाश ने वह बात किसी और से कही होगी और वहाँ से प्यारे तक पहुंची होगी।

प्यारे शिवपुरी, जिन्होंने देवानन्द की फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ से ले कर बी.बी.सी. के प्रसारक और ‘गार्डियन’ के फोटोग्राफर-पत्रकार तक कई पापड़ बेले थे, बी.बी.सी. के हलकों में पसन्द नहीं किये जाते थे। अक्सर लोग दबे स्वर में बड़े रहस्यमय ढंग से कुछ ड्रग-स्मगलिंग से उनके लिप्त होने की भी चर्चा करते। लेकिन चूंकि वे लिखते बहुत अच्छा थे और प्रसारक भी उम्दा थे, इसलिए मैंने उन्हें कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था। मेरी यह खुदमुख्तारी भी बी.बी.सी. के उन लोगों को पसन्द नहीं थी, जो अफसर को, सत्ता को, सदा दायें रखने में यकीन रखते थे।

दूसरा कारण यह था कि कुछ ऐसे लोगों से जिन्होंने बी.बी.सी. हिन्दी प्रसारण सेवाओं को वृन्दावन का विधवाश्रम समझ रखा था मैंने एकबारगी किनारा कर लिया था। बात यह थी कि रिटायर होने से पहले के आखिरी दो-चार वर्षों में आले भाई की शराबनोशी बहुत बढ़ गयी थी। खबरें तो वे जैसे-तैसे पढ़ देते, लेकिन ‘सांस्कृतिक चर्चा’ पर ढंग से सोच कर उसे नित नया करने की जहमत से कतराने लगे थे। कुछ तय-शुदा लोग थे, जिनसे वे साहित्य और चित्रकला आदि पर लिखवाते, कुछ पंक्तियों की भूमिका और लिंक लिखते और स्टूडियो में बियर की बोतल लिये पहुंच जाते। मैंने शुरू के छह महीनों तक -- जब तक कि प्रोग्राम पूरी तरह मुझे नहीं मिला -- आले भाई के साथ काफी बेगार की थी। ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में नियमित योगदान करनेवालों में एक पृथ्वीराज नाम के सज्जन थे। पतले-छरहरे, सुन्दर-से कश्मीरी पण्डित, अक्सर नीली जीन्स और डेनिम ही की जैकेट पहने नजर आते, चित्रकला आदि पर लिखते थे, लेकिन एक तो कला-समीक्षा का उनका तरीका पश्चिम से प्रभावित था -- वैसी ही भाषा, अक्सर अनुवाद की गयी टिप्पणियां -- दूसरे उनका तलफ़्फ़ुज़ भी कश्मीरी रंगत लिये हुए था। मैंने धीरे-धीरे उन्हें सिर्फ आपात काल के लिए रख छोड़ा था और वे हालांकि हम अक्सर मिलते और चूंकि हम दोनों फ्लश खेलने के शौकीन थे लिहाजा शाम सात-आठ बजे जुटनेवाली फ्लश की फड़ों में शामिल भी होते, पर वे मुझसे मन-ही-मन खिंच गये थे और उन्होंने भी कैलाश से मेरी शिकायत की थी।

लेकिन मुझे न पृथ्वीराज से गरज थी, न कैलाश से। मैं अपनी नज़र अपने कार्यक्रम पर रखता। और भी कई वजहें थीं, जिनसे मैं कैलाश के अन्दरूनी दायरे में नहीं था।

मगर जो सबसे बड़ी वजह थी, वह थी लन्दन में ‘भारत उत्सव’ का आयोजन। इन्दिरा गांधी ने बड़े पैमाने पर अपनी वापसी के बाद अपनी छवि सुधारने के लिए इन उत्सवों की योजना बनायी थी और यह महज़ सांस्कृतिक कार्यक्रम ही नहीं था, इसका राजनयिक राजनैतिक महत्व और मकसद भी था। जाहिर है, ऐसे मौके पर बी.बी.सी. और ‘सांस्कृतिक चर्चा’ की एक अहमियत थी। पुपुल जयकर इस उत्सव को सफल बनाने के लिए लन्दन में खेमा गाड़े हुए थीं और मैंने इस उत्सव में साहित्य और साहित्यकारों की अनुपस्थिति पर अपने दफ्तर में आलोचना भी की थी और भारतीय उच्चायोग की एक पार्टी में पुपुल जयकर से अपनी शिकायत भी दर्ज की थी जिसे उन्होंने अपनी मरी हुई मछलियों सरीखी बड़ी-बड़ी भावहीन आंखें मुझ पर गड़ाये हुए सुना था। कैलाश का इरादा ‘भारत उत्सव’ को ज़्यादा-से-ज़्यादा अनुकूल तवज्जो दे कर अपना जनसम्पर्क दुरुस्त करना था और इस काम में प्रकट ही मेरे जैसा आदमी सहायक न हो सकता था। तब उसने यह कार्यक्रम मुझसे ले कर रमा पाण्डे को देने का फैसला किया, जो इला अरुण की बहन थी पर इला की सहोदरा होने के बावजूद उसमें इला की-सी प्रतिभा न थी। उलटे वह इला की होड़ में जरूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी थी। तलफ़्फ़ुज़ उसका ऐसा था कि वह "शासन" को "साशन" कहती थी। गुण बस एक था कि दिल की अच्छी थी, झगड़ा हो जाने पर अचला की तरह बिस घोलने की बजाय तुरन्त आ कर सम्बन्ध सुधार लेती। परनिन्दा प्रवीण थी, रसीली बातें करती और थोड़ी-थोड़ी मुँहफट भी थी। अकसर लोकगीत सुनाती जिनमें से एक मुझे आज तक याद है :
सांझ भई दिन अथवन लागा
राजा हमका बुलावें पुचकार-पुचकार
रात भई चन्दा चमकानो
राजा छतिया लगायें चुमकार चुमकार
भोर भई चिड़ियां चहचानीं
राजा हमका भगावें दुत्कार-दुत्कार

जाहिर है, कैलाश की महत्वाकांक्षाओं के लिए रमा की महत्वाकांक्षाएं पूरक ही सिद्ध होतीं, सो मेरे हिन्दुस्तान से लौटने के बाद ‘सांस्कृतिक चर्चा’ अचानक मुझसे ले कर उसे दे दिया गया और मुझे सबसे मुश्किल कार्यक्रम ‘आजकल’ के साथ सबसे महत्वहीन माना जाने वाला कार्यक्रम ‘बाल संघ’ थमा दिया गया। उसके बाद मैंने ‘सांस्कृतिक चर्चा’ में कभी हिस्सा नहीं लिया और रमा ने भी होशियारी बरतते हुए मुझे उससे दूर-दूर ही रखा। यही हाल राज बिसारिया का भी रहा।

अब चूंकि मैं विदा हो रहा था, चुनांचे सबका प्रेम अचानक जाग उठा था। मैंने राज बिसारिया से कहा कि बी.बी.सी. से मुझे कविता के लिए पैसे नहीं मिलते, जिस काम के लिए मिलते हैं, वह करता हूं। और यूं भी मेरा उसूल है कि मैं यथासंभव अपनी रचनाएं बी.बी.सी. से प्रसारित न करूं। जब राज बिसारिया ने बहुत इसरार किया तो मैंने कहा कि मैं दो शर्तों पर अपनी कविताएं रिकार्ड कराऊंगा। पहली यह कि कार्यक्रम की रूपरेखा वे नहीं, मैं तय करूंगा। दूसरे यह कि कविताएं मेरे जाने के बाद ही प्रसारित की जायें। बिसारिया जी मान गये और मैंने छोटे-छोटे वक्तव्य देते हुए आध घण्टे का कार्यक्रम रिकार्ड करा दिया। लेकिन बिसारिया जी को कहां सबर! उन्होंने दस मिनट का टुकड़ा अगले ही सप्ताह प्रसारित कर दिया और मेरे पूछने पर खीसें निपोर दीं।

बी.बी.सी. के प्रशासनिक अंग में एक प्रभाग श्रोताओं के पत्रों का भी था, जिनसे कार्यक्रमों के बारे में लोगों की राय का पता चलता रहता था। तीन हफ्ते बाद उस प्रभाग की सुधा अग्रवाल ने मुझे चालीस-पैंतालीस चिट्ठियों का एक पुलिन्दा दिया जो उस प्रसारण की प्रतिक्रिया में लोगों ने भेजी थीं। वाचस्पति उपाध्याय को छोड़कर जो मेरे पुराने मित्र और कवि-आलोचक थे, शेष सभी पत्र आम श्रोताओं के थे। उनकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर मेरा विश्वास और भी पक्का हो गया कि मैंने लौटने का फैसला करके कोई गलती नहीं की है कि मुझे अपना ध्यान अपने लिखने में लगाना चाहिए।

बाकी बचे, डेढ़ेक महीने में और कोई यादगार घटना नहीं हुई और मार्च 1984 में मैं लन्दन की चार साल की जलावतनी के बाद हिन्दुस्तान लौट आया जहां कुछ नयी समस्याएं और पुराने मित्र मेरा इन्तज़ार कर रहे थे।
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पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४२


मित्रता की सदानीरा - २१

चार साल बाद सब कुछ समेट कर इलाहाबाद वापस आ कर बसना आसान काम नहीं था और जो परेशानियां मेरा इन्तजार कर रही थीं, उनका अन्दाजा हवाई अड्डे पर उतरते ही हो गया था, लेकिन जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, ‘पांसा फेंका जा चुका था’।
मुझे लेने मेरे बड़े भाई आये हुए थे। तब तक उनका और उनके परिवार को रूख मेरे प्रतिकूल, कहा जाय कि वैसा वैमनस्य-भरा, नहीं हुआ था जैसा कि बाद में उत्तरोत्तर होता चला गया। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान वे काफी बीमार रहे थे, जिसका साफ-साफ अन्दाजा मुझे हवाई अड्डे पर उनसे मिलते ही हो गया।

हमने सामान उतरवाया था और हौज़ खास पहुंचे थे जहां सुलक्षणा के भाई रहते थे। अलग से मेरा जो सामान आ रहा था, वह एकाध दिन में पहुंचने वाला था और हम उसे ले कर ही इलाहाबाद जाना चाहते थे। मुझे अपनी मां की भी चिंता सता रही थी, जिन्हें कुछ महीने पहले फालिज का हलका-सा दौरा पड़ा था।


तभी मेरे बड़े भतीजे का फोन आया कि हममें से एक फौरन इलाहाबाद चला आये। बात यह थी कि जिस बंगले में हम रहते थे और जिसे मेरे पिता ने खरीद लिया था, उसके पीछे एक छोटी-सी बंगलिया और दसेक कोठरियां और अहाता था, जो पहले इसी बंगले का हिस्सा था, लेकिन मकान मालिक ने उसे पीछे के विश्वकर्मा बन्धुओं को बेच दिया था। यह वही बंगलिया थी, जिसमें हम लोग 1948-49 में आ कर टिके थे, जहां से मेरी मां ने प्रकाशन शुरू किया था, जहां मेरा बचपन और किशोरावस्था के दिन गुज़रे थे। 1962 में जब हम सामने के बड़े बंगले में चले गये थे तो इसे हमने गोदामों की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था।

आगे चल कर जब विश्वकर्मा बन्धुओं की माली हालत बिगड़ गयी, उनका बसों का धन्धा चौपट हो गया तो उन्होंने अपने मकान में भी तरह-तरह के किरायेदार बसा लिये और उनसे कर्ज भी लेने लगे। इन्हीं में से एक ऋणदाता शहर के एक कुख्यात भूमाफिया का लठैत था। उसकी एक रखैल पीछे विश्वर्मा बन्धुओं की किरायेदार थी और उसकी हसरत उस बंगलिया में रहने की थी। यों, उस भूमाफिया की नजर उस बंगलिया पर पड़ी और चूंकि उसके मालिक आर्थिक रूप से टूटे हुए थे, उसने वह बंगलिया हासिल करने की ठानी। पहले कुछ सन्देसे आये, फिर कुछ धमकियां दी गयीं और अन्त में जब मैं दिल्ली के हवाई अड्डे पर उतर रहा था, दसेक लोग मकान को जबरदस्ती खाली कराने के लिए चढ़ आये।

मेरे पिता यों तो पतले-छरहरे आदमी थे, उमर भी उनकी उस समय चौहत्तर की थी, लेकिन वे किसी धौंस-धमकी से डरने वाले नहीं थे। जाहिर है, भूमाफिया के उन गुर्गों ने जवाबी साहस की उम्मीद न की थी। वे धमकियां देते हुए चले गये। और अगले तीन-चार वर्षों तक चलने वाला मुक्खल महाराज प्रकरण अश्क जी के जीवन में शुरू हो गया।

खैर, मैंने अपने भतीजे से कहा कि वह घबराये नहीं, एकाध दिन की बात है, हम सामान ले कर पहुंचते हैं।

इलाहाबाद पहुंचने पर एक और मुसीबत सामने थी। किसी जमाने में बगल के मकान में, जो हमारे पास किराये पर था और जिसमें हमारा दफ्तरीखाना और गोदाम था, हमने एक आदमी को उसकी देख-रेख के लिए रखा था। वह बाद में पुलिस का मुखबिर निकला। कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा, फिर उसने भी पर निकालने शुरू कर दिये। यहाँ तक कि मुख्य फाटक से आने-जाने में बाधा डालने लगा। पुलिस का मुखबिर था, सो पुलिस कुछ करती नहीं थी, मुकदमा वह हार गया था तो भी टिका हुआ था।

मेरे इलाहाबाद पहुंचने पर पता चला कि हाईकोर्ट से भी उसकी अपील खारिज हो गयी है। तिस पर भी वह उस जगह को खाली नहीं कर रहा।

जहां तक भूमाफिया वाले प्रसंग का सवाल था, मैंने अश्क जी से कहा कि उससे उसी के तरीकों से लड़ने का न तो हमारे पास समय है, न साधन। या तो हम भी वैसे ही बन जायें, जो सम्भव नहीं है या फिर दूसरे उपाय अपनायें। मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अपनी प्रसिद्धि का फायदा उठायें और मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री को पत्र लिखें।

रही बात उस चौकीदार की तो वह हाईकोर्ट से अपने मुकदमे के खारिज हो जाने के बाद ढीला पड़ा हुआ था। ऊपर से मेरे वापस आ जाने के बाद वह समझ गया था कि अब वह ज़्यादा दिन अपनी हरकतें जारी नहीं रख पायेगा। मेरे भाई झगड़ों-झंझटों से बच कर चलते थे जबकि मुझे न तो अन्याय करना पसन्द था, न अन्याय सहना। उस चौकीदार ने भी अगर मेरे लन्दन जाने का फायदा उठा कर मेरे परिवार को तंग न किया होता और पहले की तरह अपने बीवी-बच्चों के साथ आराम से रहा होता तो मैं उसे निकाल बाहर करने पर जोर न देता। तो भी मैंने अपने पिता से कहा कि मुकदमा हार कर वह ढीला पड़ा हुआ है, उसे कुछ पैसे दे कर रफा-दफा कीजिये।

इस झंझट से मुक्त होने के बाद हमने उस दूसरी बड़ी परेशानी की तरफ ध्यान दिया। तब तक चिट्ठियों का असर दिखने लगा था। वे लोग जो पिस्तौलें ले कर चढ़ दौड़े थे, दुबक गये; अब वार्ताओं का दौर शुरू हुआ। ऊपर से अख़बारों में इस मामले के उछलने से उस भूमाफिया को भी लगा कि आम बल प्रयोग वाला तरीका कारगर साबित नहीं होगा तो भी, चूंकि उसने चार बंगले छोड़ कर एक बंगले पर कब्जा कर रखा था, वह रोज अपनी फौज-फाटा ले कर सड़क से गुजरता, कई महीनों तक शहर के चार बड़े अफसर -- शहर कोतवाल, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी -- हर शाम हमारे घर मौजूद होते। धीरे-धीरे सबको समझ में आ गया कि यह मामला अब बातचीत ही से तय होगा और इसमें लम्बा वक्त लगेगा।

इन दो फौरी समस्याओं से निपट कर मैंने उस बड़ी समस्या को हाथ में लेने की सोची, जिसके लिए दरअसल मैं घर लौटा था। भाई की बीमारी की वजह से हमारा दफ्तर सिविल लाइन्ज़ वाली दुकान से हटकर घर आ गया था। सारा हिसाब-किताब बेतरतीबी के आलम में था, नयी किताबों का प्रकाशन रूक गया था, ऊपर से कर्ज चढ़ गया था।

मैंने मई के पहले हफ्ते में सिविलाइन्स वाले दफ्तर के दो दफ्तरियों की मदद से खुद साफ किया, घर से सब वहाँ ले जा कर सही जगह सजाया और दफ्तर में बैठना शुरू कर दिया।
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पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४३



मित्रता की सदानीरा - २२

जैसे-जैसे लोगों का पता चलने लगा कि मैं लौट आया हूं, सिविल लाइन्ज वाले हमारे दफ्तर पर मित्र-परिचितों की भीड़ जुटने लगी।

लन्दन जाने से पहले तीसरी धारा की भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से मेरा नजदीकी सम्बन्ध रहा था। पार्टी तब भूमिगत थी और कभी-कभार कुछ कामरेड, जो छद्म नामों से काम करते थे, आ कर मुझसे या वीरेन-मंगलेश से मिला करते थे। मेरे लन्दन प्रवास के दौरान पार्टी ने एक खुला संगठन ‘इण्डियन पीपल्स फ्रण्ट’ गठित कर लिया था। इसके साथ ही भूमिगत पार्टी को धीरे-धीरे खुले में लाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। पार्टी के महासचिव विनोद मिश्र और बहुत-से वरिष्ठ नेता भूमिगत थे, नागभूषण पटनायक पर मुकदमा चल रहा था। इस सबको और गतिशील बनाने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन बनाने की प्रक्रिया भी तेज कर दी गयी थी।

आपातकाल के दौरान और बाद में प्रतिबन्ध के दौर में नक्सलवादी विचारधारा से जुड़े सांस्कृतिकर्मियों ने जो नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चे बनाये थे, खास तौर पर बिहार में उन्हें एकजुट करके एक बड़ा सांस्कृतिक संगठन बनाने की योजना को सामने रख कर 1983 में इलाहाबाद में एक बड़ा सम्मेलन हो चुका था। इरादा यह था कि जहां "प्रगतिशील लेखक संघ" और "जनवादी लेखक संघ" मुख्य रूप से लेखक संगठन थे, प्रस्तावित "जन संस्कृति मंच" सांस्कृतिक गतिविधि को उसकी समग्रता में ले कर चलेगा। इसी सिलसिले में दिल्ली, पटना, लखनऊ, इलाहाबाद, कलकत्ता और दूसरे बड़े-छोटे शहरों में बैठकों और विचार-विमर्श का क्रम शुरू हो चुका था और गोरख पाण्डे, जो संयोजक थे, अक्सर इलाहाबाद आते थे।

इन चार वर्षों के दौरान इलाहाबाद में रचनाकारों की एक नयी खेप तैयार हो गयी थी; देवी प्रसाद मिश्र, बद्री नारायण, अखिलेश वगैरा, फिर चित्रकार अशोक भौमिक और रंगकर्मी अनिल भौमिक आजमगढ़ से इलाहाबाद आ गये थे। शहर में बड़ी गहमा-गहमी थी। सो, जल्द ही मैं भी इस गहमा-गहमी का हिस्सा बन गया, पहले की तरह।

इलाहाबाद की गहमा-गहमी का हिस्सा बनने के बावजूद मुझे चार साल लन्दन से लौट कर इलाहाबाद में पूरी तरह रमने में दिक्कतें पेश आ रही थीं। चार साल तक मैं प्रकाशन की दुनिया से दूर रहा था, बल्कि कहा जाय कि पांच साल तक क्योंकि लन्दन जाने से साल भर पहले से दिल्ली में मकान बनवाने के सिलसिले में अक्सर वहाँ जाना होता था। दूसरी बात थी कि अपनी बीमारी और अपने स्वभाव -- दोनों के चलते मेरे बड़े भाई ने प्रकाशन के काम में बेहद बेतरतीबी पैदा कर दी थी, जिसे मुझे तिनका-तिनका ठीक करना और उसी नीरस काम में सिर खपाना पड़ रहा था, जिससे भाग कर मैं लन्दन गया था।

तीसरा कारण यह था कि हालांकि पूरे घर भर ने मुझे लन्दन पत्र लिख कर यह आश्वासन दिया था कि जिन कारणों से मैंने लन्दन जाने का फैसला किया था, वे दोबारा मेरे आड़े नहीं आयेंगे, पर धीरे-धीरे मुझे पता चलने लगा कि मेरे भाई-भाभी-भतीजों के ये आश्वासन झूठे थे और सिर्फ मेरे पिता के जोर देने पर दिये गये थे। जैसे ही शुरूआती दौर ख़त्म हुआ और मैं प्रकाशन को फिर ढर्रे पर ले आया, उन्होंने फिर वही रवैया अख्तियार कर लिया था और धीरे-धीरे हमारे संयुक्त परिवार में दरारें पड़ने लगी थीं, जिनकी चोट मुझे सहनी पड़ रही थीं। मेरे भाई-भाभी उस बड़े संयुक्त परिवार के अन्दर अपना एक छोटा-सा संयुक्त परिवार बनाने के मंसूबे बना चुके थे और इन्हें अमल में लाने की दबी-छिपी कोशिशें कर रहे थे।

जाहिर है कि इन सब कारणों से सुलक्षणा और बच्चे, जो न चाहते हुए भी मेरी ही वजह से हिन्दुस्तान लौटे थे, तकलीफ पा रहे थे। सुलक्षणा से यूं भी मेरा एक तनाव-भरा रिश्ता रहा था। वह एक बेहद काबिल, गुणी और समर्थ औरत थी, लेकिन संयोग से उसकी शादी मुझसे हो गयी थी। हम दोनों जिन दुनियाओं से आते थे, वे बिलकुल अलग थीं। फिर चूंकि वह बहुत-सी बातों में मुझसे सहमत नहीं थी, इसलिए अगर मेरी वजह से उसे चोट पहुचंती तो भी दुख मुझे ही होता था और अगर मेरे परिवार की वजह से पहुंचती तब भी। इन सारी वजहों से मेरा दिल उचटा-उचटा रहता था और मैं कभी लखनऊ, कभी दिल्ली, कभी भोपाल और कभी किसी दूसरी जगह भागा फिरता था।
(जारी)

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चवालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४४



मित्रता की सदानीरा - २३


दिल्ली को अगर न गिनूं तो लन्दन से लौटने के बाद पहला सफर भोपाल बरास्ता जबलपुर और इटारसी था और यहीं से ज्ञानरंजन के साथ सम्पर्क का तार फिर से जुड़ गया था। यूं मेरे लन्दन प्रवास के दौरान ज्ञान के दो-एक पत्र आये थे और मैंने भी उसे लिखे थे, लेकिन इतनी दूर से खतो-किताबत कायम रखना थोड़ा मुश्किल था। वापस आ कर जब मुझे पता चला था कि मेरे इलाहाबाद पहुंचने की तारीख़ों में ज्ञान इलाहाबाद ही में था तो मुझे थोड़ा अजीब लगा था और मैंने उसे पत्र लिख कर शिकायत भी की थी। यह गालिबन इलाहाबाद की फौरी मुसीबतों से निपटने की योजना बनाने और सिविल लाइन्ज़ वाला दफ्तर खोलने के बाद मई-जून की बात है।

ज्ञान ने चिट्ठी का फौरन जवाब दिया था और जबलपुर आने का न्योता भी। उस तरफ जाने का इरादा मैंने पहले से बना रखा था, क्योंकि लन्दन से रवाना होने से कुछ महीने पहले मुझे इटारसी से एक महिला का व्यक्तिगत पत्र मिला था जो उन्होंने मेरे प्रसारण सुन कर लिखा था। डा. ज्योत्सना जेकब - कि यही उनका नाम था - पेशे से डाक्टर थीं और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता था, धर्मान्तरित ईसाई थीं। उनके पत्र से जहानत और सुरुचि झलकती थी और यह भी अन्दाजा होता था कि वे साहित्य में अच्छी पैठ रखती होंगी। मैंने उस पत्र का जवाब दे दिया था और हमारे बीच चिट्ठी-पत्री का एक सिलसिला शुरू हो गया था। चूंकि उस समय तक सीधी भोपाल जाने वाली रेलगाडि़यां अभी शुरू नहीं हुई थीं, इसलिए इलाहाबाद से भोपाल का रास्ता इटारसी हो कर ही जाता था। लिहाज़ा मैंने सोचा कि ज्ञान से मिल कर इटारसी होता हुआ भोपाल जाऊंगा, रास्ते में डा. ज्योत्सना जेकब से भी मिल लूंगा।

अब इतने बरस बाद मुझे महीना तो याद नहीं, पर ज्ञान के 28 अक्तूबर के पत्र से यह अनुमान होता है कि सितम्बर या अक्तूबर 1984 का महीना रहा होगा। जबलपुर पहुंच कर ज्ञान से मिलने पर यह एहसास बिलकुल नहीं हुआ कि मैं उससे चार-पांच साल के वक्फे के बाद मिल रहा था। उसकी वही पुरानी स्वभाविक गर्मजोशी थी और मुहब्बत जो अक्सर दोस्तियों में सिमेंट का काम करती है। बातें भी तकरीबन वैसी ही हुईं जो काफी दिनों बाद मिल रहे मित्रों में होती हैं। अलबत्ता, इस बार ज्ञान ने मुझसे कहा कि अब जब मैं आ गया हूं तो पहले की तरह ‘पहल’ की छपाई वगैरा का काम मैं संभाल लूं। उन दिनों शिवकुमार सहाय उसकी व्यवस्था करते थे और अकेले होने की वजह से खुद अपने प्रकाशन के काम से उन्हें मुनासिब वक्त और मोहलत नहीं मिलती थी।

ठीक-ठीक यह तो याद नहीं कि किस अंक से मैंने दूसरी बार पहल की छपाई का काम संभाला था, लेकिन फाइल में रखे ‘पहल-25’ के आवरण चित्र की डमी से अन्दाजा होता है कि गालिबन इसी अंक से सिलसिला दोबारा शुरू हुआ था। इस यात्रा की एक याद रखने वाली बात ज्ञान के साथ सदर जा कर कोसा की साडि़यां खरीदना था। मैंने एक दिन सुनयना को कोसा की साड़ी पहने देखा था और उसकी तारीफ की थी, तब ज्ञान ने मुझसे कहा था कि वहाँ कोसा की बहुत अच्छी साडि़यां मिलती हैं और मैं सुलक्षणा के लिए ले जाऊं। एक शाम हम सदर गये थे और चूंकि मैं सफर में था इसलिए साडि़यों के पैसे ज्ञान ही ने दिये थे और कहा था कि हिसाब बाद में हो जायेगा।

ज्ञान से मिलने के बाद मैं जबलपुर से इटारसी के लिए रवाना हुआ। पांच-छै घण्टे का सफ़र था, रात ढल चुकी थी जब रिक्शा मुझे स्टेशन से ले कर मालवीय नगर में डा. ज्योत्सना जेकब के बंगले ’आनन्द भवन’ पर पहुंचा। शायद साढ़े सात-आठ का वक्त था। आनन्द भवन इलाहाबाद के हमारे बंगले जैसा ही बंगला था। चौड़े बरामदे, बड़े-बड़े कमरे और खपरैल की छत वाला -- औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों के बनवाये बंगलों का-सा स्थापत्य था उसका और चारों तरफ बड़ा-सा खुला अहाता। मैंने सामान उतरवा कर दस्तक दी तो अन्दर से एक बूढ़ी महिला ने दरवाजा खोला और बताया कि डा. जेकब टहलने गयी हैं, मैं चाहूं तो बरामदे में इन्तज़ार करूं।

उन दिनों सेलफोन वगैरा नहीं थे। ज्ञान के यहाँ टेलिफोन था और डा. जेकब के यहाँ भी, पर उसके माध्यम से सम्पर्क अनिश्चित था और समय लेने वाला। सो मैंने एकाध दिन पहले पोस्टकार्ड डाल दिया था। वैसे भी, मुझे डा. ज्योत्सना जेकब के बारे में नहीं के बराबर जानकारी थी। न मेरे पास उनका कोई फोटो था। ऊपर से या तो इटारसी की बिजली सप्लाई कम्पनी ढीली-ढाली थी या डा. जेकब की घरेलू व्यवस्था ही ऐसी थी, सारा बंगला अजीब तरीके से अन्धकार में डूबा लगता था। एक अजीब रहस्यमयता-सी पूरी फिजा पर तारी थी।

अब मुझे यह याद नहीं है कि डा. जेकब के आने से पहले या बाद में -- मेरे खयाल में पहले ही, क्योंकि बाद में तो मुझे सोने से पहले अकेला नहीं छोड़ा गया था -- एक सज्जन बरामदे में नमूदार हुए और मेरे पास आ कर बैठ गये थे और इस परिचय के साथ कि वे डा. जेकब के भाई हैं, मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछते हुए जिरह-सी करते रहे -- मैं कौन था? कहां से आया था? दा. जेकब को कैसे जानता था ? उनसे मुझे क्या काम था ? डा. जेकब के संरक्षक-नुमा बड़े (या छोटे) भाई से अधिक वे मुझे एक सनकी किस्म के आदमी लगे।

मैंने इलाहाबाद के पुराने ऐंग्लो इण्डियन और इण्डियन क्रिश्चियन परिवारों में इसी तरह के कुछ लोग देखे थे जो 1947 के बाद खुद को चारों तरफ के बदलते माहौल में मिसफिट पा कर सनकी-से हो गये थे। उनकी जड़ें देसी धरती में थीं, जो एक बार फिर फिरंगी प्लावन से मुक्त हो कर खुली हवा में दिखायी देने लगी थी और वह निजाम जिसमें उनका प्रत्यारोपण हुआ था, सूख गया था। वे अधर में थे। कुछ अंग्रेजों के साथ इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया निकल भागे थे, बहुतों ने खुद को नयी परिस्थितियों में ढाल लिया था। कुछ ऐसे थे जो खोये-खोये, न तो पूरी तरह हिन्दुस्तानी थे, न पूरी तरह अंग्रेज। उनकी मरण थी।

बहरहाल, अपनी ‘जिज्ञासाएं’ शान्त करके वे तो चले गये, मैं लगातार एक अस्वस्ति का अनुभव करता हुआ बरामदे में बैठा रहा। मुझे एकाध बार यह भी लगा कि यह मैं किस चक्कर में पड़ गया हूं, क्योंकि ज्योत्सना जेकब के पत्रों से किसी किस्म की रहस्यमयता, या असामान्यता नहीं झलकती थी। दिन का वक़्त होता तो सम्भव है मैं ने अपना सामान उठाया होता और वहां से भग खड़ा होता। पर अब आठ से ऊपर हो चले थे और न तो मुझे रास्तों का कुछ अता-पता था, न गाड़ियों का। डा. जेकब के भाई ने एक पत्र-मित्र से सम्भावित मुलाकात को जान के वबाल में तब्दील कर दिया था। बहरहाल।

थोड़ी देर बाद किसी के आने की पदचाप सुनायी दी। बरामदे के बाहर घिरे अंधेरे से सूती साड़ी में मलबूस, सांवले रंग और देसी नख-शिख की एक नारी आकृति धीरे-धीरे रोशनी में नमूदार हुई। बरामदे की सीढि़यां चढ़ कर वह महिला, जो ग़ालिबन 35-36 बरस की रही होगी, मेरे पास आ पहुंची। मैं तब तक उठ कर खड़ा हो गया था। मैंने अपना परिचय दिया तो उस महिला ने कहा कि डा. जेकब तो बाहर गयी हैं, वे उनकी बहन हैं। उनके चेहरे पर कुछ ऐसा भाव था कि मुझे लगा कि वे मेरे साथ खिलवाड़ कर रही हैं। मैंने क्या जवाब दिया, मुझे याद नहीं, पर इतना तय है कि उस सारी रहस्यमयता, जिरह और चुहलबाजी से मेरे चेहरे पर खीझ जरूर झलकी होगी, क्योंकि जल्दी ही उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए यह जाहिर कर दिया कि वे ही डा. जेकब हैं। फिर वे मुझे अन्दर के कमरे में ले गयीं, जहां उन्होंने मेरे ठहरने का इन्तज़ाम कर रखा था।

मैं थोड़ा सहज जरूर हो गया था, लेकिन भीतर मुझे वह निश्चिन्तता और सुकून नहीं था, जिसकी मैं उम्मीद करता था। यह तो मुझे अन्दाजा था कि डा. जेकब अविवाहित हैं और पास ही के शायद ईसाई मिशनरियों के ‘निर्मला हस्पताल’ में डाक्टर हैं; उनका बंगला भी उनके पुरखों के ईसाई सम्पर्कों की देन था। पर उनके घर में कुछ अजीब-सा अघरेलूपन था। एक भुतहापन-सा। मुक्तिबोधियन।

बहरहाल, उन्होंने बाथरूम दिखाया जो बंगले के दूसरे खण्ड में पीछे को था, हाथ-मुँह धोने की व्यवस्था की और फिर मेज़ पर खाना लगवाने से पहले मुझे बियर भी पेश की। लेकिन बातें उखड़ी-उखड़ी-सी ही होती रहीं, उनके पत्रों में जो गर्मजोशी झलकती थी, वह कहीं नहीं थी। इसके उलट वह एक पीडि़त, अकेली, उन्मन नारी का वार्तालाप था। बाद की किसी मुलाकात में शायद इतना अजीब और तबियत को उचटाने वाला न लगता, पर पहली ही भेंट में मुझे बेचैन और बेकल कर गया था। अगर साधन और सुविधा होती तो मैं खाना खाने के बाद ही भाग निकलता। ज्योत्सना ने अपने भाई के बारे में भी शिकायत की थी। ऐसा मुझे आभास हुआ था कि वह कुछ करता-धरता नहीं था और घर ज्योत्सना ही चलाती थी। तिस पर भी उस घर में घर जैसी कोई बात नहीं थी। कुछ द्वीप थे जो अपने अकेलेपन में उस बड़े-से बंगले की नीम-अंधेरी रहस्यमयता में खोये हुए थे। पूरा अंधेरा होता तो भी कुछ बचत थी, इस नीम-अंधेरे ने तो उस अमंगल-से, सिनिस्टर तिलिस्म को और गहरा कर दिया था।

खैर, खाना-वाना निपटा और आखिरकार मैं सोने चला गया। सोते वक्त ही मैंने तय कर लिया था कि सुबह होते ही मैं वहाँ से चल दूंगा। सुबह हुई तो मैं सामान बांध कर तैयार हो गया। जाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। तब एक और अचरज प्रकट हुआ। डा. जेकब ने दो-तीन कमीजों और दो-तीन पतलूनों के कपड़े मुझे ला कर दिये कि उन्हें वे मेरे लिए लायी थीं। मैंने उनसे कहा कि अभी तो मैं तुरन्त भोपाल जाना चाहूंगा, इन कपड़ों को वे रखें, अगली बार मैं आऊंगा तो ले लूंगा।
हारे हुए स्वर में उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं हड़बड़ी न करूं, वे मुझे कार पर भोपाल छोड़ आयेंगी, लेकिन वे कपड़े वे बड़े प्रेम से भेंट-स्वरूप लायी थीं, उन्हें मैं रख लूं। तब इसे समझौते का एक रास्ता बूझ कर मैंने कपड़े अपने बक्से में रख लिये।

नाश्ता करके तकरीबन दस बजे डा. जेकब ने कार निकाली और मुझे बिठा कर भोपाल की लिए चलीं। सफर एक-डेढ़ घण्टे का था और सारा रास्ता वे मुझे उलाहने देती आयीं कि उन्होंने क्या कुछ सोच रखा था, मैंने उनके सारे कार्यक्रम को उलट-पलट दियाजाहिर है डा. जेकब को यह उम्मीद नहीं थी कि मैं इस तरह तत्काल वहाँ से रवाना होने पर आमादा हो जाऊंगा। उन्होंने बहुत इसरार किया कि मैं दो-एक दिन ठहर कर जाऊं, वे मुझे आस-पास के इलाके में घुमाने ले चलेंगी, कि उनके पास कार है कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन मैं हठ बांधे था। बीच-बीच में वे रोती भी रहीं।

आज सोचता हूं कि अगर मैं दिन के वक्त इटारसी पहुंचा होता और मैंने कुछ और समय डा. जेकब के साथ बिताया होता तो शायद ऐसी अप्रिय स्थिति न पैदा हुई होती। लेकिन तब ऐसी विचित्र परिस्थितियों से निपटने की सलाहियत मुझमें नहीं थी। बाद में एक बार जब वे इलाहाबाद आयीं और मुझसे मिलने मेरे घर आयीं तो हम बेहतर ढंग से मिले थे। तब परिवार संयुक्त था, मेरे माता-पिता जीवित थे, सुलक्षणा भी वहीं थी और सबने उनका स्वागत किया था। इसी तरह एक बार मेरे हैदराबाद जाते समय वे मुझसे स्टेशन पर मिलने आयी थीं और साथ में सैंडविच और काफी लायी थीं। गाड़ी कुछ देर इटारसी पर रूकती थी और हमने वहीं बेंच पर बैठ कर बातें की थीं। लेकिन उनसे पहली मुलाकात की स्मृति इतनी गहरी थी कि बाद की सहजता भी उसे धूमिल नहीं कर पायी थी। धीरे-धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हो गया था और बाद में ख़ुद मेरी ज़िन्दगी जिस तरह के तूफ़ानों में घिर गयी थी और मुझे किसी तरह अपने औसान क़ायम करने के लिए जो तगो-दौ करनी पड़ी थी, उसमें ज्योत्सना की खोज-खबर लेना सम्भव ही नहीं रहा था। वे भी यक़ीनन मुझ जैसे अनगढ़ मित्र से निराश ही हुई होंगी, इस में मुझे कोई शक नहीं है। किसी बहिया में बहे जा रहे दो तिनकों की तरह हम अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि लहरों के निर्णय से एक-दूसरे के करीब आये थे और लहरों के ही चलते अलग-अलग हो कर जाने कहां से कहां जा निकले थे।
(जारी)

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४५



मित्रता की सदानीरा - २४

इटारसी से भोपाल तक का रास्ता उन दिनों कार से भी लगभग डेढ़ेक घण्टे का था, लेकिन हमें कोई जल्दी तो थी नहीं, सो डा. जेकब औसत रफ़्तार से ही आयी थीं। कर के अन्दर भी माहौल चूंकि बहुत बोझिल हो गया था इसलिए मुझे रास्ते में देखी गयी दृश्यावली की कुछ याद नहीं है, गो उस इलाके का एक अपना ही सौन्दर्य है। मेरा सारा ध्यान भोपाल पहुंचने की तरफ़ लगा हुआ था।

1984 तक राजेश जोशी शादी कर चुका था और मारवाड़ी रोड पर ताज स्टूडियो के ऊपर वाला मकान छोड़ कर जवाहर चौक पर बनी एक बहुमंजि़ला इमारत के फ्लैट में आ गया था। उन दिनों हालांकि टी.टी. नगर और जवाहर चौक में बसावट घनी होनी शुरू हो गयी थी, पर उसकी रफ्तार आज की-सी या नब्बे के भी दशक की-सी हरारत-जदा नहीं थी। राजेश का फ्लैट जिस इमारत में था, वह मुख्य सड़क भदभदा रोड से थोड़ा पीछे हट कर थी, सामने दुकानों की कतार अभी नहीं बनी थी और घूम कर जाने की बजाय सड़क पर उतर कर सामने की खाली जगह पार करते हुए सीधे राजेश के फ्लैट तक पहुंचा जा सकता था।

डा. जेकब ने अपनी फिएट सड़क पर ही रोक दी थी और फीकी-सी मुस्कान के साथ, जो देर तक मेरा पीछा करती रही, मुझे विदा दी थी। सामान के नाम पर मेरे पास एक अटैचीनुमा बैग था। मैं उसे उठा कर राजेश के फ्लैट की तरफ बढ़ गया था।

अर्से बाद राजेश से मुलाकात ने पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी थीं, जब वह मारवाड़ी रोड पर रहता था और मैं आ कर उसके पास ठहरा करता था। नरेन्द्र का तबादला चूंकि होशंगाबाद हो गया था, इसलिए उस बार राजेश के अलावा शायद राजेन्द्र शर्मा से ही भेंट-मुलाकात हुई थी या फिर रामप्रकाश त्रिपाठी से। भोपाल का नक्शा भी पहले की बनिस्बत बदला हुआ नज़र आ रहा था। 1977-78 का सुस्तरौ, मस्त-मलंग भोपाल धीरे-धीरे उस तब्दीली की राह पर कदम बढ़ा चुका था जो 1980 और 90 के दशकों में उसकी काया पलट देने वाली थी। चूंकि यह पहला सफर सिर्फ पुराने सम्बन्धों को ताजा करने की खातिर किया गया था, इसलिए पुराने दोस्तों से मिलता-मिलाता मैं दिल्ली चला आया और फिर इलाहाबाद।

इलाहाबाद पहुंच कर मैं कुछ ही दिन बाद पटना चला गया था और पटना से मुजफ्फरपुर के रास्ते पर था, जब हमें श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या का समाचार मिला।

हालांकि मुजफ्फरपुर में सिखों के खिलाफ वैसे दंगे नहीं भड़के थे, जैसे दिल्ली और दूसरे कुछ शहरों में, तो भी हो-हल्ले और उपद्रव की आशंका को देखते हुए प्रशासन ने आंशिक रूप से कफ्र्यू लगा दिया था। जितने दिन हम मुजफ्फरपुर रहे, मेरा समय विजयकान्त, राजेन्द्र प्रसाद सिंह और पद्माशा के साथ बीता। तीन-चार दिन बाद हालात कुछ सामान्य होने पर मैं इलाहाबाद आ गया था, जहां ज्ञान का पत्र मेरा इन्तज़ार कर रहा था।

‘पहल’ की छपाई हाथ में लेने के साथ ही चूंकि मैं ज्ञान से अपनी लम्बी कविता ‘उत्तराधिकार’ को ‘पहल पुस्तिका’ के रूप में छापने का आश्वासन ले आया था, जैसे कि पहले भी नेरूदा की कविता ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ का मेरा अनुवाद छपा था या राजेश की लम्बी कविता ‘समर गाथा’ या फिर मयाकोवस्की की कविता ‘लेनिन’ का अजय कुमार द्वारा किया गया अनुवाद, इसलिए मेरी व्यस्तता बढ़ गयी थी। अलावा इसके मैं ‘जनसत्ता’ के लिए नियमित रूप से लेख-टिप्पणियां और समीक्षाएं लिखने लगा था।

इस बीच गालिबन ज्ञान एकाध बार आया था, लेकिन इलाहाबाद में उसके साथ ‘पहल’ के काम को समझने-समझाने के अलावा पहले की तरह घूमने-फिरने और अड्डेबाजी करने के अवसरों की स्मृति नहीं है। वह कालिया के ‘इलाहाबाद प्रेस’ जरूर जाता और चूंकि कालिया के यहाँ मैंने न जाने की ठानी हुई थी, इसलिए यह एक अजीब-सी विभाजित दोस्ती थी। मंगलेश, वीरेन और बड़ोला साहब इलाहाबाद से विदा हो चुके थे। उनके साथ ज्ञान की दोस्ती को साझा करना तो मुझे गवारा था, पर कालिया के साथ नहीं, क्योंकि कालिया की जैसी आदत है, वह कोई टुच्ची बात करने से खुद को रोक न पाता था और मेरी प्रकृति ऐसे व्यवहार को तरह दे जाने की नहीं थी और मैं ज्ञान को किसी अस्वस्तिकारक स्थिति में नहीं डालना चाहता था।

मेरे पिता कहते भी थे कि दोस्तियां और प्रेम-सम्बन्ध जरूरी नहीं कि दुतरफा हों; अक्सर वे इकतरफा होते हैं। लिहाजा, चूंकि मैं ज्ञान को बहुत पसन्द करता था, इसलिए उससे ठेस पहुंचने के बाद भी मैंने दिल को समझा लिया था कि दोस्ती नामक इस नदी से जितना जल तुम्हें मिलता है, ले लो; वह दूसरों को भी सींचती है, कई बार तुम्हारे तट को सूखा रख कर उनके किनारों को हरा-भरा बनाये रखती है तो इस पर कुढ़ो मत।

वैसे भी उन वर्षों में मेरा समय और ध्यान बहुत सारी दूसरी बातों में लगा हुआ था। लन्दन से आने के बाद सीपीआई माले लिबरेशन के मेरे पुराने साथियों ने मुझे प्रस्तावित सांस्कृतिक संगठन "जन संस्कृति मंच" की तैयारियों में शामिल कर लिया था। गोरख पाण्डे उन दिनों शहर-दर-शहर इस सिलसिले में दौरा कर रहे थे और अक्सर इलाहाबाद आते।

मेरा इरादा दिसम्बर 1984 में फिर भोपाल की तरफ जाने का था और सोचा था कि जबलपुर भी जाऊंगा, लेकिन चूंकि दिसम्बर में भोपाल गैस काण्ड हो गया, इसलिए वहाँ जाने का इरादा मुल्तवी हो गया था और मैंने इस बीच लखनऊ का एक चक्कर लगाया था। वहाँ अजय सिंह और अनिल सिन्हा से मुलाकात हुई थी और शायद अजय के घर पर ही मैंने "उत्तराधिकार" का पाठ किया था। वहाँ अजय और अनिल के अलावा एक नये साथी सुप्रिय लखनपाल भी मौजूद थे, जिन्होंने कुछ अच्छे सुझाव दिये थे।

चूंकि मार्च 1984 में मेरे लन्दन आने के बाद से अक्तूबर 1984 में ‘जन-संस्कृति मंच’ के स्थापना सम्मेलन तक वक्त इस कदर हलचल और सरगर्मियों से भरा था कि भोपाल, दिल्ली, लखनऊ, पटना और जबलपुर की यात्राओं को एकदम बाकायदगी से सिलसिलेवार सजाना मुमकिन नहीं है। थोड़ी-बहुत मदद पत्रों से या ‘जनसत्ता’ और ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी रचनाओं की कतरनों से मिल सकती है और मैंने उन्हीं के आधार पर घटनाओं को बयान करने की कोशिश की है। ऐन मुमकिन है कोई वाकया -- खास तौर पर बोलना-बतियाना -- एक यात्रा से हट कर दूसरी यात्रा में नत्थी हो गया हो पर इससे ज़्यादा उसमें फेर-फार नहीं हुआ है।

चूंकि ज्ञान के 28 अक्तूबर, 1984 के पत्र में साडि़यों के पसन्द आने के बारे में दरियाफ्त की गयी है, इसलिए मेरी पहली जबलपुर और भोपाल यात्रा उससे पहले ही हुई होगी। अक्तूबर अन्त से 4-5 नवंबर, 1984 में मैं पटना-मुजफ्फरपुर में था। उसके बाद भोपाल मैं गालिबन फरवरी में गया था। बीच में लखनऊ और दिल्ली के चक्कर लगे थे, क्योंकि ‘उत्तराधिकार’ के छपने से पहले उसे लखनऊ में सुप्रिय लखनपाल तथा अन्य मित्रों को सुनाने की मुझे याद है और दिसम्बर में असगर वजाहत की फिल्म ‘गजल की कहानी’ को देख कर नवभारत टाइम्स में उसकी समीक्षा करने की भी। चूंकि उदय प्रकाश के दूसरे कविता संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा ‘जनसत्ता’ में 3 फरवरी, 1984 को छपी और इसी के बाद भोपाल जाने पर वहाँ मित्रों ने टीका-टिप्पणी की थी (जिसका ब्योरा आगे आयेगा) और भोपाल से दिल्ली आने पर मार्च में मैंने भोपाल गैस त्रासदी की पृष्ठभूमि में ‘विश्व कविता उत्सव’ मनाने पर तीखी टिप्पणी जनसत्ता के लिए लिखी थी, इसलिए मेरी भोपाल यात्रा मध्य फरवरी में ही किसी समय हुई होगी। ये ब्यौरे मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि अक्सर स्मृतिलेखाकारों पर झूठी-सच्ची और मनघड़न्त बातें लिखने के आरोप लगाये जाते रहे हैं।

फरवरी 1985 में जब मैं भोपाल गया तो हस्बमामूल राजेश के यहाँ ही ठहरा। शशांक उन दिनों वहीं था, जबकि नरेन्द्र तबादले के बाद गालिबन होशंगाबाद से विदिशा चला गया था और विजयबहादुर सिंह के साथ संगत कर रहा था। सबसे पहले तो मुझे राजेश ने आड़े हाथों लिया कि मैंने उदय प्रकाश के कविता-संग्रह ‘अबूतर कबूतर’ की समीक्षा क्यों की और अगर की तो तारीफ क्यों की। मुझे आज तक राजेश के शब्द याद हैं। उसने कहा था, ‘साल भर से वह संग्रह इग्नोर्ड पड़ा हुआ था, तुम्हीं रह गये थे उस पर लिखने के लिए।’ शशांक ने इस ताईद में टिप्पणी की थी और उदय को नवगीतकार बताया था। शशांक को तो खैर मैंने डपट दिया था, लेकिन राजेश को समझाया था कि अव्वल तो हमें अपनी साथी रचनाकारों के प्रति विद्वेष से काम नहीं लेना चाहिए, उनसे मतभेद हों, झगड़ा हो, मनमुटाव हो, पर लड़ाई को रचना के स्तर पर नहीं ले जाना चाहिए। ठीक है, अगर किसी का लिखा हमें पसन्द नहीं आता तो इसका यह मतलब नहीं कि हम उसके चुप हो जाने की कामना करें या इसके लिए प्रयत्नशील हों। दूसरे यह कि मुझे वह संग्रह पढ़ कर जैसा लगा वैसा मैंने लिखा, राजेश को मेरी निष्ठा पर शक करने का कोई हक नहीं है। मैं नामवर जी नहीं हूं कि वक्त के मुताबिक अपनी राय जाहिर करूं या बयान बदलूं।

राजेश ने आगे कुछ नहीं कहा था और बात वहीं ख़त्म हो गयी थी, लेकिन मुझे बड़ा अजीब लगा था। कारण यह कि इस समीक्षा के प्रकाशित होने के बाद दिल्ली में पंकज सिंह मुझसे कह चुका था - क्या तुम आशीर्वादीलाल हो गये हो।

यह भी उस बड़ी तब्दीली के छोटे-छोटे संकेत थे जो अस्सी के दशक में साहित्य और साहित्यकारों के जगत में आती जा रही थी, पुरानी क़दरों, सम्बन्धों, मूल्यों को तहस-नहस करती।
(जारी)


देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छियालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४६



मित्रता की सदानीरा - २५


आज सोचता हूं तो लगता है कि 1980 के दशक ही से साहित्यिक जगत में वह तब्दीली आनी शुरू हो गयी थी, जो आज अपने उरूज पर है - या तो परस्पर पीठ-खुजाऊ, अहो-अहो मार्का गिरोह हैं या फिर भयंकर वैमनस्य और हर स्तर पर उन साथी रचनाकारों को नीचा दिखाने की कोशिश, जिनसे हमारे कारूरे नहीं मिलते। छोटे-छोटे क्षत्रपों की तरह के दरबार हैं। पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ और समझौते हैं। लेखन जनता की आकांक्षाएं व्यक्त करके उनके संघर्षों में हाथ बटाने का उपक्रम नहीं, बल्कि सत्ता के और निकट जाने यहाँ तक कि बज़ाते-खुद सत्ता बन जाने का साधन है। कब कौन कहां टूट कर चला जायेगा कोई हिसाब ही नहीं है। ढेरों लोग अब जिस्म नहीं सिर्फ़ दाहिना हाथ बनने की फ़िक्र में ग़लतान रहते हैं, ताकि आराम से बदलते हुए लोगों में फ़िट हो जायें। एक बन्दा जाये तो ख़दशा न रहे कि बाबू अब अपना क्या होगा। दाहिने हाथ की तलाश दूसरी तरफ़ को भी होती है। ऐसी अजीबोगरीब हमबिस्तरियां हैं कि दिमाग चकरा जाता है। पूरा प्रयोजन मूलक हिन्दी का युग है - प्रयोजन है तो मित्रता और संग-साथ है, अन्यथा जै राम जी की।

बहरहाल, उस यात्रा की दूसरी बात जो मुझे याद रह गयी है वह ज्ञानरंजन के साथ राजेश जोशी का तीखा पत्र-व्यवहार था जो हाल ही में हुआ था। राजेश का कहना था कि भोपाल गैस काण्ड और सिखों के नरसंहार के बाद प्रगतिशील लेखक संघ को -- जिसका वह सदस्य था और ज्ञानरंजन महासचिव और परसाई जी अध्यक्ष -- कुछ बयान देने चाहिएं थे, जनता के साथ खड़ा होना चाहिए था। बकौल राजेश, उसने आवाहन किया था कि प्रलेस के जितने लोग उच्चस्तरीय समितियों में थे, उन्हें विरोध में बाहर आ जाना चाहिए। जबकि प्रगतिशील लेखक संघ इससे कतरा रहा था। यह देख कर राजेश ने इस्तीफा दे दिया था। दिलचस्प बात यह थी कि प्रलेस भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ी हुई थी (जैसे जलेस मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से और जसम सीपीआई माले लिबरेशन से) और सभी कम्यूनिस्ट पार्टियों की तरह विरोध में किसी का इस्तीफा नहीं स्वीकारा करती थी। राजेश के इस्तीफे के दो महीने बाद उसे प्रलेस से निकाल बाहर किया गया और इसकी सूचना सबको दे दी गयी। राजेश पुराना यूनियनबाज़ था जबकि न तो ज्ञान को, न परसाई जी को यूनियनबाजी हथकण्डों का इल्म था। राजेश ने जवाबी सर्कुलर जारी करके यह सवाल उठाया था कि जब वह पहले ही इस्तीफा दे चुका था तब उसे दो महीने बाद निकालने का सर्कुलर जारी करने का क्या तुक था। और इस जवाबी सर्कुलर में राजेश ने संगठन पर और भी आरोप लगाते हुए रायता फैला दिया था।

उधर ज्ञानरंजन के एक आरोपों में से यह था कि राजेश पहले से संगठन विरोधी कार्रवाइयां कर रहा था। इस आरोप में कुछ सच्चाई भी थी, क्योंकि माकपा और जलेस से भी राजेश का कुछ टांका भिड़ा हुआ था। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि उसी समय राजेश ने मुझे रमेश उपाध्याय का वह अन्तर्देशीय भी दिखाया था, जिसमें रमेश ने और बातों के अलावा अन्त में राजेश के सर्कुलर का हवाला देते हुए बड़े मानीखेज़ ढंग से पूछा था कि अब उसका क्या करने का इरादा है। शब्द मुझे इतने वर्षों बाद याद नहीं रह गये हैं, पर उनमें निहित न्योता पंक्तियों के बीच साफ पढ़ा जा सकता था।

राजेश के रवैये के बारे में ज्ञान को जो एतराज़ थे, वे इतने बेबुनियाद नहीं थे; इसका कुछ-कुछ मुझे भी अन्दाज़ा रहा था। कारण यह कि जब मैं 1975 में राजेश से मिला था तब उसने अशोक वाजपेयी और उनकी पत्रिका "पूर्वग्रह" के खि़लाफ़ जो सैद्धान्तिक लड़ाई छेड़ रखी थी, वह उसने बहुत जल्दी ताक पर धर दी थी, इसलिए नहीं कि अशोक वाजपेयी का अपना रुख़ बदल गया था, बल्कि इसलिए कि राजेश को अपने भर्तृहरि के अनुवाद "पूर्वग्रह पुस्तिका" के तौर पर छपवाने थे। "पहल" की ओर से प्रकाशित की जा रही पुस्तिकाओं में पहली पुस्तिका -- माच्चू पिच्चू के शिखर -- के मेरे अनुवाद बाद दूसरी पुस्तिका राजेश की लम्बी कविता "समर गाथा" थी। इधर का मोर्चा सर कर लेने के बाद राजेश ने प्रकट ही "उधर" के मोर्चे को भी सर करने की ठानी होगी।

वैसे भी राजेश के लिए प्रतिबद्धता महज़ अपने प्रति जुड़ाव का नाम है, उसका सिद्धान्तों से कुछ लेना-देना नहीं है। कभी श्रीकान्त वर्मा के ख़िलाफ़ हो गये कभी श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार ले लिया; कभी महाश्वेता देवी के लिए आवाज़ बुलन्द की और फिर दूसरे ही दिन गोपीचन्द नारंग से पुरस्कार ले लिया, जो घोषित तो हो ही चुका था और घर भी भेजा जा सकता था। दर असल, यही वह बीज था जो आज अपने सब से ज़हरीले रूप में प्रकट हुआ है जब हमारे साथी, जो जनता की पक्षधरता का दावा करते नहीं थकते, कुख्यात पुलिस अफ़सरों की पुस्तकों के लोकार्पण में बेशर्मी से मुस्कराते हुए उनके साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं और नाना प्रकार से उपकृत होते हैं।

आज तो प्रलेस और जलेस से जुड़े लेखक जसम से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ मिल-जुलकर कार्यक्रम करने से नहीं हिचकते और यही हाल भाकपा, माकपा और भाकपा माले लिबरेशन का है, जिन्होंने अपनी-अपनी गलत राहों पर चलते हुए हाल ही में बिहार के प्रान्तीप चुनावों में मुँह की खायी है और कहा जाय मैदान भगवा भेडि़यों के लिए खुला छोड़ दिया है, लेकिन उन दिनों भाकपा और प्रलेस के लोग जिन्होंने आपातकाल में इन्दिरा निरंकुशता का समर्थन किया था और भाकपा तथा जलेस के लोग जिन्होंने आगे चल कर वी.पी. सिंह की सरकार की बैसाखी बनने में भाजपा का साथ दिया था और बंगाल में पार्टी की तानाशाही कायम कर दी थी, भाकपा माले लिबरेशन से वैसे ही कन्नी काटते थे जैसे भद्रजन मुहल्ले के गुण्डे से और इस पार्टी पर सी.आई.ए. के एजेण्ट होने का और विदेशी पैसे से चलने का आरोप लगाते थे। ये वही लोग थे, जिन्होंने अपने समय में सोवियत संघ से अकूत पैसे इस या उस तरीके से हासिल किये थे।

चूंकि मैं तब तक जसम के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में जुटा हुआ था। इसलिए राजेश ने थोड़ी-बहुत छींटाकशी मुझ पर की थी, लेकिन एक तो वह मुझे बहुत पहले से जानता था, दूसरे मेरे अलावा वेणु भी तीसरी धारा का समर्थक था और वह भी राजेश के मित्रों में था इसलिए यह छींटाकशी हंसी-मजाक के दायरे से बाहर नहीं हुई थी।

पाला बदलने को लेकर मेरे मन में हमेशा एक शंका रही है, इसलिए राजेश के सर्कुलर से मुझे अफसोस हुआ था। ज्ञान रंजन और परसाई जी में कमियां रही होंगी, इससे मुझे एतराज नहीं। परसाई जी तो अर्से से भाजपा का विरोध और इन्दिरा गान्धी और उनकी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते रहे थे, लेकिन ज्ञान ने "पहल" में सभी धाराओं के वामपन्थियों को प्रकाशित किया था। राजेश का इस्तीफा देना तो मेरी समझ में आता था, पर आनन-फानन जलेस में जा जुड़ना नहीं। शायद मैं थोड़ा पुराने ढंग से चीजों को देख रहा था, जहां संस्कृति और राजनीति में आपसी सम्बन्ध होता था और विचारधारा इस सम्बन्ध को सुनिश्चित और परिभाषित करने का काम करती थी। चूंकि विचारधारा के स्तर पर हमारा यानी नक्सलवादी धारा की वामपन्थी पार्टियों और नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चों का मतभेद भाकपा और माकपा और उनके लेखक संगठनों से था इसलिए हम जसम बनाने की ओर बढ़ रहे थे। राजेश का मतभेद विचारधारा के स्तर पर नहीं, बल्कि कार्यशैली के स्तर पर था। बाद में भाकपा और जलेस भी कांग्रेस समर्थन के थान पर जा खड़े हुए और एक लम्बे समय तक कांग्रेस और भाजपा दोनों का विरोध करने वाली पार्टी भाकपा माले लिबरेशन अन्ततः चुनावी समझौतों की जिन दलदल में जा फंसी वह अब शीशे की तरह साफ हो चुका है।

लेकिन तब इस नौबत को आने में देर थी और मेरा ध्यान ज्ञानरंजन-राजेश जोशी-परसाई-प्रलेस विवाद से कहीं ज़्यादा जसम की तैयारियों में लगा हुआ था। तो भी चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बावजूद अशोक वाजपेयी भोपाल में विश्व कविता उत्सव करने पर आमादा थे, इसलिए मैं इस सम्वेदनहीनता के खिलाफ राजेश के साथ था। बीच की कथा यह थी कि उस समय श्रीकान्त वर्मा संस्कृति सचिव नाज़रेथ की मदद से विश्व कविता उत्सव दिल्ली में करना चाहते थे। उधर अशोक वाजपेयी इसे भोपाल में करने के लिए इतने व्यग्र थे कि उन्होंने विश्व कविता उत्सव को भोपाल में पहले से तयशुदा तिथियों में करने के औचित्य को ‘मुर्दों के साथ कोई मर नहीं जाता’ जैसा हृदयहीन वक्तव्य दे कर साबित करने की चेष्टा की थी। उनके इस बयान की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और जब मैं भोपाल से दिल्ली पहुंचा तो वहाँ कविगण -- खास तौर पर जो अशोक वाजपेयी के खेमे में नहीं थे -- नाराज़ मधुमक्खियों की तरह भनभना रहे थे।
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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सैंतालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४७



मित्रता की सदानीरा - २६


उन दिनों जनसत्ता और नवभारत टाइम्स के दफ्तर, आईटीओ के पास बहादुर शाह जफर मार्ग पर थे। मंगलेश जनसत्ता में था और रब्बी और विष्णु नागर वगैरा नभाटा में। दिन भर वहाँ लोगों जमघट लगा रहता और अशोक वाजपेयी के खिलाफ बयान की तैयारियां चलतीं। रघुवीर सहाय भी इन तैयारियों में शामिल थे। जाहिर है, अनेक कवि अतीत में अशोक वाजपेयी द्वारा उपकृत हो चुके थे, कला परिषद और भारत भवन जा चुके थे, बहुत-से कवि मिजाजन मरंजामरंज थे, इसलिए सारी कोशिश बयान की धार को गोठिल होने से बचाने की थी। अन्तिम प्रारूप को रघुवीर सहाय ने काफी डाइल्यूट करके पास कर दिया और अब इन्तजार सिर्फ नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षरों का था। ये दोनों तब जे.एन.यू. में थे और लगातार टालमटोल कर रहे थे। अन्त में उन्होंने बयान पर हस्ताक्षर नहीं ही किये थे और वह उनके नामों के बिना जारी हुआ था।

इस बीच इस सारी ढीलापोली से खीझ कर मैंने एक टिप्पणी ‘उत्सव या तेरही’ के शीर्षक से जनसत्ता में प्रकाशित करा दी। अगले दिन जब रघुवीर सहाय मिले तो उन्होंने शिकायत के-से अन्दाज़ में कहा था कि आपने तो टिप्पणी में सब कुछ लिख ही दिया है। मानो मैंने कोई सेंध लगा दी थी। मैंने उनसे कहा था कि अव्वल तो मेरी टिप्पणी आपके बयान से कहीं अधिक तुर्श है, दूसरे वह इस मामले में कुछ ऐसे पक्षों पर भी चर्चा करती है जो आपके बयान के दायरे के बाहर छूट गये है। और तीसरे यह कि आप लोगों के ढुलमुल रवैये से मेरा मन उकता चुका था। जहां इतने सारे लेखक हस्ताक्षर कर रहे थे, वहाँ नाहक नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह के हस्ताक्षर करने की बाट जोहते रहना उन सारे लेखकों के अपमान-सरीखा है, जिन्होंने बिला चूं-चरा के बयान पर हस्ताक्षर कर दिये थे। सहाय जी दुखी हो कर चले गये थे और वह बयान बाद में वैसे ही जारी हुआ था। इस बीच मेरी टिप्पणी को ‘शव पर बैठ कर बहूभात खाना’ का शीर्षक दे कर नव भारत टाइम्ज़ और अमर उजाला ने उद्धृत किया था।

दिल्ली से मैं वापस इलाहाबाद चला गया था और बाकी काम-काज के साथ पहल के अंक और उनके साथ जाने वाली पुस्तिकाएं छपवाने में जुट गया था। ज्ञान उन दिनों मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ में बहुत सक्रिय था, कमला प्रसाद पाण्डे भी उसके साथ थे और संघ के सम्मेलन और बैठकें जगह-जगह हो रही थीं। मैं खुद 25, 26, 27 अक्तूटर 1985 को होने वाले जन संस्कृति मंच के स्थापना सम्मेलन की तैयारियों में व्यस्त था। ऐसी हालत में ज्ञान से भेंट-मुलाकात कम और खतो-किताबत ज़्यादा होती चली गयी थी और वह भी बड़ी कारोबारी क़िस्म की।

उस जमाने में किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को छपाने के लिए आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं। दिल्ली जैसी कुछ जगहों में फोटो-कम्पोजिंग की तकनीक आ गयी थी, लेकिन उसका भी इस्तेमाल इक्का-दुक्का साधन-सम्पन्न लोग ही कर पाते थे। हाथ से कम्पोजिंग होती थी और चूंकि बड़े-से-बड़े प्रेस में भी असीमित टाइप नहीं होता था, इसलिए अमूमन दो-चार फर्मे ही एक बार में कम्पोज हो पाते। इनके भी दो-दो बार प्रूफ पढ़ कर गलतियां सुधारने और फिर उन्हें छाप कर आगे की सामग्री को कम्पोज करने के लिए टाइप खाली करने में समय लगता था। इसलिए देर-सबेर होती ही रहती और ज्ञान की सारी शिकायतें ‘पहल’ या ‘पहल पुस्तिका’ के छपने में हुए विलम्ब से सम्बन्धित होतीं और दूसरे खतों में दीगर किस्म के व्यावहारिक ब्यौरे होते। पुराने दिनों में ज्ञान के पत्रों में जो मस्ती, बेफिक्री और ताजगी होती थी, वह कहीं बहुत नीचे दब गयी थी।

तभी ज्ञान ने ‘पहल’ के एक महत्वाकांक्षी अंक की योजना बनायी। 1978-79 में ‘पहल’ का एक कवितांक मंगलेश, वीरेन और मेरे सहयोग से वह प्रकाशित कर चुका था। फिर उसने ‘पहल’ का ‘मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र विशेषांक’ निकाला था। 1985 के अन्त में उसने ‘पहल’ का कहानी विशेषांक प्रकाशित करने का फैसला किया। सामग्री इकट्ठा होने लगी।

इसी बीच हुआ यह कि हमारे पुराने प्रेस वाले अमीन साहब ने, जिनकी टाइप फाउण्डरी भी थी और जो अपने ‘स्टार प्रिंटर्स’ नाम के प्रेस में ‘पहल’ छापते थे, अचानक अपना प्रेस बन्द कर दिया। अमीन साहब के यहाँ ‘पहल’ ही नहीं, हमारे प्रकाशन का भी बहुत काम होता था। वे बहुत भले और लिहाजदार आदमी थे, उधार वगैरा में मुख्वत से काम लेते, जिसकी वजह से ज्ञान को भी राहत रहती। खैर, जब उन्होंने ऐसे वक्त, जब हमें पहले से सधे हुए प्रेस की सबसे ज़्यादा जरूरत थी, अपना प्रेस बन्द करने का फैसला किया तो मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल नया प्रेस खोजने का था।

मैंने ढूंढ-ढांढ कर ‘किशोर प्रिंटर्स’ के नाम से एक प्रेस तय कर लिया, जिनके यहाँ महज कम्पोजिंग की सुविधा थी, छपाई वे बाहर के किसी प्रेस में कराते थे। मैंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रेस में छपाई की व्यवस्था करा दी। चूंकि अंक धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था और मैं ज्ञान के फैसलों पर निर्भर था, इसलिए मैंने छपाई का आम कागज लगाने की बजाय अच्छे न्यूज प्रिंट पर अंक को छापने का फैसला किया। उन दिनों विदेश से चिकना न्यूज प्रिंट आता था और उस पर छपाई बहुत अच्छी होती थी। लेकिन वह पुस्तकों के प्रकाशकों में लोकप्रिय नहीं था, अख़बारों के अलावा वह पत्र-पत्रिकाओं में इस्तेमाल होता था। प्रूफ वगैरा चूंकि ज़्यादातर मैं खुद ही पढ़ता था और आवरण अशोक भौमिक बनाने थे।

आज तो अशोक भौमिक ख़ासे बड़े चित्रकार हो गये हैं, उनमें चित्रकला की सूझ-बूझ के साथ उन गुणों की भी कोई कमी नहीं है जिनसे प्रसिद्ध हुआ जाता है, वे एक ही वक्त पर शेर और बकरी से दोस्ती निभाने में माहिर हैं, लेकिन जब की बात मैं कर रहा हूं उन दिनों वे दो-तीन साल पहले ही आज़मगढ़ से इलाहाबाद आये थे, ईस्ट इन्डिया फार्मास्यूटिकल्स में विक्रय प्रतिनिधि थे और कला और साहित्य को एक साथ साधने की कोशिश कर रहे थे। उनके अनुरोध पर मैंने ज्ञान से कह कर आवरण के खाते में एक मानदेय की व्यवस्था करा दी थी। यों मैंने अशोक जी से कहा था कि मित्र, मैं तो ज्ञान से इस सारी भाग-दौड़ वगैरा के खाते कुछ लेता नहीं, मोटर साइकिल का पेट्रोल भी अपने पास से डलाता हूं, जो प्रूफ खुद पढ़ता हूं, उनके पैसे नहीं लेता, यहाँ तक कि अगर ‘पहल’ में नीलाभ प्रकाशन का विज्ञापन छपता है तो उसके भी पैसे देता हूं, लेकिन आपकी मांग उचित है, उसूलन तो हमें ‘पहल’ के लेखकों को भी पारिश्रमिक देना चाहिए जो हम नहीं दे पाते, तो भी आपके लिए मैं प्रबंध कर दूंगा।

तब मुझे क्या मालूम था कि आगे चल कर इस सबका सिला मुझे किस सूरत में मिलने वाला है।
(जारी)

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की अड़तालीसवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४८


मित्रता की सदानीरा - २७

बात यह थी कि उसी दोरान विनोद कुमार शुक्ल नाम के एक रेलवे कर्मचारी प्रकाशन की दुनिया में दाखिल हुए। वे विभूति नारायण राय के मुसाहिबों में से थे और उन्होंने अनामिका प्रकाशन के नाम से विभूति नारायण राय की कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं। विभूति के जरिये पुलिस के महकमे में उनकी अच्छी रसाई हो गयी थी। यों समझिये कि वे एक छोटे-मोटे ठेकेदार थे, जो साइड-बिजनेस के तौर पर प्रकाशन करते-करते बड़े प्रकाशक बनना चाहते थे। उन दिनों के विभूति नारायण राय के यहाँ लगभग निजी सचिव की तरह आते-जाते और शायद ‘वर्तमान साहित्य’ का भी काम-धाम देखते थे। उन्हें ज्ञान के साथ मेरे बन्दोबस्त का इल्म तो था नहीं, वे गालिबन यही सोचते थे कि मुझे ‘पहल’ की छपाई से कुछ फायदा होता है और उनकी इच्छा थी कि उन्हें ‘पहल’ और ‘पहल पुस्तिका’ की छपाई आदि का काम मिल जाये जिसके सहारे वे अपने सम्पर्क-सूत्रों का विस्तार कर सकें और घेलुए में कुछ कमाई कर लें। दिलचस्प बात यह थी कि ‘किशोर प्रिंटर्स’ उनके साले या बहनोई का ही था, वे भी अगर छपाई का काम पा जाते तो ‘किशोर प्रिंटर्स’ ही से छपाते। अलबत्ता, बाकी खर्चे-पानी से वे जरूर कुछ बचा लेते। उनकी और ‘किशोर प्रिंटर्स’ वालों की बातों से मुझे उनके मंसूबों की सुन-गुन थी, लेकिन मैं मन की बात जाहिर किये बिना अन्दर-ही-अन्दर मजा लेता था।

इसमें कोई शक नहीं है कि ‘पहल’ के कहानी विशेषांक के छपने में विलम्ब हुआ था। इसका एक कारण तो यह था कि उसकी पाण्डुलिपि हमें टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही थी, जिसकी वजह से क्रम लगातार बदलता रहता था। आज तो लेजर कम्पोजिंग में कम्पोज की हुई सामग्री बेहद आसानी से आगे-पीछे की जा सकती है, पंक्तियां काटी या जोड़ी जा सकती हैं, मगर हैण्ड कम्पोजिंग के युग में ऐसा सम्भव न था। फिर ‘किशोर प्रिंटर्स’ ‘पहल’ के पुराने मुद्रक "स्टार प्रिंटर्स" के अमीन साहब जितने साधन-सम्पन्न और अनुभवी नहीं थे। चूंकि छपाई के लिए दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता था, इसलिए भी विलम्ब हुआ था। तीसरा कारण विनोद कुमार शुक्ल की खुड़-पेंचिया फितरत का कोई कारनामा हो सकता था, क्योंकि वे तुले बैठे थे कि मुझे अपदस्थ करके ‘पहल’ का काम अपने हाथ में ले लें। ज्ञान से उन्होंने सम्पर्क साध लिया था और ज्ञान ने उन्हें धीरे-धीरे छोटे-मोटे काम सौंपने शुरू कर दिये थे, मसलन, इलाहाबाद के लेखकों को ‘पहल’ की प्रतियां पहुंचाना, वगैरा, वगैरा।

इस सबका नतीजा यह हुआ कि ‘पहल’ का कहानी विशेषांक देर से ही नहीं छपा, बल्कि इसी अंक के साथ जारी पुस्तिका जितना सुन्दर छपा भी नहीं लगा।

कहानी विशेषांक में हुई देर की भरपाई करने के लिए यह तय किया गया कि पहल-29 जल्दी से छाप दी जाय। लेकिन तय करना एक बात है, उसे अंजाम देना दूसरी। थोड़ी देर इस बार भी हुई, लेकिन आखिरकार मार्च 86 के तीसरे हफ्ते तक पहल-29 छाप कर जबलपुर भेज दी गयी और 25 मार्च को ज्ञान का पत्र आया कि अंक मिल गया है, छपाई बहुत अच्छी है, लेकिन बकाया पैसों का इंतजाम वह 15 अप्रैल तक ही कर सकेगा। मैं तब तक पुस्तिका की छपाई को छोड़ कर सारा हिसाब चुकता कर चुका था, इसलिए मुझे पैसों की सख्त जरूरत थी। पर मैंने सोचा पन्द्रह-बीस दिन की बात है, पैसे आ ही जायेंगे।

तभी जब मैं ज्ञान से बकाया पैसों की उम्मीद लगाये हुए था, उसका 13 अप्रैल का पत्र आया। पत्र क्या था, पत्र-बम था। उसमें ज्ञान ने एक के बाद एक मुझ पर तीन आरोप ठोंक दिये थे और तीनों का ताल्लुक मेरी ईमानदारी से था। पहली बात जो ज्ञान ने लिखी वह अशोक भौमिक के बारे में थी - ‘अभी मुझे यह जानकारी मिली है कि अशोक भौमिक को शायद पारिश्रमिक की राशि नहीं मिली है। जबकि हम लगातार दे रहे हैं। यह बात सही है या गलत मैं नहीं जानता।’

दूसरी बात पहल के कहानी अंक की बिक्री के बारे में थी - ‘पहल के कहानी अंक को तुमने कितने में बेचा है। पुस्तक मेले में यह लोगों को 17 में मिला है।’

तीसरी बात यूं लिखी गयी थी मानो चलते-चलाते याद आने पर लिख दी गयी हो - ‘हां पहल-29 में लगा न्यूज प्रिंट काफी महंगा लग रहा है।’

पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर के लिए मैं स्तब्ध रह गया था। आज का जमाना होता तो तत्काल मोबाइल पर तय-तस्फिया कर लेता। पर तब फोन से ट्रंककाल बुक कराके सम्पर्क में भी घण्टों लग जाते थे और छह मिनट से ज़्यादा बात नहीं हो पाती थी। लिहाजा मैं अन्दर-ही-अन्दर खौलता रह गया था।

मुझे सबसे ज़्यादा आपत्ति ज्ञान के लहजे और सुनी-सुनायी बात पर मुझसे कैफियत तलब करने को ले कर थी। मैं जानता था कि यह आग किसने लगायी थी। लेकिन ज्ञान कान का इतना कच्चा निकलेगा, मैंने कभी कल्पना भी न की थी। अव्वल तो उसे पहले अशोक भौमिक से पूछना चाहिए था कि उन्हें पैसे मिले या नहीं मिले और तब मुझे लिखना चाहिए था। दूसरे ‘अभी मुझे जानकारी मिली है’ से अविश्वास की जो सड़ांध उठ रही थी, उसने ज्ञान और पहल के साथ मेरे लम्बे सम्बन्ध को विषाक्त करके रख दिया था। चूंकि ज्ञान ने अपने कान के कच्चेपन में अशोक भौमिक वाली बात मान ली थी, इसलिए ‘पहल’ की बिक्री और न्यूजप्रिंट की कीमत भी शक के घेरे में आ गयी थी। वरना तय यह हुआ था कि पहल का अंक दस रुपये में और पुस्तिका सात रुपये में बेची जायेगी, फिर यह पूछना कि ‘पुस्तक मेले में लोगों को यह 17 में मिला है’, बेमानी था। न्यूज प्रिंट के सिलसिले में ज्ञान को मैंने बता दिया था कि वह आधिकारिक तौर पर रसीद पर्चे के साथ नहीं मिलता है, जब जैसी खेप आती है, वैसी कीमत देनी पड़ती है, क्योंकि इसे अख़बार चोरी-छिपे बेच देते हैं।

मुझे हैरत इस बात पर भी हुई कि ज्ञान ने इस बात का भी ध्यान नहीं रखा था कि ‘पहल’ की छपाई के सिलसिले में लगातार मैं अपने पास से पैसे लगाया करता था और ज्ञान अपनी सुविधा से उन्हें चुकाता था और मैंने कभी शिकायत नहीं की थी। 1980 में भी जब मैं लन्दन गया था तो पहल की तरफ 1500 से ऊपर की राशि निकलती थी, जिसमें से ज्ञान ने सिर्फ 500/- दिये थे। चार साल बाद जब मैं लौट कर आया था तब भी यह रकम वैसी-की-वैसी पड़ी हुई थी, जबकि मेरे बड़े भाई ने ज्ञान को बार-बार याद कराया था। ज्ञान ने तब भी यह हिसाब चुकता नहीं किया था, जब मेरे पीछे मेरे बड़े भाई बहुत बीमार हो गये थे। 1980 में 1100/- की राशि कुछ मानी रखती थी। लेकिन मैंने ज्ञान को कोई उलाहना दिये बगैर फिर से ‘पहल’ की छपाई को हाथ में ले लिया था।

जाहिर है, मन की जो हालत थी, उसमें मुझे ज्ञान के इस अविश्वास-भरे रवैये से सख्त चोट पहुंची थी। मैंने तत्काल उसे एक तीखा पत्र लिखा था। ज्ञान ने पलट कर जवाब दिया था और चूंकि विनोद कुमार शुक्ल वाली मेरी बात सही थी, इसलिए उसने उसे और अशोक भौमिक वाली बात को किनारे करके कुछ और नये आरोप मुझ पर लगा दिये थे। 26 अप्रैल के इस पत्र का जवाब मैंने दिया या नहीं, या दिया तो क्या दिया मुझे मालूम नहीं। बहुत-से पत्रों की प्रतिलिपियों मैं रखता नहीं था। वैसे भी मन इतना खिन्न और मुँह का स्वाद इतना बदमजा हो गया था कि मैंने फैसला कर लिया था अब ज्ञान के साथ ज़्यादा सम्बन्ध नहीं रखना है और ‘पहल’ के सिलसिले को यहीं तोड़ देना है। 26 अप्रैल के पत्र के बाद मेरे पास ज्ञान का सिर्फ 1/7 का एक कार्ड इस प्रसंग से सम्बन्धित मौजूद है, जिसमें उसने अपने पत्र के उत्तर न मिलने की बात लिखी है और जल्द-से-जल्द रकम भिजवाने की भी। 15 अप्रैल खिसक कर जुलाई के आगे तक टल गया था।

मैंने ज्ञान के इस 1 जुलाई के पत्र का जवाब दिया या नहीं दिया, यह लगभग चौथाई सदी बीत जाने पर मुझे याद नहीं । बस इतना याद है कि मैं उस पूरे अर्से में बार-बार मैत्री नाम की शै के बारे में सोचता. ज्ञान को जो पहला तीखा पत्र मैंने लिखा था वह मैंने अशोक भौमिक को दिखा दिया था। उन्होंने पूछा भी था कि मैं इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकता था कि इस पूरे प्रसंग के पीछे अनामिका प्रकाशन वाले विनोद कुमार शुक्ल ही का हाथ था। तब मैंने उन्हें विनोद कुमार शुक्ल के सम्बन्धी "लिशोर प्रिंटर्स" से मिली सुन-गुन के बारे में बताया था, पर उन्हें तब भी यक़ीन नहीं हो रहा था। वह तो जब ज्ञान का जवाब आया तब जा कर उन्हें यक़ीन हुआ। लेकिन मेरी दिमाग़ी हालत का इल्म होते हुए भी अशोक भौमिक ने अपनी तरफ़ से इस ग़लतफ़हमी को दूर करने-करवाने में कोई क़दम नहीं उठाया था, जबकि वे कहा जाये इस पूरे झगड़े में एक पार्टी थे। लेकिन जो नहीं है जैसे कि वफ़ादारी उसका ग़म क्या, वह नहीं है।
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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की उनचासवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४९



मित्रता की सदानीरा - २८


खैर, अब जबकि मैंने पहल की छपाई वगैरा से खुद को अलग करने का फैसला कर लिया था तो रकम का देर से आना भी कोई मानी नहीं रखता था। जब मित्रता ही में बाल आ गया तो रकम की क्या हैसियत। उसके बाद ज्ञान ने फिर शायद शिव कुमार सहाय से कोई बन्दोबस्त कर लिया था, क्योंकि पहल 30 और 31 के अंक सहाय जी के परिचित प्रेस से छपे थे और पहल 31 में तो प्रकाशन सहयोग के तौर पर बालकृष्ण पाण्डे, शिवकुमार सहाय और अशोक त्रिपाठी के नाम गये थे।
मन उन दिनों इतना खट्टा हो गया था कि अगले दो साल तक ज्ञान से पत्र-व्यवहार बिलकुल बन्द रहा। अलबत्ता ज्ञान का दूसरा पत्र आने के बाद मैंने वास्तविक स्थिति जानने के लिए एक दिन अपने दफ्तर में अशोक भौमिक और विनोद कुमार शुक्ल को एक-दूसरे के सामने करा दिया था। गरमा-गरमी इतनी बढ़ गयी थी कि लगा हाथापाई न हो जाये। इससे मुझे एक बात पता चल गयी थी कि इयागो की भूमिका विनोद कुमार शुक्ल ही ने निभायी थी। अशोक बस इतने भर के गुनहगार थे कि जब वे विवेचना वाले कार्यक्रम में जबलपुर या जाने कहां गये थे और मैंने उनसे यह ताकीद की थी कि वे ज्ञान से दो टूक बात करके आयें तो वे महज लीपा-पोती करके चले आये थे, जो उनकी फ़ितरत थी और आज भी है।

चूंकि मन उचट गया था इसलिए मैंने उसे दूसरी तरफ लगाना शुरू किया। बहुत देर अवसाद में ऊभ-चूभ करते रहना मेरी फितरत में वैसे ही नहीं था। सितम्बर अन्त 1986 में जसम का पहला राज्य सम्मेलन इलाहाबाद में होने वाला था और उसकी तैयारी का काम शुरू हो चुका था। मैंने ज्ञान वाले प्रसंग को पीछे धकेल कर आगे की तरफ देखना शुरू किया।

इसके बाद लिखने को बहुत नहीं है। अगले दो वर्ष तक ज्ञान से सम्पर्क लगभग टूटा रहा। बीच-बीच में उसके पत्र आते, जिनमें कवियों द्वारा एक-दूसरे के संग्रहों पर लिखने और साथ में कवियों की दो-दो कविताओं को प्रकाशित करने की बातें होतीं। लेकिन यही वह दौर था जब हिन्दी प्रयोजनमूलक युग में प्रवेश कर रही थी, कविगण आत्म-विभोर, यश लोलुप और उच्चाकांक्षी हो रहे थे। उस विद्वेष के बीज बोये जा रहे थे, जो आज हिन्दी के साहित्यिक क्षेत्र में जगह-जगह व्याप्त है। ज्ञान की इन योजनाओं का कुछ बना हो, इसका मुझे कोई इल्म नहीं है। मुझे इतना मालूम है कि ‘पहल’ के समूचे दौर में जो 1973 से लेकर 2009-10 तक फैला हुआ है, मेरे किसी संग्रह की चर्चा नहीं हुई। कविताएं भी मेरी शायद कविता विशेषांकों ही में छपीं।

फिर पहले कवितांक के दस वर्ष बाद ‘पहल’ के दूसरे कवितांक की योजना बनी। अब तक ‘पहल’ के चार संयुक्त प्रकाशन सहयोगी हो चुके थे। बालकृष्ण उपाध्याय, सहायजी, अशोक त्रिपाठी के साथ राधारमण अग्रवाल का नाम भी जुड़ गया था। जब ज्ञान का पत्र कविताओं के लिए आया तो पहले मेरा मन ही नहीं हुआ कविता भेजने के लिए। लेकिन फिर यह सोच कर कि व्यर्थ के विवाद से क्या फायदा, मैंने कविताएं भेज दी थीं। दिलचस्प बात यह है कि मुझसे छपाई और प्रूफ की अशुद्धियों की शिकायत करने वाले ज्ञानरंजन की नजर इस कवितांक की छपाई और प्रूफ की भयंकर अशुद्धियों पर नहीं पड़ी थी। खैर, इसके बाद पत्र-व्यवहार का क्रम बहुत विरल हो गया था। सन् 1989 से 2006 के बीच ज्ञान के सिर्फ पांच-छह पत्र हैं और शायद इतनी ही मुलाकातें। याद रहने लायक सिर्फ तीन हैं। पहली तो जब अचानक 1996 के पुस्तक मेले में ज्ञान से भेंट हो गयी। यह अकेले-अकेले वाली मुलाकात नहीं थी। बहुत-से लोग थे। मुझे हरजीत की याद है और घास के मैदान में सबके साथ गोला बना कर बैठना भी। उस मुलाकात में भी कुछ पर्देदारी रही होगी, क्योंकि उसके बाद ज्ञान का एक बहुत अच्छा पत्र आया था, जिसमें पहले का-सा खुलूस था।

दूसरी मुलाकात गालिबन 2001 में हुई थी जब मैं अपने सहयोगी इरफान के साथ महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की एक परियोजना के सिलसिले में लेखकों के इण्टरव्यू रिकार्ड करता हुआ उत्तर भारत के अन्य शहरों के साथ-साथ जबलपुर भी गया था। काम-काजी दौरा था और मुलाकात मुख्तसर थी।

लेकिन तीसरी मुलाकात दिलचस्प ही नहीं थी, बल्कि उसमें हास्य से ले कर विद्रूप तक नाना प्रकार के रस और भाव थे.
(अगली किस्त में समाप्य)

देशान्तर

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नीलाभ के लम्बे संस्मरण की
पचासवीं और अन्तिम क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ५०



मित्रता की सदानीरा - २९


फिरइसके साल भर बाद मैं परियोजना की रिपोर्ट को अन्तिम रूप देने के लिए दिल्ली टिका हुआ था, जब अचानक श्रीराम सेंटर की कैंटीन में ज्ञान से मुलाकात हो गयी।


उन दिनों मैं श्रीराम भारतीय कला केन्द्र के होस्टल में शिक्षकों के एक क्वार्टर में रहता था। यह केन्द्र मण्डी हाउस के इलाके में था और शाम को अक्सर मैं टहलता हुआ श्रीराम सेंटर में किताबों की दुकान तक नयी पत्र-पत्रिकाएं देखने चला जाता था। वहीं एक दिन जब मैं कैंटीन के बाहर उस छोटे-से घिरे हुए इलाके में दाख़िल हुआ जहां मेज़-कुर्सियां खुले में रखी रहती थीं तो अचानक मुझे ज्ञान वहां बैठा दिखायी दिया। मैं उसके पास बैठ गया। वह कुछ रोज के लिए दिल्ली आया हुआ था, करोल बाग में कहीं ठहरा था और लीलाधर मंडलोई और अरविन्द जैन का इन्तज़ार कर रहा था, जिनके साथ उसे विष्णु नागर के यहाँ जाना था। विष्णु नागर का नया संग्रह आया था और वहाँ उसके जश्न में कुछ पीने-पिलाने का कार्यक्रम था। और भी लोग आ रहे थे। ज्ञान ने बड़ी फक्कड़ई से मुझे भी चलने के लिए कहा। मैंने जब कहा कि मुझे तो न्यौता नहीं गया है, तब ज्ञान ने इस आपत्ति को पुराने दिनों की तरह हवा में उड़ा दिया और मुझ पर जोर दिया कि मैं भी चलूं। तभी लीलाधर मंडलोई अरविन्द जैन के साथ आ गया और उन्होंने भी मुझ पर ज़ोर देते हुए यह तय किया कि ज्ञान और मैं साथ-साथ जायें, वे पीछे से आते हैं। जाने उनके पास कार थी या दुपहिया गाड़ी।

बहरहाल, ज्ञान और मैं वहीं मण्डी हाउस से बस पर सवार हुए और नागर के यहाँ जा पहुंचे। पता चला कि वहाँ मजे की तादाद में लोग आने वाले हैं। रब्बी, मंगलेश, ज्ञान, विष्णु नागर, मंडलोई और अरविन्द जैन तो थे ही, पंकज सिंह और सविता भी आ रहे थे। सविता का पहला संग्रह भी कुछ ही दिन पहले आया था और यह एक तरीक़े से डबल जश्न हो गया था। यह बात पहले ही साफ कर दी गयी थी कि खाना नहीं होगा। हां, दारू के साथ चिखना भांति-भांति का था। तभी मुझे खयाल आया कि ठीक सामने के फ्लैट में विष्णु खरे रहता है, उसे भी बुला लेते हैं। मुझे यह नहीं पता था कि दोनों विष्णुओं के बीच सम्बन्ध ऐसे हैं कि वे अपने-अपने फ्लैट का दरवाजा यह सावधानी बरतते हुए खोलते हैं कि भूल से भी आमना-सामना न हो जाये। इसलिए मुझे विष्णु और एकाध अन्य मित्र के चेहरे पर विष्णु खरे के नाम से घिर आये बादल पर हैरत हुई थी।

वैसे विष्णु खरे ‘बुल इन ए चाइना टी शौप’ किस्म का बन्दा है, कब अपने नथुनों से धुंआ उगलता हुआ वह आपको दौड़ा लेगा और अगल-बग़ल के पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं पर भी टूट पड़ेगा, कहा नहीं जा सकता। दूसरे को चुभती हुई बात कहने में उसने पी.एच.डी. कर रखी है और डी.लिट. इस पर कि कैसे हर चीज को गरियाया जा सके। उससे मिलने के पौने दो मिनट के भीतर अगर आपके मन में उसके प्रति चिढ़, खीझ, क्रोध और नफरत का भाव पैदा नहीं होता तो इसे वह अपनी नाकामी और पराजय मानता है और उसे हैरत होती है। यही वजह है कि ऐसे मौके बहुत कम आये है जब उसे हैरतज़दा होने के इत्तफाक से दो-चार होना पड़ा है। मुझे लेकिन विष्णु की अदाएं शुरू से पसन्द हैं, कारण यह कि मैं जानता हूं वह बेहद पढ़ा-लिखा, बाहुनर, पूर्वाग्रहग्रस्त आदमी है, अच्छा कवि है और ऊपर से ‘बुली’ है। अगर आप पलट कर उसी के सिक्कों में उसका भुगतान कर दें तो वह आपसे दोस्ती कर लेगा और सन्तुष्ट बिल्ले की तरह खुर्र-खुर्र करने लगेगा। कुछ साल पहले उसने अश्क निधि के कार्यक्रम में "मैं और मेरा समय" व्याख्यान-माला में अपना व्याख्यान देते हुए नामवरजी, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, नारंग साहब और विद्यानिवास मिश्र के बारे में अपने लेखे भड़काऊ और अभद्रतापूर्ण टिप्पणियां करके समूचे त्रिवेणी सभागार को हिला कर रख दिया था और बहुत-से लोगों का कोप मुझे बहैसियत सचिव और प्रबन्ध न्यासी झेलना पड़ा था।

अभद्रता करने में अगर विष्णु खरे का कोई सानी है तो इसका सेहरा हिन्दी के दो साहित्य अकादमी प्राप्त कवियों के सिर बांधा जा सकता है। फर्क सिर्फ इतना है कि विष्णु बिना पिये भी अभद्रता करता है, पीने से अभद्रता करने की उसकी फितरत पर कोई असर नहीं पड़ता, जबकि वे दोनों साहित्य अकादमी प्राप्त सरस्वती-पुत्र दारू के हर पैग के साथ बढ़ती हुई अभद्रता के नायाब नमूने पेश करते चले जाते हैं और अन्त झगड़े और रुदन में होता है।

बहरहाल, वहाँ उपस्थित सब लोगों के लिहाज में विष्णु नागर ने विष्णु खरे को बुलाने के लिए रज़ामन्दी दे दी। मैंने फोन लगाया तो विष्णु खरे ने बताया कि वह उसी रोज छिंदवाड़ा से आया है, तो भी थोड़ी देर में आता है। थोड़ी देर में खरे आ गया और पीने-पिलाने के दौर ने सहज रफ्तार पकड़ ली। चूंकि यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि खाने-वाने का चक्कर नहीं है, इसलिए रब्बी और मंगलेश जैसे रिन्द लोगों को छोड़ कर और उन्हें छोड़ कर जो पास ही में रहते थे, बाकी लोग धीरे-धीरे चले गये। विष्णु नागर अपने ही घर में बैठा हुआ था, सो उसे कोई चिन्ता थी नहीं। मंडलोई, अरविन्द जैन, पंकज और सविता जा चुके थे। अब पीने का असली दौर शुरू हुआ।

चूंकि शाम की बाजी विष्णु खरे के हाथ में थी, इसलिए उसने ज्ञान को बुरा-भला कहना शुरू किया। उसका कुल आशय यह था कि ज्ञान को सम्पादन की समझ नहीं है। काफी देर तक तो मैं चुप हो कर सुनता रहा, फिर मैंने विष्णु से कहा कि ज्ञान ने जैसी शानदार कहानियां लिखी हैं अगर वे न होतीं तो तुम्हारे मध्य प्रदेश के वे महारथी विनोद कुमार शुक्ल, नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में एक खिड़की रहती थी, जैसे उपन्यास न लिख पाते, न अपनी विशिष्ट शैली विकसित कर पाते। रही बात सम्पादन की तो तुम तो तीन अंकों के बाद "वयम" नहीं निकाल पाये थे, जबकि तुम ने प्रवेशांक पर बड़े तमतराक से यह घोषणा कर रखी थी कि अगर "वयम" बन्द हुआ तो उसके पीछे आर्थिक कारण नहीं होंगे; ज्ञान ने तो तीस बरस से "पहल" को हिन्दी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका का दर्जा दिलाया हुआ है। इसके बाद विष्णु खरे ने ज्ञान का पीछा छोड़ दिया और वातावरण सामान्य हो गया।

गपशप में किसी को समय का ध्यान नहीं रहा और जब ज्ञान और मैं, रब्बी और मंगलेश के साथ नीचे उतरे तो हमारे सामने दो सवाल थे। खाने का सवाल पहला नहीं था, क्योंकि विष्णु नागर ने इतना चिखना चिखा दिया था कि खाना न भी मिलता तो कोई मुजायका न था। असली सवाल वापस जाने का था। मेरा खयाल था कि ज्ञान करोलबाग लौटेगा तो मैं उसी के साथ चला चलूंगा और रास्ते में मण्डी हाउस पर उतर जाऊंगा। पर ज्ञान ने इसकी कोई चर्चा नहीं की। विष्णु नागर के फ्लैट से उतर कर सब एक दिशा में बढ़ लिये। मैंने एकाध बार खाने और लौटने की बात उठायी भी, पर किसी ने कान न दिया। न किसी ने यह कहा कि छोड़ो जाने की बात, रात हमारे यहाँ रुक जाओ पुराने दिनों की तरह, और सुबह चले जाना।

वे सब ज्ञान को लिये-लिये मयूर विहार में अन्दर की तरफ बढ़ने लगे। मेरे दिमाग में भांय-भांय हो रही थी, बिन बुलाये मुझे किसी के घर जाना और रात काटना मंजूर न था, रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे, मयूर विहार में सन्नाटा था और बढ़ता ही जा रहा था और मेरे मन में यह आशंका गहराती जा रही थी कि और रात हो गयी तो क्या होगा। यह सब सोच कर मैं एक जगह थिर खड़ा हो गया और मैंने कहा कि मैं तो जाऊंगा। तब रब्बी और मंगलेश ने कहा कि कैसे जाओगे। उनके लहजे में हमदर्दी नहीं थी, बल्कि कुछ ऐसा भाव था कि बहुत बनता है यह नीलाभ, देखें यह क्या करता है। तब मैंने कहा कि अगर मुझे जाना होगा तो किसी भी कीमत पर जाऊंगा। यह कह कर मैं नवभारत टाइम्स अपार्टमेण्ट के सामने वाली छोटी सड़क पार करके उस मुख्य मार्ग की तरफ बढ़ा, जो मयूर विहार से नोएडा को और दूसरी तरफ़ जाता था। हिन्दी के ख्यातिलब्ध कवियों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। मानो हम कुछ देर पहले मित्रों की तरह साथ-साथ पी-पिला न रहे थे, अजनबी थे।

अभी मैं कुछ ही कदम बढ़ा हूंगा कि एक आटो रिक्शा आता दिखायी दिया। मैंने उससे पूछा कि क्या वह मण्डी हाउस चलेगा। वह राजी हो गया और मैं उस पर सवार हो कर मण्डी हाउस चला गया।

रास्ते भर ही नहीं, बल्कि आगे भी कई-कई दिनों तक यह घटना मेरे मन में उमड़ती-घुमड़ती रही। कारण यह कि हमारी पीढ़ी के लेखकों-कवियों ने बहुत फक्कड़ाना दिन गुज़ारे थे। अमूमन दिल्ली आने पर हम किसी दोस्त के यहां टिक जाते; छोटा-सा घर होता, उसी में ठंस-ठंसा कर रहते; ख़ूब बहसें होतीं; ज़ाहिर है कि उन दिनों सभी के साधन सीमित थे, लेकिन मिल-बांट कर काम चला लिया जाता। मज़े की बात थी कि बाज़ारवाद और भूमण्डलीकरण का सबसे ज़ियादा सियापा करने वाले सबसे ज़ियादा उस के शिकार हुए। जैसे-जैसे ये सारे लोग अपने-अपने कैरियर की सीढ़ीयां चढ़ते चले गये, दूरियां भी बढ़ती चली गयीं। मकान बड़े हुए, किराये की बजाय अपने हुए, घर कुशादा हुए, मगर उसी अनुपात में दिल छोटे होते चले गये।

लोग इसे महानगर फ़िनौमेना कहते हैं, लेकिन मुफ़स्सिल की तुलना में दिल्ली महानगर तो 60,70 और 80 के दशकों में भी था; तब दिल्ली के साहित्य जगत के समाजशास्त्र का यह बदलाव कैसे-समझा-समझाया जाये? मेरे ख़याल में इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि लेखकों ने दावा भले ही कर रखा हो कि वे आम लोगों के साथ हैं, मगर उनके अन्दर मध्यवर्गीय प्रवृत्तियों से लड़ने का जो संकल्प साठ के दशक में था वह धीरे-धीरे क्षरित हो गया। उस मदमत्त कएर देने वाले समय में लगता था कि क्रान्ति अगले मोड़ पर या कहा जाये कि "आउटर" पर खड़ी है, बस उसे थाम कर ले आने की देर है।

आपातकाल ने पहला झटका दिया। उसके बाद तो रफ़्तार तेज़-से-तेज़तर होती चली गयी। सोवियत संघ के पतन और डेंग ज़िआओ पेंग के पूंजीवादी रुझान ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। थके-हारे संकल्प ने सोचा क्यों न "उस तरफ़" के फ़ायदे उठा कर देखे जायें। लीजिये साहब क्रान्तिकारी कवियों को सत्ता पुरस्कृत करने लगी और वे भी बड़ी मिस्कीनी और खुलूस से इनाम-अकराम स्वीकार करने लगे। ैसके बाद कवियों-कहानीकारों के राजपत्रित आतंकवादी पुलिस अफ़सरों और साम्प्रदायिक हत्यारों की संगत करने में बस एक क़दम की दूरी थी , सो इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के ख़त्म होते-न होते वह भी पूर दी गयी।

बहरहाल, यह ज्ञान से मेरी आखिरी मुलाकात थी और यह भी बहुत दिनों तक दिमाग में एक कांटे की तरह बिंधी रही। तब से नौ बरस हो गये हैं, मेरी जि़न्दगी में बेशुमार तब्दीलियां हुईं, लेकिन ज्ञान से भेंट-मुलाकात नहीं हुई। वही दिल्ली है, वही इलाहाबाद, ज्ञान जरूर आता होगा, पर उसने कभी मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की। मैंने अपने मन में वह मिसरा दुहरा लिया -- "उसने भी वाह-वाह न की हम भी चुप रहे" -- और अपनी राह चलता रहा।

फिर 2006 में ज्ञान का एक पत्र आया कि मैं पहल सम्मान के अवसर पर बनारस आऊं। लेकिन मैं पुरस्कारों-सम्मानों से दूर-ही-दूर रहा हूं, इसलिए ज्ञान से मिलने की तमन्ना होने पर मैं नहीं गया। लेकिन इस पत्र ने कुछ ‘ट्रिगर’ किया होगा, क्योंकि मैं 2006 के नवम्बर-दिसम्बर में लगातार ज्ञान के साथ बिताये दिनों को याद करता रहा। पहल सम्मान का कार्यक्रम फरवरी 2007 में होना था, बहुत-से लोग बनारस जा रहे थे, हवा में हलचल थी, ज्ञान की याद न आये यह स्वाभाविक नहीं था।

मैं बनारस तो नहीं गया, लेकिन ज्ञान के साथ बिताये दिनों को अंकित करने की कोशिश में मैंने एक संस्मरण-नुमा चीज़ लिखनी शुरू की। उन्हीं दिनों विनोद तिवारी जो मेरे मित्र सत्यप्रकाश के दामाद थे, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय, वर्धा से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आ गये थे, जहां मेरे पुराने मित्र कुमार पंकज ने हिन्दी विभागाध्यक्ष बनते ही कुछ प्रतिभाशाली युवकों को विभाग में शामिल कर लिया था और वहाँ अचानक गहमा-गहमी बढ़ गयी थी। विनोद तिवारी ने फैसला किया कि वे फिर से ‘पक्षधर’ का प्रकाशन करेंगे, जिसका एक अंक आपातकाल के दिनों में दूधनाथ ने निकाला था। उन्हें जब ज्ञानरंजन वाले संस्मरण का पता चला तो वे इसका पहला हिस्सा बड़ी ललक के साथ ले गये और "पक्षधर" में उसे छापते हुए उन्होंने घोषणा की कि यह संस्मरण "पक्षधर" के अगले अंकों में जारी रहेगा। उनका उत्साह देख कर मैं भी इसे बढ़ाने लगा। लेकिन अगली किस्त जब विनोद तिवारी के पास गयी तो उनके हाथ-पांव फूल गये। हवा में सुनगुन थी कि नयी नियुक्तियों को स्थायी करने के लिए नामवर जी आनेवाले हैं और मेरे संस्मरण में नामवर जी पर कुछ तीखी टिप्पणियां थीं। विनोद तिवारी ने जरूर दूधनाथ से भी पूछा होगा और वह ठहरा जमाने का रणछोड़दास श्यामलदास चांचड़, उसने भी मना कर दिया होगा। तब एक गोल-मोल छायवादी-सा पत्र लिख कर विनोद तिवारी ने वह संस्मरण वापस कर दिया था। यह तब जब मैं उसे पहले ही सब कुछ बता चुका था कि मैं क्या लिखने जा रहा हूं। लेकिन वीर बालकों का वीर बालकवाद ऐसा ही होता है।

खैर, वह संस्मरण ‘वचन’ पत्रिका में छपा और काफी पढ़ा गया। इरादा था जल्दी ही उसे पूरा कर दूंगा मगर जि़न्दगी कुछ ऐसी बदली कि संगम तटवासी को उखड़ कर यमुना के तट पर बसे बुराड़ी गांव का बाशिन्दा बनना पड़ा। दो साल से ज़्यादा बीत गये। तब मैंने इसे पूरा करने की सोची, क्योंकि इसे पूरा किये बिना मुझे चैन न पड़ता।

इस बीच ज्ञान से यदा-कदा फोन पर बात होती रही, हालांकि बहुत कुछ अभी हमारे बीच सुलटना-सुलटाना बाकी है, जिसमें ‘पहल’ वाली उस पुरानी घटना के अलावा सुलक्षणा से मेरे सम्बन्ध विच्छेद की घटना भी शामिल है।

मैं वैसे तो शकुन-अपशकुन और दैवी शक्तियों का कायल नहीं, इसलिए इसे संयोग ही कहूंगा कि इस संस्मरण को लिखने के दौरान धीरे-धीरे ज्ञानरंजन से फ़ोने पर सम्पर्क फिर से होने लगा और बढ़ता ही चला गया। फिर हाल ही में उसका फ़ोने आया कि वह 7-8-9 मार्च को दिल्ली रहेगा और हम कुछ समय साथ-साथ बिता सकते हैं। यह भी हुआ और बहुत कुछ जो इकट्ठा हो गया था कफ़ी हद तक कम हो गया, गो अभी जम कर एक मुलाक़ात होनी बाक़ी है।

उम्मीद तो यही है कि हम कभी-न-कभी रू-ब-रू बैठेंगे और यह अधूरा काम भी पूरा कर लिया जायेगा।

(तमामशुद)

फ़रवरी-जुलाई 2011



लन्दन डायरी

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दोस्तो,
एक अर्से बाद फिर मुख़ातिब हूं। क्या करूं सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब कुछ ऐसा रहा कि न तो ख़लील ख़ां फ़ाख़्ताएं उड़ाने के क़ाबिल रहे, न ख़ुद उड़ने के। बहरहाल, जल्दी ही एक नायाब चीज़ पेश करने जा रहा हूं। क्या ? यह अभी नहीं बताऊंगा। थोड़ा सस्पेन्स होना चाहिए। पर तब तक एक लम्बी कविता शृंखला - लन्दन डायरी। पहली क़िस्त - ख़लील चौधरी !


ख़लील चौधरी

ब्रिटिश म्यूज़ियम में देखता है ख़लील चौधरी
ढाके की मलमल का थान
जिसे उसने कभी नहीं देखा ढाका में
सच तो यह है कि उसने ढाका भी कभी नहीं देखा
सिर्फ़ सुना है बाप-दादा से
अँगूठी से गुज़र जाने वाले
मलमल के थान का किस्सा

सिलाई मशीन पर झुके-झुके
पंजाब गार्मेंट्स के सुरिन्दर सिंह के लिए
ठेके पर कपड़े सिलते हुए
ख़लील चौधरी अब सिर्फ़
पोलिएस्टर और डेनिम पहचानता है
जिनके थान हर हफ्ते
कराची ट्रेडर्स का याहिया ख़ान
अपनी वैन पर लाता है
और ख़लील चौधरी के घर में फेंक जाता है

यह याहिया ख़ान
वह शराबी जनरल नहीं है
जिसके वफ़ादार फ़ौजी
दिन-दहाड़े
सिल्हट के बाज़ार से
ख़लील चौधरी की बहन को
उठा ले गये थे
और पाँच दिन बाद
उसकी नंगी लाश
पोखर में उतराती मिली थी
यह याहिया ख़ान तो उसके बहुत बाद
जनरल ज़िया के वफ़ादार फ़ौजियों से
बचता-बचाता
कराची से लन्दन आया था

मगर ख़लील चौधरी अब
उन बीती हुई बातों को
याद नहीं करना चाहता

वह याद नहीं करना चाहता
कैसे वह अपने माँ-बाप के साथ
दिन-दिन भर भागता हुआ
नारियल और बाँस के झुण्डों में
छुपता-छुपाता
सिल्हट से स्पिटलफ़ील्ड पहुंचा था

वह उस सिलाई की मशीन को भी
नहीं याद करना चाहता
जिस पर सिल्हट के बाज़ार में
उसका बाप
कपड़े सिया करता था

ख़लील चौधरी के लिए
इतिहास गड्ड-मड्ड हो चुका है
घटनाओं और दुर्घटनाओं का
अन्तर मिट चुका है

स्पिटलफ़ील्ड से सिल्हट तक
फैला है
पोलिएस्टर और डेनिम का साम्राज्य
लेकिन शीशे के शो केस में
धुन्ध की तरह बिखरा हुआ
मलमल का थान
धुन्ध की तरह मुलायम है
या औरत की देह की तरह

जिसे ढँकने के लिए
उसे बुना था
ख़लील चौधरी के पुरखों ने

कपास और करघे की यह पेशकश
एक कला थी
ख़लील चौधरी के पुरखों के लिए
जैसे जीवन भी एक कला थी
जैसे पद्मा की लहरों पर तैरते
भटियाली के बोल
जैसे नये अन्न की सोंधी-सोंधी गन्ध
खजूर के गुड़ की मिठास
जैसे बाउल के गीत, ताँत की साड़ी
देहरी पर रची गयी अल्पना
और मुर्शिदाबाद का ज़रीदार रेशम
रॉबर्ट क्लाइव के आने से पहले

लेकिन ख़लील चौधरी
यह सब नहीं जानता
वह सिर्फ़ ब्रिकलेन थाने के
पुलिस कौंस्टेबल क्लाइव को जानता है
जिसने सिर-मुंडे गुण्डों की पिटाई के ख़िलाफ़
ख़लील चौधरी की शिकायत
दर्ज करने से इनकार कर दिया था

वह उन शोख़ लड़कों को जानता है
जो उसे अक्सर ‘पाकी-पाकी’ कह कर बुलाते हैं
और नहीं जानते
कि ख़लील चौधरी के लिए
यह सबसे बड़ी गाली है

नोट

इंग्लिस्तान में हिन्दुस्तानी उपमहाद्वीप के लोग या तो सिख हैं या पाकिस्तानी चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, बांग्ला देशी हों या हिन्दुस्तानी

लन्दन डायरी - २

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दोस्तो,
लन्दन डायरी की दूसरी क़िस्त पेश है । पूरी शृंखला 24 टुकड़ों की है, जिनमें कई जगह सन्दर्भ भी हैं, जो अन्त में दे दिये गये हैं। कविता आपको कैसी लगेगी, नहीं जानता। सच तो यह है कि समय के साथ मैं यह कम से कमतर मात्रा में जानने लगा हूं कि मैं क्या जानता हूं क्या नहीं। लगभग बेख़ुदी का आलम है। लेकिन पूरी कविता के बाद फ़ुटनोट ज़रूर देख लीजियेगा।


लन्दन डायरी
1
चारों ओर लम्बे वीक-एण्ड की ख़ामोशी है
ख़ामोशी और अकेलापन
जिसे बार-बार बजाये गये
नज़रुल के गीत भी
ख़त्म नहीं कर पाये हैं
पहले से ज़्यादा गझिन बना कर
मेरे गिर्द जाल की तरह
लपेट गये हैं

मैं कहाँ हूँ ? किस कगार पर ?
टूटते हुए रिश्तों की किस दरार पर ?

बाहर झाँकता हूँ मैं
105 नम्बर की बस
हीथरो हवाई अड्डे से
शेपर्ड्स बुश ग्रीन की तरफ़
जाती हुई
नुक्कड़ पर ठिठकती है

बाहर अगस्त है
चितकबरे बादलों में
झिलमिलाती है धूप की धारा
ऊँघते चिनारों के
हरे-हरे हाथ हिलते हैं
नुक्कड़ की पब से उभरते
शराबी शोर में
रेग्गे और डिस्को और
कीर्तन के स्वर
घुलते-मिलते हैं

मुझे उठ कर
इस कमरे से
बाहर जाना चाहिए

2

इस सुनहरी धूप में
पिघलता है
मेरा ख़ून
डूबते सूरज में
ढलता है
मेरा रक्त
बूँद-बूँद कर
जाते हुए ग्रीष्म की
गहरी हरियाली में
धधकती है लपटें
सुलगते हैं दिन
अपने धुएँ से
मेरी आँखों को कड़वाते हुए

मेरे गिर्द उनींदी रातों का अम्बार है
जिन्हें गिनना मेरी ताकत के पार है
ये उनींदी रातें
बेरोज़गारी के आँकड़े हैं
जिन्हें केन लिविंग्स्टन
हर महीने ग्रेटर लण्डन काउन्सिल की
इमारत पर
थैचर सरकार की सूचना के लिए
टाँग देता है

ये उनींदी रातें
वित्त मन्त्री जेफ्री हाओ के
बजट की मँडराती छायाएँ हैं
धीरे-धीरे शुक्रवार की शाम के
पे-पैकेट पर घिरती हुई

ये उनींदी रातें
फगवाड़े में
मेरा इन्तज़ार करती माँ
या जमेका में छूटी
आबनूस की वीनस के
चेहरे हैं
रात के सन्नाटे में घिरते हुए
जब दिन की तमाम हरकतें
टूटते हुए जिस्म की
तकलीफ़ में
तब्दील होती हैं
दर्द की उठती और गिरती लहरों के बीच
दिन की विजय और पराजय का
लेखा-जोखा करते हुए
मैं पलटता हूँ
वर्क-दर-वर्क
ज़िन्दगी के पन्ने
उनींदी रातों में

ये राते उतनी ही काली हैं
जितना मेरे जिस्म का रंग

यह उन्नीस सौ अस्सी का साल है
लन्दन में बेरोज़गारी डेढ़ लाख तक पहुँच गयी है
मगर अमरीका में गेहूं के व्यापारियों को
रेगन की राहत मिली है
ईरान में जंग छिड़ गयी है
लेकिन तेल पर दिनों-दिन धार चढ़ रही है
पोलैण्ड में लोग
गोश्त की लड़ाई लड़ रहे हैं
इधर ब्रिटेन में कारखाने बन्द हो रहे हैं
बेरूत में इस्राइली
अराफ़ात के लिए खेदा तैयार कर रहे हैं
और हिन्दुस्तान में श्रीमती गाँधी
’सरकार जो काम करे’ का नारा लगा कर
सत्ता में लौटी है

लेकिन मैं लौट नहीं सकता
आज ही मेरे भतीजे की चिट्ठी आयी है
जिसमें उसने विलायत आने की
फ़रियाद दुहराई है

वह साल भर से बेकार है
और हमारी ज़मीन
जिसने जाने कितने
हमलावरों के कदम सहे हैं
अब एक और कम्मी का बोझ
नहीं सह सकती

जमेका से लिखती है
मेरी आबनूस की वीनस
वह अब बहुत देर
इन्तज़ार नहीं कर सकती
उसका भाई गाँजा पीते हुए
धर लिया गया है
बाप ने कर ली है दूसरी औरत
और पुलिस उसे रण्डी बनाने पर
उतारू हैं
उसे रात को नींद नहीं आती

उनींदी रातों का संसार
सिर्फ़ मेरा नहीं
किंग्स क्रॉस से
साउथॉल तक
जमेका से जगाधरी तक
एक ही तार है
उनींदी रातों का
एक ही संसार है
जिसे नापना मेरी ताकत के पार है

’तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शबे ग़म बुरी बला है।’

3
इसी तरह शुरू होता है दिन
इसी तरह ख़त्म होता है
उठें हुए बाज़ुओं की कतार
थकती है
विरोध में उठे हुए सिर
झुकते हैं
झुकते हैं लहराते हुए झण्डे
ठहरे पानी में
सड़ते हैं दिनों के झरे हुए पत्ते
अँधेरे में खामोशी से
सुलगती हैं हमारी रातें
नींद के निरापद आतंक में
शहर चीनी के डलों की तरह घुलते हैं
सड़कें आपस में उलझती हैं
सिवैयों की तरह और इमारतें
बर्फ़ी के टुकड़ों की तरह
गड्ड-मड्ड होती हैं
नींद के निरापद आतंक में
4
एक
सी
छतों
वाले मकान
5
रफ़्ता-रफ़्ता उतरती है शाम
उतरता है शहर पर एक जाल
हर चीज़ को कसता हुआ
अपनी अदृश्य गिरफ़्त में

जाल के पार दिखती है रोशनियाँ
इस्पात और कंकरीट के इस जंगल में
साथ की खोज में भटकते हुए
मैं आवाज़ दूँ तो
क्या कोई जवाब आयेगा ?


6
एक अजीब-सी नाउम्मीदी में
गुज़रते हैं दिन
इसी तरह गुज़रती है ट्यूब11
एक के बाद एक
स्टेशनों को छोड़ती हुई
दाखिल होती है सुरंग में

शाम के वक्त
घिरता है
पराजय का एहसास
ट्यूब की खिड़की से देखे गये कुछ चेहरे
गाड़ी का पीछा करते,
पीले पत्तों की तरह
अगले स्टेशन तक
पीछा करते हैं
7
कैसी अजीब बात है
बाहर की बारिश और
अन्दर के कोहरे से
भाग कर
मैं इस पब में आ बैठा हूँ
यहाँ शनिवार की शाम का शोर है
एक हंगामा है
जिसका न कोई और है, न छोर

शराब के घूँट भरता हुआ
मैं रचता हूँ
खुले हुए दिन
और पारदर्शी हवा
जब सुनहरी धूप
पके हुए सन्तरे की तरह
तुम्हारी देह की मुकम्मल गोलाइयों की तरह
हवा में तिरते हुए राग की तरह
ख़ून में लहलहाती आग की तरह
एहसास के शिखर तक चढ़ती चली जाती थी
पब में शनिवार की शाम का शोर है
बाहर बारिश! अन्दर बेपनाह कोहरा

अगर इस सबसे बचना चाहूँ
तो पता नहीं
मुझे कहाँ जाना होगा

(अगले अंक में जारी)

लन्दन डायरी

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दोस्तो,
लन्दन डायरी की तीसरी और अन्तिम क़िस्त पेश है । पूरी कविता के बाद फ़ुटनोट ज़रूर देख लीजियेगा। इसके बाद एक नयी पेशकश।


लन्दन डायरी


8
मैं जानता हूँ
अब गाने के लिए
स्वर साधते ही
मेरा कण्ठ भरभरा आता है
ख़ामोशी रेंगती है दिमाग़ पर
जैसे निर्जन प्राचीरों पर जहरीली बेल
मैं अपनी ही छाया से कतराता हुआ
अँधेरे गलियारों में
बीते हुए सूर्यों के बारे में
सोचता हुआ
दुबका फिरता हूँ

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
जा रही हैं। धीरे-धीरे

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
फिर से बादल घिरने लगे हैं

रंगों को खुले हाथ छितराते हुए
आकाश फूट पड़ता है
संगीत में
यहाँ एक अजनबी देश में
दूसरे शहर में
अनजान या उदासीन लोगों के बीच
सिर्फ़ उदासी बच रहती है
किसी राग की तरह
ख़ामोशी पर तिरती हुई
अनन्त इकाई की तरह
गीत की धुन में
सदा उपस्थित सुर की तरह
आह, मेरे जीवन के ग्रीष्म
तुम भी तो गुज़रते जा रहे हो
नष्ट होते आवेगों के पागलपन में
थके हुए एहसासों के शून्य में
साथी-संगियों की विफल तलाश में

ज़ाया होते हुए एक अनजाने देश में
जिसके तरीक़े अलग हैं
जिसके लोग अलग हैं
9
घूरता है
कोरा पन्ना
कोरे दिमाग़ को

10
स्मृति के आकाश पर
अब भी
एकाध भटका हुआ बवण्डर
मँडराता है

याद के पेड़ पर
कुछ पत्तियाँ
अब भी मौजूद हैं
जिन्हें तेज-से-तेज आँधी भी
झकझोर कर उड़ा नहीं पायी
11
यहाँ, इस सर्द शहर की
अनजान सड़कों पर भटकता हुआ
याद करता हूँ मैं
उन रातों को,
दूसरे शहर की,
जब तुम्हारी आँखों में
मैं देखता था ब्रह्माण्ड

इस विदेशी आकाश के नीचे
भटकता हुआ
मैं याद करता हूँ
वह समय
जो तुम्हारे पहलू में बिताया मैंने

तुम्हारी देह पर
अपनी उपस्थिति अंकित करते हुए
तुम्हें एक औज़ार की तरह
गढ़ते हुए
एक खिड़की की तरह
खोलते हुए
अपने हाथों में महसूस करते हुए
तुम्हारे हाथों की गर्मी
और अपनी आँखों में
तुम्हारी पुतलियों से छन कर आता हुआ
विश्वास

12
मैं जानता हूँ मैं तुम्हारा विश्वास खो चुका हूँ,
तुम अब मुझे प्यार नहीं करतीं, तुम,
जो मुझे प्यार करती थीं, जैसे कभी
किसी और ने नहीं किया था,

हम एक पथरीले तूफ़ानी किनारे पर
मिले थे, टकराने को बढ़े आते दो
सितारों की तरह, सुख की ऊर्जा में
फूटते हुए, झुलसाते हुए एक-दूसरे
को प्यार की विभोरता के विस्फोट से,

लेकिन अब वह सब बीत चुका है
और मैं लन्दन शहर की इस
भूल-भूलैयाँ में भटकता हूँ
अन्तरिक्ष के अनन्त शून्य में
उड़ते-फिरते किसी नक्षत्र की तरह

13
हमारा रिश्ता वह सड़क है
जिसका नक्शे में कोई निशान नहीं
हमारा प्यार वह मैदान है
जहाँ से कोई रास्ता नहीं फूटता
हमारे एहसास चुभते हैं हमें
कीलों की तरह
हम कौन है ? मशीनी इन्सान
या बीसवीं सदी के आख़िरी दशक के लोग ?

14
हवाओं में नश्तर-सी धार है
आदमी-आदमी के बीच वही दरार है

15
मैं, जो अपने शहर से दूर, अपने लोगों से दूर
यहाँ एक अनजानी ज़मीन पर चला आया हूँ
मगर ज़िन्दगी खुलती है
हर रोज़
मेरे सामने
पंखुडि़यों की तरह खुलते हैं दिन

आह! ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है
पत्तियों को थरथराती हुई हवा
आकाश पर तनी नीली मख़मल की चादर
पेड़ों की फुनगियों पर
पतंग की तरह अटकी हुई धूप
ज़िन्दा होने का एहसास
कितना ख़ूबसूरत है यह सब कुछ
यहाँ के लोग नहीं तो न सही
यह सारी दुनिया तो मेरी परिचित है
यह हवा, यह घास, यह पेड़
ये हाथों की तरह हिलती हुई पत्तियाँ

16
जितनी बार
वे उठाते हैं दीवार
उतनी बार
दीवारें गिराने वाले
पैदा हो जाते हैं

दीवारें खड़ी करने वालों से
कहीं ज़्यादा हैं
दीवारें गिराने वाले

17.
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
ताक़त और गर्मी से भरे अपने हाथ
मेरे हाथों में दे दो
तुम कोई भी हो
किसी भी रंग के
काले, भूरे, पीले, गोरे
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
हमारी लड़ाई गोरे रंग से नहीं
गोरे साम्राज्यवाद से है दोस्तो
जिसके लिए
वेल्स की कोयला खदान में काम करता है पैडी
स्वराज पाल से ज़्यादा ख़तरनाक है
आओ, मेरे पास आओ, मेरे दोस्तो
चमकते हुए फ़िकरों का सरमाया नहीं है
मेरे पास
सुबह की ओस की तरह
ताज़े हैं मेरे शब्द

18
आशा चमकती है
जैसे माँओं की आँखों में
झिलमिलाते आँसुओं की रोशनी

19
बढ़ाते जा रहे हैं हाथ अपने ज़ुल्म के साये
मिटाते जा रहे हैं ज़िन्दगी को ज़ुल्म के साये
लगी है चोट दिल पर और भी चोटें
लगाते जा रहे हैं ज़ुल्म के साये
जिस्म बिखरे हैं सड़क पर
बम बरसते हैं सड़क पर
ख़ून खिलता है सड़क पर
यह सड़क बेरूत से फैली हुई है
दूर सल्वादोर तक
ज़िन्दगी औ’ मौत की जो कशमकश है
उस लड़ाई के कठिनतम छोर तक

20
झर झर झर
झर रहे हैं पत्ते
सुनहरी फुहार में
शरत का अभिषेक करते हुए
गिन्नियों की तरह झरते हुए
उतर रहे हैं वृक्षों के वस्त्र, पल-पल
स्ट्रिपटीज़ करती हुई नर्तकी की तरह
अनावृत हो रही है पृथ्वी
शर्म से पीली और फिर सुर्ख़ होती हुई
उजागर हो रही है एक नयी सुन्दरता
प्रकट हो रही है वृक्षों की वस्त्रहीन देह
हेमन्त के अभिसार के लिए
वसन्त की सम्भावनाओं को
अपने भीतर छिपाये

21.
चाँदनी में भीगी हुई सड़क की तरह
फैली है आकाश-गंगा मेरे सामने

22.
पता नहीं
मेरे हाथ
और होंट
क्या जानकारी
देते हैं तुम्हें
और मेरा हृदय
तुम देख नहीं सकतीं

23.
अपने मकान का छत्तीसवाँ दरवाज़ा खोल कर
मैं उतर आया हूँ शरीर के उत्सव में
नफ़रत और प्यार के फूलों से सजा हुआ
विश्वासघात - आती है आवाज़
अन्दर से नशे की धुन्ध को चीर कर

24.
हवा में एक नयी लहर आयी है
वह धुन जो स्टीवी वण्डर ने गायी है
ढोल की थाप पर
गीत के आलाप पर
थिरकता है इस काले गायक का तनावर जिस्म
थिरकता है एक समूचे महाद्वीप का अँधेरा
रोशनी में फूट पड़ने के लिए


______________________________________________

सन्दर्भ
1. शनिवार-इतवार की दो छुट्टियों के साथ जब शुक्रवार या सोमवार का अवकाश जुड़ जाता है तब उसे लम्बा वीक-एण्ड कहते हैं।
2. पब - शराबख़ाना।
3. रेग्गे - वेस्ट इंडीज से आये लोगों का संगीत।
4. केन लिविंग्स्टन - लेबर पार्टी का वामपन्थी नेता।
5. ग्रेटर लण्डन काउन्सिल - लन्दन महानगर पालिका
6. पे-पैकेट - हफ़्तावार वेतन जो शुक्रवार की शाम को बँटता है।
7. कम्मी - खेत-मजूर
8. किंग्स क्रौस - लन्दन शहर का एक मुहल्ला जो अब वेश्याओं के लिए कुख्यात है।
9. साउथॉल - लन्दन में भारतीय मूल के लोगों की बस्ती जो छोटा हिन्दुस्तान के नाम से मशहूर है।
10. ग़ालिब से साभार।
11. ट्यूब - ज़मीन के भीतर चलने वाली रेलगाड़ी
12. पैडी - आयरलैण्ड से आये मज़दूरों को अंग्रेज उपेक्षा से पैडी कहते हैं। अब यह शब्दी किसी भी आयरिश के लिए इस्तेमाल होता है।

युवा कविता पर कुछ नोटनुमा टीपें

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निवेदन
नीचे दी गयी टिप्पणी मैंने दिल्ली के सत्यवती कालेज में हिन्दी कविता पर केन्द्रित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी बीज-वक्तव्य के रूप में पढ़ी थी और अब यह युवा कवि मुकेश मानस के सम्पादन में नयी पत्रिका "मगहर" के प्रवेशांक में आ रही है जो जल्द ही प्रकाशित हो रह है.आपकी प्रतिक्रिया का मैं इन्तज़ार करूंगा.


सारे दृश्य बदल रहे हैं

युवा कविता पर कुछ नोटनुमा टीपें


अभी समय लगेगा इसका स्वाद पहचानने में
अभी तो आलाप है पहला पहला
आने को है सातों सुरों में रचा गया राग
अभी समय लगेगा असली आनन्द पाने में
धैर्य से सुनें आप
कवि का नहीं, कविता का नहीं,
प्रयत्न का करें सम्मान, श्रीमान!

"नये कवि की कविता" शीर्षक से लिखी गयी अपनी यह कविता मुझे आज बेसाख़्ता याद आ रही है, जब मैं ख़ुद युवा कवियों और उनकी कविता का एक जायज़ा लेने की कोशिश कर रहा हूं. इस प्रयास में शायद मेरा भी निवेदन यही है कि मेरे प्रयत्न ही को ख़ातिर में रखियेगा. कारण यह कि वैसे तो किसी एक कवि या रचनाकार का मूल्यांकन भी, अगर ईमानदारी से किया जाय तो, ख़ासा संकटपूर्ण काम साबित हो सकता है, लेकिन एक समूचे दौर की और वह भी ख़ास यौर पर युवा रचनाशीलता का जायज़ा, मूल्यांकन या समीक्षा निर्विवाद रूप से अजाने जोखिमों से भरा और नाशुक्रा काम होता है, जिसमें दोनों ही पक्षों के असन्तुष्ट रह जाने की गुंजाइशें रहती हैं. कवियों को शिकायत होती है कि उन्हें या तो ठीक से समझा नहीं गया या फिर सही वज़न नहीं मिला. जायज़ा लेने वाले को यह आपत्ति होती है कि उससे गागर में सागर भरने की उम्मीद क्यों रखी गयी, जो बुनियादी तौर पर रचना का काम है, समीक्षा या जायज़े का नहीं. चुनांचे, मैं यह बात एकदम शुरू ही में साफ़ कर देना चाहता हूं कि एक तो मैं कोई पेशेवर आलोचक नहीं, आज के युवा कवियों का सहकर्मी हूं, थोड़ा उम्रदराज़ ही सही. ऐन सम्भव है कि मैं साथी कवियों की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाऊं. इसे मेरी कमज़ोरी ही मानियेगा, इरादतन किया गया कृत्य नहीं.
मेरी कोशिश आज की युवा कविता के बदलते परिदृश्य तो कुछ इस तरह अंकित करने की है, जैसे तेज़ रफ़्तार से चल रही कार से किसी विराट और पैनोरैमिक दृश्यावली की विडियो तस्वीर पेश करना. ज़ाहिरा तौर पर रेखाएं मोटी होंगी और वही ब्योरे दर्ज होंगे जो नुमायां हैं. कुछ ध्वनियां छूट जायेंगी. बारीक़बीनी की गुंजाइश इस काम में शायद नहीं है.अस्तु.
सबसे पहले तो यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि युवा कविता य युवा कवियों से मेरी मुराद क्या है. अपनी हिन्दी में तो आजकल भारतीय राजनीति का-सा हाल है. जैसे 50-50 साल के नेता राजनैतिक दल की युवा इकाई में बने रहते हैं, वैसे ही बहुत-से कवि भी लगभग अधेड़ावस्था तक "युवा" बने रहते हैं. लेकिन मेरा यह जायज़ा उन कवियों को ध्यान में रख कर किया गया है जिनका जन्म १९७० के बाद हुआ है. कुछ तो ऐसे भी कवि हैं जिन्का जन्म १९८० या उसके बाद हुआ है. दूसरे इनमें भी जिनकी पर्याप्त चर्चा हो चुकी है, जैसे व्योमेश शुक्ल या निर्मला पुतुल, उनकी बजाय मैंने ऐसे कवियों पर नज़र डालने की कोशिश की है जो अभी चर्चा में नहीं आये हैं मगर जिनमें मुझे सम्भावनाएं दिखायी दी हैं. इनमें से कुछ के तो संग्रह भी नहीं आये हैं.
वैसे, मेरे एक साथी ने यह सुझाया था कि युवा कवि भी पुरानी बात कर सकता है और किसी प्रौढ़ कवि की कविता से भी युवा ख़ुशबू आ सकती है. सिद्धान्तत: इस बात से इनकार न होते हुए भी यह मसला एक बिलकुल ही भिन्न आलेख की मांग करता है. यहां मेरा वह अभीष्ट नहीं है. मैंने तो नये बिरवों को ही निरखा-परखा है और उनके पातों पर निगाह डाल कर उनके होनहार होने का अनुमान लगाने का प्रयास किया है.न तो मैं सर्वज्ञ हूं, न कोई नजूमी. बल्कि मैं तो ख़ुद को इन सभी युवा साथियों का सहकर्मी मानता हूं और मेरा मक़सद न तो नसीहत देने का है न इस्लाह करने का, बल्कि इन साथियों की कुछ ख़ूबियों की तरफ़ इशारा करने और अगर मुझे लगा है कि उनकी राह में कुछ गड्ढे आने की आशंका है तो उनके प्रति सावधान कर देने का.

२.

जब मैं इस दौर पर निगाह दौड़ाता हूं, जिसमें ज़िन्दगी ख़ासी कठिन हो गयी है और हिन्दी के कथा साहित्य और कथेतर गद्य ने पिछले डेढ़-पौने दो सौ साल में काफ़ी मंज़िलें तय कर ली हैं, तो एक सवाल मेरे मन में बार-बार उठता है. क्या कारण है - कविता आज पहले से कहीं ज़्यादा तादाद में लिखी जा रही है ? कविता से शुरू करके कथा साहित्य में चले आने वाले राजेन्द्र यादव हालांकि कई बार कविता की मृत्यु की घोषणाएं कर चुके हैं तो भी कोई वजह तो होगी कि कविता लोगों को आज भी अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का एक कारगर साधन जान पड़ती है.
युवा कवि रविकान्त ने कविता की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए अपनी कविता "लिखना ज़रूरी लगा मुझे" में इस सवाल का तसल्ली-बख़्श जवाब देने की कोशिश की है --

मैं लिखता हूं
इसलिए नहीं कि मैं लिखना चाहता हूं
मैं न लिखता
यदि लिखने से
मुझे मेरे प्रश्नों के हल न मिले होते
लिखना ज़रूरी लगा मुझे
एक बड़े जीवन को
उसके छोटेपन से मुक्त करने ले लिए
मैं जानता हूं कि मैं असुरक्षित हूं यहां
पर सुरक्षा की क़िलेदारी भी नहीं चाहिये मुझे
कुछ खिड़कियां और उनके बाहर का पूरा आसमान
ज़रूरी है मेरे जीने के लिए
चूंकि स्वतन्त्रता पल-पल का उद्देश्य है
इसलिए कोई हथियार उठा कर चलना
ज़रूरी लगा मुझे

मेरे निकट यह कविता लिखने की या कहा जाय कि लिखने की ही बहुत वाजिब वजह है. प्रसिद्ध जर्मन कवि-नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख़्ट की एक उक्ति है -- सच लिखने में पांच कठिनाइयां :
१. सच को लिखने का साहस भले ही उसे हर जगह दबाया जा रहा हो;
२. सच को पहचानने की चतुराई;
३. उसे हथियार की शक्ल में उपलब्ध कराने की कला;
४. उसे फैलाने की होशियारी;
५. और उन लोगों को चुनने का विवेक जिनके हाथों में वह सबसे ज़्यादा असरदार साबित होगा.

युवा कवियों में से बहुत-से कवि ऐसे हैं जो इस उक्ति को जाने बग़ैर कमो-बेश इस पर खरे उतरते हैं, लेकिन यह भी सही है कि अनेक कवि इर्द-गिर्द के साहित्यिक माहौल के दबावों के चलते कविता तो लिखते हैं जनता के लिए, मगर उसे सुना आते हैं आई.आई.सी या हैबिटैट सेंटर के सभागारों में -- सच को लिखने की आख़िरी कठिनाई पर ध्यान दिये बिना. यह एक ख़तरा आज की युवा ही नहीं सारी कविता के सामने तो है ही.

बहरहाल, सभ्यता के विकास-क्रम में कविता और नाटक से शुरू कर के साहित्य की कई विधाएं जन्मीं और विलीन हुईं. यह सब ज़रूरत के तहत हुआ. अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने के लिए ही विधाओं का विकास हुआ और जो विधाएं बहुत दूर तलक रचनाकारों का साथ नहीं दे पायीं, वे छूटती चली गयीं. मिसाल के लिए चम्पू ही को ले लीजिये. एक समय में चम्पू अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय विधा थी. अब नहीं है. लेकिन अगर तमाम दोष-दर्शन के बाद भी कविता क़ायम है, तो यह विधा के रूप में उसकी शक्ति का सबूत तो है ही.
अल्बत्ता, इसमें एक ख़तरा भी छुपा हुआ है, जिस पर हम कवियों की नज़र अमूमन नहीं जाती और जिसके बारे में अर्सा पहले मैंने ध्यान दिलाया था. ख़तरा यह कि कई बार हम कविता से ऐसी उम्मीदें करने लगते हैं जो हमें अन्य विधाओं से करनी चाहिएं. अगर हाल के दौर पर नज़र डालें तो कुछ विधाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं. इसलिए नहीं कि बज़ाते-ख़ुद उनमें कोई ख़ामी या कमी है, बल्कि इसलिए कि साहित्य का जो सत्ता पक्ष है, मसलन आलोचना, पत्र-पत्रिकाएं, पुरस्कार देने वाली संस्थाएं, आदि, उन्होंने कुछ विधाओं पर अनावश्यक रूप से अधिक बल देना शुरू कर दिया है, जिसकी वजह से रचनाकारों ने भी उन विधाओं से हाथ खींच लिये हैं. ललित निबन्ध, व्यक्ति-चित्र, रिपोर्ताज, हास्य-व्यंग्य, यात्रा-विवरण, रेखा-चित्र, संस्मरण - ऐसी अनेक विधाएं हैं जिनकी ओर लेखकों का ध्यान कम-से-कमतर जाने लगा है. नतीजा यह कि कई बार वह कथ्य जो किसी और विधा का विषय है, जबरन कहानी या कविता में पिरोया जाने लगता है. मैं जानता हूं कि यह कहना उस बहस को आमन्त्रित करना है कि कविता फिर क्या है आख़िर ? मेरा अपना ख़याल है कि इस बहस को भी इस नये दौर में एक बार फिर से कर ही लेना चाहिये, यहां इसका मौक़ा तो नहीं है, पर मैं एक प्रस्थान बिन्दु सुझा रहा हूं. हमारे एक साथी कवि राजेश जोशि की एक कविता है "अहद होटल" जिसमें उन्होंने अपने शहर के एक होटल के अत्तेत और वर्तमान को याद करने के बहाने बदलते समय और समाज का एक चित्र पेश किया है. राजेन्द्र यादव ने अपनी कहानी "तलवार पंचहज़ारी" में भी कुछ-कुछ ऐसा ही किया था. अगर हम "अहद होटल" शीर्षक कविता को कहानी में ढालना चाहें तो बहुत मौश्किल नहीं पेश आयेगी, वैसे ही जैसे राजेश जोशी की तकनीक से "तलवार पंच हज़ारी" को एक कविता में ढाला जा सकता है. राजेश यों भी आख्यानमूलक कविता के समर्थक हैं. लेकिन मुक्तिब्ध की कविता "अंधेरे में" हमारे समय का एक बड़ा आख्यान होते हुए भी कहानी के रूपाकार में पेश नहीं की जा सकती.
एक आरोप जो हाल के वर्षों में कविता पर लगता रहा है वह यह कि आज कविता लिखना बहुत आसान हो गया है. छ्न्द की बन्दिश रही नहीं, रूप की दूसरी बन्दिशें, मसलन रस, अलंकार, आदि महत्व खो बैठी हैं, सो कुछ भी लिख दीजिये कविता हो जाता है. मगर क्या सचमुच ऐसा है ? अगर नहीं तो कविता ने आज अपने लिए कौन-सी कसौटियों की ईजाद की है ? कहीं इसी वजह से तो शायद पाठक कविता के सिलसिले में यह सवाल नहीं उठाते कि वह समझ में नहीं आती, या वह कविता जैसी नहीं लगती. मैं जानता हूं कि कई बार ये सवाल नाजानकारी में उठाये जाते हैं. पाठक एक विशेष प्रकार की कविता के अभ्यस्त होते हैं और नयी रचनाशीलता धैर्य और समझदारी की मांग करती है. और फिर ऐसे एतराज़ हमें उसी पुरानी बहस की ओर ले जाते हैं जिसका ज़िक्र मैंने अभी किया - कि कविता क्या है, जिसकी आज यहां बहुत गुंजाइश नहीं है. इसलिए मैं यहां बस आपका ध्यान इस पहलू की तरफ़ दिला कर एक और नुक़्ते की तरफ़ इशारा करूंगा जो मुझे कभी-कभी खटकता है.
सामाजिक विषमता की बात करते हुए क्या हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि सामाजिक विषमता सिर्फ़ समाज तक ही महदूद नहीं है, वह सामाजिक गतिविधियों में भी नज़र आती है. मसलन रोज़मर्रा के काम-काज में. या फिर अगर साहित्य भी एक सामाजिक कार्रवाई है तो उस विषमता का अक्स साहित्य में भी दिखाई देता है क्या ? क्या कुछ विधाएं उच्चवर्गीय हैं, कुछ निम्न और कुछ बीच की. कुछ सवर्ण विधाएं हैं, कुछ दलित और कुछ बीच की जातियों की. अब यही देखिए कि नाटक एक उपेक्षित विधा है, भले ही कभी-कभी वह शाही ताम-झाम के साथ नज़र आती हो. आज तक किसी नाटककार को ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिला, कम-से-कम हिन्दी में; और साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी आज तक किसी नाटककार को नहीं दिया गया है. इसी तरह व्यंग्य पर अकेले परसाई को और कहानी की विधा पर निर्मल वर्मा और उदय प्रकाश को सहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया है. सब से दिलचस्प बात यह है कि सुरेन्द्र वर्मा को जो नाटककार के रूप में जाने जाते हैं नाटक पर नहीं उपन्यास पर पुरस्कृत किया गया. कविताओं में नाटकीय लम्हे नज़र आते हैं पर नाटक बज़ाते-ख़ुद अछूत बना हुआ है.
एक ज़माना था कि कविता - या कहा जाय छ्न्द - ही सहित्यिक अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन था. लेकिन जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ कविता और नाटक के साथ अन्य विधाएं भी ईजाद की गयीं क्योंकि यह महसूस किया गया कि ऐसा बहुत कुछ है जो कविता की पहुंच से बाहर है, भले ही किसी काव्यात्मक कृति का कलेवर कितना ही विराट क्यों न कर दिया जाये. इसी ज़रूरत के चलते कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, यात्रा विवरण, ललित निबन्ध, आलोचना, आदि अनेक विधाएं सामने आयीं और अच्छे-ख़ासे समय तक फलती-फूलती रहीं. फिर धीरे-धीरे पहिया उलटी तरफ़ चलने लगा. ले-दे कर कविता, कहानी और उपन्यास -- इन्हीं तीन विधाओं का वर्चस्व साहित्य की वसुन्धरा पर दिखायी देने लगा. और बीच-बीच में इनके बीच में भी ऊंच-नीच की होड़ नज़र आने लगी. इसके सामाजिक कारणों की खोज ज़रूरी है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सामाजिक समता की लड़ाई जैसे-जैसे हाल के वर्षों में कमज़ोर हुई है, वैसे-वैसे सामन्ती मूल्यों की वापसी के साथ जातीय कट्टरता बढ़ी है, और इससे हुआ यह कि साहित्य में भी एक श्रेणी विभाजन हो गया है. वरना क्या कारण है कि बीसवीं सदी के शुरुआती पांच-छै दशकों तक अनेक साहित्यकार अनेक विधाओं में लिखते थे. कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने एक या दो विधाओं में ही रचनाएं कीं मगर वे अन्य विधाओं के प्रति असहिष्णु नहीं थे. यह तो हाल के वर्षों में हुआ है कि विधाओं और उनके अलमबर्दारों के बीच खींचातानी शुरू हुई है. राजेन्द्र यादव ने अगर कविता का फ़ातिहा पढ़ दिया तो अशोक वाजपेयी ने कविता के बाहर न झांकने की क़सम खा ली. मेरे निकट यह रवैया न तो कविता के लिए श्रेयस्कर है, न गद्य के लिए.


३.

इस हालत में जब हम कविता के मौजूदा परिदृश्य पर निगाह डालते हैं तो कविता की वसुन्धरा बहुत हरी-भरी नज़र आती है. केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण जैसे वयो-वृद्ध कवियों से ले कर अनुज लुगुन, मुकेश मानस, मुकुल सरल और रजनी अनुरागी तक -- कवियों की तीन-चार पीढ़ियां इस समय सक्रिय हैं. सिर्फ़ सक्रिय ही नहीं हैं, बल्कि उनमें आश्चर्यजनक विविधता भी दिखायी देती है और कहना न होगा कि सबसे ज़्यादा विविधता हमारे युवतर साथियों में है. युवा कवियों में अगर हम गिरिराज किराडू और अशोक पाण्डेय से ले कर पूनम तुषामड़, आस्तीक वाजपेयी और महेश वर्मा की कविताओं को देखें तो विषय, कथ्य और अन्दाज़-ए-बयां के लिहाज़ से -- उसी वसुन्धरा वाले रूपक को अगर और आगे बढ़ा कर कहूं तो -- एक विशाल उपवन हमें फलता-फूलता नज़र आता है. एक ओर अगर वह सीधी-सपाट शैली है जो साठ और सत्तर के दशक की कविता की शक्ति थी तो दूसरी ओर वह वक्रता है जो बीसवीं सदी के अन्तिम दशक की कविता ने अपने समय की जटिलता को अभिव्यक्त करने के लिए अपनायी. इसके साथ-साथ एक खिलन्दड़ापन भी है -- भाषा को नये ढंग से बरतने के सिलसिले में -- जो श्रीकान्त वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल जैसा न होते हुए भी उनके प्रयोगों की याद कराता है. मिसाल के लिए महेश वर्मा की कविता "पानी" में उनका ख़ास रंग --

पानी
अब वही काम तो ठीक से करता , वहाँ भी / पिछड़ ही गया वाक्य सफ़ेद कुर्ते में पान खाकर / तर्जनी से चूना चाटने की तरह कहा जाता
जहाँ उसी आसपास साईकिल अब कौन चढता है / प्रश्न के उत्तर की तरह चलता हुआ ब्रेक इसलिए / नहीं लगा पा रहा था कि रुकते ही प्यास
लगेगी. बिना अपमान के सादा पानी छूंछे / पीकर निकल जाना मुश्किल होते जाने के शहर / में या तो मंत्री हो गए सहपाठी का किस्सा सुनाते
परचूनिए से उधार ले लूं या पत्रकार बन जाऊं के विकल्प / को छोड़ कर कविता लिखना तो ट्यूशन पढ़ाने से भी
कमज़ोर काम कि पीटने के लिए छात्र और दांत / दिखाने के लिए विद्यार्थी की महिला रिश्तेदार भी
नहीं . धूप में साइकिल कहीं रोकने में पुराने पंक्चर / के खुलने का डर तो इस दोगलेपन का क्या / कि जो दरवाजा जीवन से कविता की ओर खुलता
वही दरवाजा कविता से जीवन में लौटने का नहीं.

इसी के बरक्स गिरिराज किराडू का अपना अन्दाज़-ए-बयां है --

रूपकों पर घिर आयी है एक बेरहम अजनबी छाया
कभी सपने जैसी भाषा में वे तैरते थे आँखों के आगे आपकी कविता की तरह
कितना निकट आना होता है आपकी कविता के
उसके जैसा न होने के लिए विनोदजी
एक उम्र गुजर रही है उस निकटता को पाने में
आप अपने नगर में आदिवास करते हुए मगन होंगे
जब सबसे छूट कर आपसे भी छूट जाऊंगा
हर तरफ हर बोली में लोग लाउडस्पीकर पर एक झूठा छत्तीसगढ़ बना रहे होंगे
आप मेरा आख़िरी रूपक हैं कह कर देखता हूं मीर को दस महीने के बच्चे को
मीर कहना उसे उस ख़ाली जगह रखना है जो
भविष्य के नमस्कार हो जाने से बनी है
सदा ख़ुश रहिये यूं ही लिखते रहिये मेरा आशीर्वाद है आपको

लेकिन इस सब का स्वागत करते हुए हमें उन ख़तरों के प्रति जागरूक रहना चाहिए जो बहुत अधिक कला से पैदा होते हैं. इस सिलसिले में रघुवीर सहाय की एक पंक्ति मुझे हमेशा याद आती रहती है और एक कसौटी का-सा काम करती है कि "जहां बहुत अधिक कला होगी वहां परिवर्तन नहीं होगा." सो, हमें कला का दामन वहीं तक थामे रहना है जहां तक वह परिवर्तन से हमें विमुख न करे.
गिरिराज किराडू की एक और विशेषता है. अक्सर उनकी कविता पहले के साहित्य से वस्तु या विषय या ख़याल या सन्दर्भ ग्रहण करती है, यों कहें कि उड़ान भरती है. इस प्रवृत्ति के बारे में अशोक वाजपेयी ने बहुत लिखा है और उसकी ताईद की है. लेकिन जब वह एक कवि का मुहावरा बनने लगे तो ? या फिर पाठक से यह अपेक्षा रखने लगे कि उसे भी उतना सुपठित-बहुपठित होना होगा जितना कि कवि तो ? ऊपर की कविता को लीजिये. ज़ाहिर है कि जो हिन्दी कविता से परिचित हैं वे तो जान जायेंगे कि इसमें कवि विनोद कुमार शुक्ल की बात हो रही है जो रायपुर में रहते हैं और जिनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ रचा-बसा है. मगर जो इस बात को नहीं जानते उनका क्या होगा ? वैसे जहां तक ख़ुद विनोद जी का ताल्लुक़ है, उनकी कविता में ऐसे लटके-झटके नहीं हैं. मिसाल के लिए उनकी कविता की एक बानगी पेश है -- "हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था मैं उस व्यक्ति को नहीं जानता था पर मैं हताशा को जानता था मैं ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया वह मुझे नहीं जानता था पर हाथ बढ़ाने को जानता था हम कुछ दूर साथ साथ चले हम एक दूसरे को नहीं जनते थे पर साथ साथ चलने को जानते थे."
इस सन्दर्भ में मुझे अक्सर एज़रा पाउण्ड की चुनी हुई कविताओं पर लिखी गयी टी.एस.एलियट की भूमिका के उस अंश की याद हो आती है जहां वे मौलिकता की चर्चा करते हुए कहते हैं कि "सच्ची मौलिकता महज़ विकास है; और अगर वह सही विकास है तो अन्त में वह इतना अनिवार्य महसूस हो सकता है कि हम लगभग उस नज़रिये तक पहुंच जायें कि हम कवि को "मौलिकता" के गुण से पूरी तरह रहित ठहरा बैठें...एक सतही-सी कसौटी है जिसके अनुसार मौलिक कवि सीधा जीवन की ओर जाता है और ’डेरिवेटिव’ यानी उद्भूत कवि ’साहित्य’ की ओर. जब हम इस मामले को परखते हैं तो हम पाते हैं कि जो कवि सचमुच "उद्भूत" है वह साहित्य को जीवन समझने की भूल कर रहा है और अक्सर इस भूल का कारण यह होता है कि उसने काफ़ी कुछ पढ़ा नहीं होता."
ज़ाहिर है कि गिरिराज के सिलसिले में यह मानने की भूल नहीं की जा सकती कि वे जीवन और साहित्य में अन्तर न कर पाते होंगे या उन्होंने काफ़ी कुछ पढ़ा न होगा, तो भी यह सवाल रह ही जाता है कि इस हद तक साहित्य को कविता का उपजीव्य बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस की जाती है ? जिन पाठकों को उन सन्दर्भों का पता नहीं है, वे ऐसी कविताओं को कैसे समझ पायेंगे, समझने शब्द से अगर एतराज़ हो तो उसकी जगह आप बेखटके आनन्द रख दीजिये? यह प्रवृत्ति महेश वर्मा की कविता "रेमेदिओस" और प्रत्यक्षा सिन्हा की कविताओं में भी दिखायी देती है. "रेमेदिओस" लातीनी अमरीका के प्रसिद्ध उपन्यासकार गेब्रियेल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास "एकाकीपन के सौ वर्ष" की एक पात्र है. जिन्होंने मार्केज़ का उपन्यास नहीं पढ़ा है, वे इस सन्दर्भ को कैसे समझ पायेंगे ? निराला जब "सरोज-स्मृति" में कहते हैं "ऐसे शिव से गिरिजा विवाह करने की मुझको नहीं चाह" तो उन्हें कविता के नीचे फ़ुटनोट लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
इसके साथ ही युवा कविता में यह प्रवृत्ति भी दिखायी देती है कि कवि अपनी अलग राह खोजने के कठिन काम से बचने के लिए पहले की आज़मायी हुई हिकमतों से काम लेते हैं. यह प्रवृत्ति ख़ास तौर पर उन कवियों में दिखायी देती है जिनके पास चुस्त-दुरुस्त भाषा है. वे एक मुहावरा पकड़ते हैं और जल्दी से स्वीकृत कवियों की सफ़ में आने की जुगुत बैठाने लगते हैं. इसीलिए कई बार उनकी कविताओं में पहले के किसी प्रतिष्ठित कवि की झाईं नज़र आती है. पिछली पीढी के एक कवि की सलाह - "चालाक फ़िकरों से बच कर लिखो एक छोटा-सा सच और देखो कि वह कितना कारगर होता है" - उन्हें बेमानी लगती है. यक़ीनन कविता इर्द-गिर्द की दुनिया पर ही लिखी जायेगी, देखना तो यह है कि कवि उस दुनिया को कैसे पेश कर रहा है. क्या वह इस देखी गयी दुनिया के अनदेखे पहलू उजागर कर रहा है ? चीज़ों को नये कोण से देख और दिखा कर हमें उन्हें बदलने की लड़ाई में और होशमन्द बना रहा है या नहीं. इसलिए एक सवाल जो नये कवियों को अपने से पूछना होगा - और यह एक कसौटी का काम भी कर सकता है - कि कवियों ने अपने विषयों का चुनाव करने के साथ-साथ उन्हें अभिव्यक्त करने के कितने तरीक़े इस्तेमाल किये हैं. हमेशा से अभिव्यक्ति के चार तरीक़े होते हैं -- पुरानी बात को पुराने ढंग से कहना, बात पुरानी हो मगर नये ढंग से कही जाय, नयी बात पुराने ढंग से कही जाय और नयी बात नये ढंग से कही जाय. कविता की आज़मायी हुई कसौटियों में "उपज" को काफ़ी अहमियत दी गयी है. यही वह गुण है चीज़ों को नये पहलू से देखने का जिसके बल पर कविता अपनी परम्परा से जुड़ती है. प्रेम एक पुराना विषय है और जब से कविता कही-लिखी जाती रही है अपनी जगह पर मौजूद रहा है. देखना यह होगा कि उसके साथ कवि ने क्या सुलूक़ किया है और कविता प्रेम के साथ-साथ इर्द-गिर्द के जीवन के कौन-से नये पहलू खोलती है.

४.

इसी सन्दर्भ में एक और पंक्ति का ज़िक्र करना चाहता हूं जो मुक्तिबोध अक्सर नये-से-नये मिलने वाले से पूछ बैठते थे -- पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है ? यह लट्ठमार-सा प्रश्न उनकी ज़िन्दगी और कला का तो मूलमन्त्र बना ही रहा, आगे आने वालों के लिए भी एक ज़रूरी सवाल बन गया. यहां आप सब के सामने, जो कविता में ख़ूब रसे-पगे हैं, इस बात पर बल देने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि आप सब जानते हैं कि दुनिया की श्रेष्ठतम कविता राजनीति से किनारा करके नहीं, बल्कि राजनीति से जुड़ कर लिखी गयी है. और यह भी हम जानते हैं कि अगर कविता जनोन्मुखी नहीं है तो वह अपना फ़र्ज़ नहीं अदा कर सकती. मुझे याद आता है कि आपातकाल के दौरान और उसके बाद जब "कविता की वापसी" के दौर में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने वाम राजनीति से जुड़े लोगों पर चोट करते हुए कविता में "फूल-पत्ती-बच्चे-प्रेम" की गुहार लगायी थी तो हमारे मित्र ज्ञानरंजन ने "पहल" के एक सम्पादकीय में नेरूदा या नाज़िम हिकमत के हवाले से लिखा था कि घोषित राजनीति कला को चमकाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि राजनैतिक कविता का अर्थ सिर्फ़ गोली-बन्दूक पर लिखी कविता नहीं है, एक प्रेम कविता भी राजनैतिक कविता हो सकती है, होती है. और यह भी छिपी हुई बात नहीं है कि जो कहते हैं कि उनकी कोई राजनीति नहीं है, उनकी भी एक राजनीति होती है.सवाल तो पक्ष का है. यह तय करने का है कि किस ओर हो तुम.

यह छोटा-सा नोट लिखने का ख़याल मुझे तब आया जब युवा कविता पर सोच-विचार करते हुए मैंने हिन्दी "आउटलुक" में पत्रकार और प्रतिभाशाली कवि-कहानीकार आकांक्षा पारे की दो कविताएं पढ़ीं --"घर" और "कैसे हो सकता है ऐसा." पहली कविता में आकांक्षा ने सड़क किनारे कच्चे घरों और उन में रहने वालों की तस्वीर खींची है --

सड़क किनारे तनी हैं / सैकड़ों नीली, पीली पन्नियां / ठिठुरती रात / झुलसते दिन / गीली ज़मीन / टपकती छत के बावजूद / गर्व से वे उन्हें कहते हैं घर.
कल की फ़िक्र किये बिना / वे जीते हैं आज / कभी अतिक्रमण / कभी सौन्दर्यीकरण / कभी बिना कारण / उजाड़ दिये जाते हैं वे
बिना शिकन बांधते हैं वे / अपनी ज़मीन / अपना आसमान / निकल पड़ते हैं / सड़क के नये किनारे की तलाश में

ज़ाहिर है कि सड़क किनारे रहने वालों की दुनिया हमारे आधुनिक शहरी जीवन की एक हक़ीक़त है, जिसे हम कई बार देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. पर इस कविता में औपरेटिव शब्द है "घर" - जो आकांक्षा की कविता के अनुसार "चूल्हे की राख, पेट की आग, सपनों की खाट, हौसले का बक्सा, उम्मीदों का कनस्तर" अपने भीतर समोये हुए है. और घर इन्हीं चीज़ों से तो बनता है. क्या आम तौर पर घर कहते समय इन चीज़ों का बिम्ब हमारे सामने उभरता है ? शायद नहीं, इसीलिए यह कविता अपनी सादगी में भी मानीख़ेज़ बन जाती है.
लेकिन जब मैंने आकांक्षा की दूसरी कविता "कैसे हो सकता है ऐसा" पढ़ी तो लगा कि कवित जितना उजागर कर रही है, उस से ज़्यादा छिपा रही है --

कैसे हो सकता है ऐसा जंगल में जब हार रही हो ख़ाकी वर्दी
उजड़ रहे हों सैनिकों के घर तब दो खिलाड़ियों के घर बसाने की चिन्ता में चर्चा करते रहें तमाम दिग्गज
विधवाओं के विलाप करते चेहरों पर ध्यान दिये बिना
चमकते रहें दो खिलाड़ियों के चेहरे टीवी पर दिन भर

इस कविता के साथ एक नोट भी आकांक्षा पारे ने दिया है -- "छत्तीसगढ़ में 72 सैनिकों की शहादत के बजाय सानिया की शादी और आईपीएल को टीवी पर ज़्यादा तवज्जो दिये जाने पर."

पहली बात तो यह है कि छत्तीसगढ़ में मारे गये सैनिकों से सम्बन्धित समाचार और इस घटना पर चर्चा किसी मानी में टीवी पर कम नहीं हुई थी. इसलिए अगर सानिया मिर्ज़ा या आईपीएल की चर्चा को ज़्यादा तवज्जो दी गयी तो यह कोई नयी बात नहीं. मेरा सवाल यह है कि मीडिया ही की तरह कवयित्री को छत्तीसगढ़ में पुलिस और तमाम तरह के सशस्त्र बलों के शिकार आदिवासी नज़र नहीं आये, उनकी बलत्कृत औरतें और बेटियां दिखायी नहीं दीं, पुलिस द्वारा हेमचन्द्र पाण्डे जैसे सहकर्मी पत्रकार की निर्मम हत्या ने उद्वेलित नहीं किया, आज़ाद और दसियों लोगों के झूठे एन्काउण्टरों ने संवेदित नहीं किया, उनकी नज़र गयी तो वहां जहां हमारी हत्यारी सरकार और गृह मन्त्रालय चाहता है कि जाये. वे अगर मात्र कवयित्री होतीं तो शायद यह चूक राजनैतिक समझ की कमी कही जा सकती थी, पर वे उस पत्रिका से जुड़ी हैं जिसने आदिवासियों की हालत के बारे में अरुन्धती राय के दिल दहलाने वाले लेख प्रकाशित किये हैं. ऐसी हालत में जब इसी वसुन्धरा पर आकांक्षा पारे के यह कविता और अनुज लुगुन और निर्मला पुतुल की कविताएं एक साथ मौजूद हों तो जांच-परख का पैमाना क्या होगा ? क्या हम मुक्तिबोध के सवाल से बच कर चलने का खतरा मोल ले सकते हैं ?

वैसे तो कविता की कसौटियां समय-समय पर बदलती रहती हैं, लेकिन कविता को जांचने के कुछ तरीक़े अब भी कारआमद साबित होते हैं. मसलन, जब हम कविता का, एक पुराना शब्द इस्तेमाल करूं तो, रसास्वादन करने से आगे बढ़ कर उसकी परख करने के काम की तरफ़ बढ़ते हैं तो हमें अनिवार्य रूप से कविता के बाहर आना पड़ता है, वैसे ही जैसे वास्तु-शिल्प के किसी नमूने का अन्दाज़ा हम अन्दर से कभी पूरी तरह नहीं लगा सकते. अगर हमारी आंखें बन्द करके हमें उस भवन में छोड़ दिया जाये तो हम कभी उसके रूपाकार के बारे में नहीं जान सकते चाहे हम उसके भीतर कितने ही दिन क्यों न बितायें. कविता को, या कहें कि साहित्य को, परखने के लिए हमें उसके बाहर आना ही पड़ेगा/पड़ता है भले ही कविता की जांच कविता के भीतर से करने की जितनी भी वकालत की जाये. और कविता के बाहर क्या है ? ज़ाहिर है, वह समय और उस समय का समाज जिसमें कविता लिखी जा रही है. इसीलिए कविता के बारे में कोई राय व्यक्त करते समय हम सबसे पहले यह देखते हैं कि जिस समय की कविता है, क्या उस समय की झाईं कविता में नज़र आ रही है या नहीं. यह सवाल उस समय और भी ज़रूरी हो उठता है जब चारों तरफ़ का समय और समाज तेज़ी से बदल रहा हो. युवा कवि मुकुल सरल ने अपनी एक कविता में इसी हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया है और एक वाजिब सवाल उठाया है -

सारे दृश्य बदल रहे हैं / कौन हो तुम? / साथ मेरे / हाथ थामे / जा रहे हैं हम कहां...

लेकिन कविता के अन्त तक पहुंचते-पहुंचते यह सवाल बदल जाता है --

सारे दृश्य बदल रहे हैं / कौन हो तुम / साथ उनके! / जा रहे हो / तुम कहां...?

लेकिन दृश्य तो हमेशा बदलते रहते हैं. ऐसा कोई समाज नहीं जो किसी विशाल चट्टान की तरह स्थिर और परिवर्तन की प्रक्रिया से अछूता रहा हो. सवाल तो यह है कि तब्दीली का स्वरूप क्या है और कारण कौन-से हैं. मुकुल इस तब्दीली के कारण कविता के उस अंश में स्पष्ट करते हैं जो इन दो उद्धरणों के बीच है. पृथ्वी की सुन्दरता की तरफ़ इशारा करते और इसी जगह घर बनाने की हसरत दर्ज करते हुए वे उस ओर भी नज़र डालते हैं, जहां आज लोग "कर रहे एक और विश्वयुद्ध की तैयारी." मुकुल को इस बात का पूरा एहसास है कि पागलपन दोनों ओर है, उनमें भी जो हथियार बना रहे हैं और उनमें भी जो हथियार जमा कर रहे हैं --

कर लिये कितने जमा हथियार घातक
एक हम-तुम दीखते पागल-दीवाने
घात में बैठे हैं ले कर बम विनाशक
जाने कब संहार कर दें इस जहां का

जिस बदलती हुई दुनिया के चित्र मुकुल अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं वह हमारे समय ही की उत्तरोत्तर क्रूर और ख़ूंख़ार होती दुनिया है, जिस की छवियां हमें आज की युवा कविता में बराबर मिलती हैं. मिसाल के लिए मृत्युंजय की कविता में छत्तीसगढ़ के हवाले से --

"बस्तरिया मैना के कण्ठ में उग आये कांटे...
अबकी बसन्त में टेसू के लाल फूल
सुर्ख़-सुर्ख़ रक्त चटख झन-झन कर बज उट्ठे
ख़ून की होली जो खेली सरकार बेक़रार ने."

या फिर अशोक पाण्डेय की कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार" में --

"यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्न सदी का पहला दशक
पहला दशक एक भूमण्डलीय धुरी पर घूमते गांव का
सबके पास हैं अपने अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणान्तक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक.

"स्वप्नों के प्राणान्तक बोझ से कराहती सदी " के इस पहले दशक में कुछ और भी स्वप्न हैं जिनकी शिनाख़्त हमें अनुज लुगुन और निर्मला पुतुल की कविताओं में होती है. अनुज लुगुन की कविता "हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती तो शुरू ही सपनों के ज़िक्र से होती है :

हमारे सपनों में रहा है
एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए
खेतों के सम्मान को बनाए रखना
हमारे सपनों में रहा है
कोइल नदी के किनारे एक घर
जहाँ हमसे ज्यादा हमारे सपने हों

और इन्हीं सपनों में है एक चाहत :

कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़

लेकिन यह कोई थोथी स्वप्नदर्शिता नहीं है, क्योंकि अनुज लुगुन को मालूम है कि -

हमारी चाह और उसके होने के बीच एक खाई है
उतनी ही गहरी
उतनी ही लम्बी
जितनी गहरी खाई दिल्ली और सारण्डा जंगल के बीच है
जितनी दूरी राँची और जलडेगा के बीच है


और है इसके बीच "खड़े होने की जि़द" और इस ज़िद पर टिके रहने का संघर्ष.

ज़ाहिर है कि यह उत्तरोत्तर जटिल होती दुनिया के बिम्ब हैं, उस दुनिया के जिस में मनुष्यविरोधी ताक़तें प्रतिरोध के बावजूद बार-बार उभरती हैं. मृत्युंजय ने अपनी कविता "कीमोथेरेपी" में बड़ी दक्षता से इस लड़ाई को मनुष्य के शरीर में होने वाले कैंसर और कीमोथेरेपी से उसके इलाज के रूपक द्वारा व्यक्त किया है. वे बड़ी खूबी से शरीर के कैंसर से परत-दर-परत पूंजीवाद का रूपक गढ़ते हुए इस संघर्ष को एक नयी नज़र से देख कर अंकित करते हैं. शरीर में कैंसर की मौजूदगी को संकेतित करते हुए जब वे लिखते हैं कि "यह एक समरभूमि है यहां लाख नियम एक साथ चलते हैं व्यूह भेद की लाख कलाएं लाखों मोर्चे एक ही वक़्त में एक ही जगह पर खुले रहते हैं" तो यह अन्दाज़ा नहीं होता कि वे उस विराट प्रक्रिया का ज़िक्र कर रहे हैं जो शरीर के अन्दर नहीं बाहर चल रही है और कविता की अन्तिम पंक्तियों में जब यह साफ़ होता है कि "कीमोथेरेपी की इस समरगाथा में कटे-फटे टुकड़े मनुष्यता के / पूंजी की भव्य-निर्जल चट्टानों पर यही कथा रोज़-रोज़ दुहराई जाती है" तो कविता एक सर्वथा नया अर्थ ग्रहण कर लेती है.

जिन कवियों ने राजनीति से परहेज़ किये बिना कविता का सफ़र तय करने की कोशिश की है उन में अच्युतानन्द मिश्र और सन्तोष चतुर्वेदी के नाम लिये जा सकते हैं. हालांकि अच्युतानन्द की कविता में कहीं-कहीं अवसाद की हल्की सी अन्तर्धारा महसूस होती है, उनकी कविता "इस बेहद संकरे समय में" मिसाल की तरह पेश की जा सकती है :


वहाँ रास्ते खत्म हो रहे थे और
हमारे पास बचे हुए थे कुछ शब्द
एक फल काटने वाला चाकू
घिसी हुई चप्पलें
कुछ दोस्त

हमारे सिर पर आसमान था
और हमारे पाँवों को जमीन की आदत थी
और हमारी आँखें रोशनी में भी
ढूँढ़ लेती थीं धुंधलापन

हम अपने समय में जरूरी नहीं थे
यही कहा जाता था
गोकि हम धूल या पुराने अखबार
या बासी फूल या संतरे के छिलके
या इस्तेमाल के बाद टूटे हुए
कलम भी नहीं थे,
हम थे
और हम बस होने की हद तक थे

लेकिन तिस पर भी वे अगर आत्म-दया में नहीं डूबते तो इसका श्रेय उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता ही को दिया जा सकता है, जो अचानक नहीं, बल्कि एक सचेत रूप से किया गया फ़ैसला है. इसीलिए कविता के अन्त में हताशा नहीं, बल्कि उम्मीद का स्वर ही उभरता है :

हमारी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में दर्ज होने लगे थे
कुछ गुमनाम नदियों के रास्ते
खुद के होने की बेचैनी
और रास्तों की तरह बिछने का हौसला भी था।

सभ्यता की शिलाओं पर
बहती नदी की लकीरों की तरह
हम तलाश रहे थे रास्ते
एक बेहद सँकरे समय में!

और जहां अच्युतानन्द सीधे-सीधे राजनैतिक वस्तु को उठाते हैं, मसलन "म्यांमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था" तो उनकी कविता में वैसी ही धार आ जाती है, जैसी मृत्युंजय जैसे उनके अन्य साथियों में. हां, यह ज़रूर ख़याल उन्हें रखना होगा कि वे भाषा के साथ चाहे जो सुलूक़ करें, व्याकरण को सही रखें. "कि" की जगह "की" का प्रयोग खटकता है और कई बार लिंग-प्रयोग में भी वे डगमगाते हैं.

युवा कवियों में सन्तोष चतुर्वेदी शायद उन गिने-चुने कवियों में हैं जिनकी कविताओं की लम्बाई पहले के दौर की याद कराती हैं, भले ही वे मौजूदा दौर की तस्वीरें उकेर रहे हों. "पेनड्राइव समय" हो या "मोछू नेटुआ" या "मां का घर" -- सन्तोष चतुर्वेदी की कविताओं का कलेवर आज की औसत कविताओं से ज़्यादा लम्बा है. इसके अलावा एक ओर नेटुआ और दूसरी ओर पेनड्राइव और दशमलव जैसे विषय चुनना भी सन्तोष की ख़ासियत है. "मोछू नेटुआ" इसलिए भी ध्यान आकर्षित करती है क्योंकि उसमें सन्तोष चतुर्वेदी ने उस बिरादरी के एक फ़र्द पर निगाह डाली है जो अंग्रेज़ों के ज़माने ही से अभिशप्त ज़िन्दगी जीने को विवश है और अभी तक उसका कोई निस्तार नहीं. कविता में मोछू नेटुआ, जो सांप पकड़ने का काम करता है, कहता है :

हां मालिक यह ससुरी सरकार तो
कभी हमें आतंकवादी बताती है
तो कभी घोषित कर देती है नक्सलवादी
.............
अब आपे बताइए मालिक
कि कैसे धोयें हम
अपने माथे पर जबरिया लादा गया
बेमतलब का कलंक
दिक्कत की बात तो यह कि
कभी कोई समझ ही नहीं पाया हमें
अब देखिए न आपे हमारी नियति
कि पुराने जमाने का अछूत मैं
इस जमाने का अपराधी हो गया हूॅ
होता रहा हमारे साथ
हमेषा बदतर सलूक
उठती रही बराबर मन में
एक अजीब सी हूक

कविता लम्बी है और आख्यान का अन्दाज़ उसमें नुमायां है. लेकिन जब एक पूरा समुदाय साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा जन्मना अपराधी क़रार दिया जाये और कथित आज़ादी के बाद भी उसका कोई पुर्सांहाल न हो तो ऐसी कविता एक ज़रूरी दस्तावेज़ बन जाती है, जिसमें महज़ एक समाज-शास्त्रीय कोण ही नहीं है, बल्कि जो हमारे समय को उसकी सारी जटिलता में परखती है, जिसमें सांपों को चीन्ह लेने वाले मोछू नेटुआ के लिए "आदमी को आदमी की भीड़ से बीन कर / ज़हरीले तौर पर अलगा पाना""एकदमे से असंभव" होता जा रहा है. "और सबसे दिक्कत तलब यह कि / अभी तक के सारे तन्त्र-मन्त्रों को धता बताता / कांइयां किस्म का आदमी ऊपर से कुछ और / अन्दर से कुछ और हुआ जा रहा है ....बदलती हुई परिस्थितियों में / उसकी समस्या अब यह है कि/ लगातार जहरीली होती जा रही इस दुनिया में से / कुछ बेजहर लोगों को वह कैसे सामने लाये.....कैसे वह अपनी चाहत का कुछ रंग जुटा कर / अपने समय की / एक सुखद तस्वीर बनाये."

हिन्दी में व्यक्ति-केन्द्रित कविताओं की एक सुदीर्घ परम्परा रही है. त्रिलोचन की "नगई मेहरा" हो या लीलाधर जगूड़ी की "बलदेव खटिक" -- कवियों ने परिवर्तन की कामना से वंचित, दलित लोगों को हमेशा बीच मंच पर लाने का काम किया है. सन्तोष की कविता "मोछू नेटुआ" उसी परम्परा की अगली कड़ी है. "तद्भव" २० में प्रकाशित उनकी दोनों कविताएं - भभकना और पानी का रंग - बड़ी कुशलता से प्रतीकों और बिम्बों का इस्तेमाल करके जनता की पक्षधरता और परिवर्तनकामी राजनीति की अन्तर्ध्वनियों को व्यक्त करती हैं. ख़ास तौर पर "पानी का रंग," जिसमें पानी के बेरंगपन को सन्तोष चतुर्वेदी उन तमाम बेनाम लोगों से जोड़ देते हैं जो बेनामी में जीते हुए दुनिया को हरा-भरा बनाये रखते हैं. अल्बत्ता, लम्बी कविताओं के साथ जो ख़तरा जुड़ा होता है -- शब्द स्फीति में बह जाने का -- उसके प्रति संतोष को सदा सजग रहना होगा.
६.
लेकिन कोई सवाल कर सकता है कि आज के समय का यथार्थ इतना भर ही नहीं है, उसके और भी पहलू हैं. स्त्रियों की आधी दुनिया है, बच्चे हैं, घर-परिवार है, प्रेम है. ये सारे पहलू आज के युवा कवियों की कविताओं की वसुधा में मौजूद हैं. सारे-के-सारे भले ही एक कवि में न पाये जायें, लेकिन उनकी छवियां आज की युवा कविता में छिटकी हुई हैं. अलबत्ता यह ज़रूर चिह्नित किया जा सकता है कि प्रेम पहले ही की तरह आज भी एक सदाबहार विषय बना हुआ है और एक कसौटी का भी काम करता है. सन्ध्या नवोदिता अपनी एक कविता में साफ़-साफ़ अपने समय में प्रेम का एजेण्डा तय करते हुए लिखती हैं :

सारी कविताएँ
न तो युद्ध की होंगी
न प्रेम की
पर बिना प्रेम के
कैसे होगी कविता?

और इसी ज़रूरी सवाल का उत्तर देने के क्रम में हमें आज की कविता में प्रेम के अलग-अलग अक्स दिखायी देते हैं.

७.

वैसे तो, स्त्रियों की स्थिति पहले भी कुछ अच्छी न थी, पर हाल के दिनों में तो उनकी तमामतर कोशिशों के बावजूद आम लोगों का रवैया सख़्त होता दिखायी देता है. बड़ी मुश्किलों से दहेज हत्याओं के आंकड़े कुछ कम होने की ओर बढ़े थे कि ’इज़्ज़त के नाम पर और उसकी ख़ातिर’ लड़कियों की बलि दी जाने लगी है. लेकिन युवा कविता में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पहले की तुलना में अधिक मुखर, खुले और एक जुझारू तेवर के साथ चित्रित दिखायी देते हैं. पहली शिकायत तो वही है जो सन्ध्या की एक कविता में व्यक्त हुई है और जो अमूमन पहले भी स्त्रियों को रही है चाहे वे इस रूप में उसे व्यक्त न करती रही हों कि ’बड़ी उम्मीदों से / मैं तुममें तलाशती हूँ एक साथी /और / नाउम्मीद हो जाती हूँ / हर बार / एक पुरूष को पा कर.
यों, ऐसा नहीं है कि इस का एह्सास औरों को नहीं है. अरुण देव की कविता "छल" बड़ी ख़ूबी से इस "डिलेमा" इस उलझन को, इस द्वन्द्व को सामने रखती है जब वे लिखते हैं -

"अगर मैं कहता हूँ किसी स्त्री से
तुम सुंदर हो

क्या वह पलट कर कहेगी
बहुत हो चुका तुम्हारा यह छल
तुम्हारी नज़र मेरी देह पर है
सिर्फ देह नहीं हूँ मैं"

और इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए वे स्त्री-पुरुष अनुकूलता के अन्य पहलुओं की अपर्याप्तता की ओर इशारा करते हुए वहां पहुंचते हैं जहां स्त्री को सुन्दर कहने से बढ़ कर बात उससे प्रेम व्यक्त करने तक पहुंचती है.

सोचा कि कह दूँ कि मुझे तुमसे प्यार है
पर कई बार यह इतना सहज नहीं रहता
बाज़ार और जीवन-शैली से जुडकर इसके मानक मुश्किल हो गए हैं
और अब यह सहजीवन की तैयारी जैसा लगता है
जो अंततः एक घेराबंदी ही होगी किसी स्त्री के लिए

इस स्थिति में यह एक ख़ुशी की बात है और एक स्वस्थ संकेत भी कि युवा कविता में अंकित स्त्री अपनी स्वतन्त्र राह खोजने और बनाने की, ख़ुदमुख़्तारी की वकालत करती नज़र आती है, जैसे रेणु हुसैन की कविता "सफ़र" में जो शुरू ही स्त्री के इस अहद के साथ होती है कि सफ़र भले ही बहुत मुश्किल है "मगर निकल पड़ी हूं जब इस राह पर तो खोज ही लूंगी कोई मंज़िल अपनी मैं तुमसे सहारा क्यों मांगूं." इस क्रम में सपनों के खो जाने और उम्मीदों के बिखर जाने के ख़तरे को और गहरे अंधेरे की हक़ीक़त को तस्लीम करते हुए यह स्त्री कहती है कि "मैं हूं आसमान और अपना सितारा ख़ुद ही, मैं तुमसे चिराग़ क्यों मांगूं." रेणु ही कविता "उड़ान" की स्त्री के ख़्वाहिश यह है कि "उड़ जाने दो मुझे किसी तितली की तरह एक पंछी की तरह खुली हवा में." यह आकस्मिक नहीं है कि उड़ान का बिम्ब सन्ध्या नवोदिता की भी एक कविता में आता है.

मेरे पास चिडि़या है
चिडि़या के पास हैं पंख
पंखों के पास है परवाज़
और परवाज के पास है
पूरा आसमान

पंख, चिडि़या, परवाज़ आसमान और में
यह रिश्ता बहुत पुराना है।
८.


हिन्दी कविता में तीन ऐसे विषय हैं जो उसकी शुरूआत ही से कवियों की चिन्ता का केन्द्र रहे है - जातिवाद, साम्प्रदायिकता और स्त्रियों की स्थिति. आज की कविता में, ख़ासकर युवा कविता में यह देखने की बात है कि ये किस तरह और किस रूप में मौजूद हैं. इस लिहाज़ से देखने पर हम पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद के ख़िलाफ़ युवा स्वर कहीं अधिक मुखर हुआ है. बल्कि कहा जाये कि बहुत-से युवा कवियों ने इन मसलों को जिस तरह अभिव्यक्त किया है वैसे वह पिछले दौर की कविता में नहीं नज़र आता. मुकेश मानस हों या मुकुल सरल, पूनम तुषामड़ हों या रजनी अनुरागी या और बहुत-से युवा कवि जिन्होंने समाज के दबे-कुचले तबक़ों की ओर से आवाज़ बुलन्द की है, इस तबक़े की बेगिनती छवियां हमें मिलती हैं.

मुकेश मानस की एक शुरुआती कविता ही में जात-पांत में बंटे समाज पर चोट है. इसी तरह पूनम तुषामड़ की कविता "दो शख़्स" में बड़े मुखर ढंग से इस सच्चाई को उजागर किया गया है कि उन दो शख़्सों में जिनकी "रहन-सहन वेश-भूषा भी मिली-जुली है" और जो दोनों ही ग़रीब हैं और "बंटवारे का शिकार" हुए हैं, अपने-अपने घरों से जुदा हुए हैं और सबसे बड़ी बात कि दोनों ही सफ़ाईकर्मी हैं, भेद पैदा करने वाला, उन्हें अलग करने वाला घटक धर्म है. यह कविता इसलिए भी ध्यान खींचती है, क्योंकि यह आदमी-आदमी के बीच दरार पैदा करने वाले तीनों तत्वों -- वर्ग, धर्म और वर्ण -- की प्रचालन शक्ति की दुरभिसन्धि को खोल कर सामने रख देती है, जहां साम्प्रदायिकता और जातिवाद के कुलाबे एक-दूसरे से मिलते नज़र आते हैं और ऐसा तफ़रका पैदा करते हैं जिसे वर्ग और पेशे की एकता भी मिटा नहीं पा रही है. ऐसी ही तीखी चोट पूनम की कविता "वह आती थी" में की गयी है. एक स्त्री जो झाड़ू-पोंछा बर्तन-सफ़ाई का काम करती थी, अपने घर के पास बसे भंगियों को बर्दाश्त नहीं कर पाती और कहती है - "उनकी हमसे क्या बराबरी है ? वे जन्मना नीच हैं हमारी ऊंची बिरादरी है." और पूनम की कविताओं में दलित-उत्पीड़ित समाज की अनेकानेक छवियां अंकित की गयी हैं, कभी मोटी रेखाओं में तो कभी वक्रता और व्यंग से लेकिन प्रतिरोध और संघर्ष का स्वर बराबर मौजूद है, वे साफ़-साफ़ ऐलान करती हैं

मुझे नहीं चाहिये मुट्ठी भर आसमां
मुझे चाहिये मेरे हिस्से की पूरी ज़मीं
जिस पर सदी-दर-सदी
पसीना बहाया मैंने
और फ़सल रही तुम्हारी

इस प्रयत्न में अगर ये कविताएं पारम्परिक साहित्यिक प्रतिमानों पर खरी न भी उतरें तो पूनम को इसकी चिन्ता नहीं है.
रजनी अनुरागी की अनेक कविताओं का उत्स भी दलितों की स्थिति है, लेकिन वे वहीं नहीं रुकती, बल्कि मुकेश मानस की तरह उनकी निगाह उन संघर्षों की ओर भी जाती है जो सिर्फ़ जाति के दायरे तक ही महदूद नहीं हैं. "जब भी योग्यता की बात हुई" या "नाम में क्या रखा है" जैसी कविताओं में अगर वे हिन्दुस्तानी समाज की वर्ण-व्यवस्था पर सवाल खड़े करती हैं तो "जनज्वार," "मज़दूरों की बस्ती" और "नये ज़माने का बाज़ार" जैसी कविताओं में उन परिवर्तनों की छवियां दर्ज करती हैं जो मिस्र और मध्य पूर्व में जनता को एक कर रहे हैं या फिर हमारे यहां नयी आर्थिक सोच और नीतियों के तहत विषमता बढ़ा रहे हैं. मिस्र के जन सैलाब को दर्जन करते हुए भी रजनी अनुरागी को पूरा एहसास है कि -

कितने ही हुस्नी मुबारक बैठे हैं
अल्जीरिया, सीरिया और लीबिया में
और हमारे आस-पास भी
हमारे दिलो-दिमाग़ पर क़ब्ज़ा किये
हमारे सब्र का इम्तहान लेते

इन्हीं परिवर्तनों के बीच रजनी ने स्त्रियों की स्थिति को भी उकेरा है और उनकी प्रेम की आकांक्षा को भी. "हमारी कविता" में बहुत मार्मिक ढंग से वे कहती हैं -

तुम कल्पना के घोड़े पर सवार
लिखते हो कविता और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए पानी में बह जाती कितनी ही बार

यहां से शुरू हो कर यह कविता आम कवि-पत्नियों के अन्दर-बाहर को सूक्ष्मता से चित्रित करते हुए अन्त में एक सीधी-सी मांग करती है -

अगर पढ़ सको तो पढ़ो हमको ही
हमारी कविता की तरह
हम औरतें भी एक कविता ही तो हैं

मुकेश मानस इन सभी युवा कवियों में निस्बतन तपे हुए हैं और उनकी कविताएं कुछ ज़्यादा अवकाश तलब करती हैं. यह चिह्नित करने की बात है कि मुकेश की कविता का दायरा पहले दौर में दलितों की स्थिति के अक्स उतारने से ले कर उससे टकराने के बाद अगले दौर में और फैल कर समस्त उत्पीड़ित जनों को अपने में समेट लेता है. वे सिर्फ़ वर्ण की विषमता पर बस नहीं करते, बल्कि उसे वर्गों की विषमता से भी जोड़ कर देखते हैं और यहां यक़ीनन उनकी सोच का दख़ल है जो सिर्फ़ अम्बेडकर और फुले के विचारों ही से नहीं, बल्कि मार्क्सवाद से भी पुष्ट हुई है. जब मैं उनकी "पतंग और चरखड़ी" शृंखला की कविताएं पढ़ रहा था तो अनायास ही मुझे आलोकधन्वा की कविता "पतंग" की याद हो आयी. इसमें कोई शक नहीं है कि आलोक की कविता में "पतंग" का एक अपना स्थान है और वे उन बच्चों का चित्रण करते हुए "जिनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे," आगे बढ़ कर उस दुनिया पर भी चोट करते हैं जिस में तानाशाह लगातार जनता के ख़िलाफ़ साज़िशें करते रहते हैं, लेकिन जहां आलोक की कविता में उन बच्चों का ज़िक्र है जिनके पास पतंग और धागा तो है और पतंग उड़ाने के लिए जिन्हें एक अदद छत भी मुयस्सर है, वहीं मुकेश ने उन बच्चों के चित्र उकेरे हैं जिन के पास कभी पतंग होती है तो चरखड़ी नहीं होती, कभी चरखड़ी होती है तो पतंग नहीं होती और अकसरहा इनमें से एक भी चीज़ नहीं होती. उस हालत में ये बच्चे कभी तो ख़ुद चरखड़ी बन जाते हैं कभी कवि की कविता मे आ कर अपनी हसरतें पूरी कर लेते हैं.
जैसे-जैसे मुकेश मानस की कविता में प्रौढ़ता आयी है, उनकी कविताओं में विषमता के स्वरों के बीच से प्रतिरोध के स्वर भी सुने जा सकते हैं. मसलन, "नये युग के स्पार्टाकस," "हमारा इनकार," "हत्यारा," "वर्तमान हैं हम" और "आने वाले वक़्त में." "नये युग के स्पार्टाकस" में मनुवाद को जातीय और वर्गीय उत्पीड़न से जोड़ते हुए कहते हैं -

लो, हम फिर से जी उठे हैं
अब हम हैं सर्व-व्यापी
अब हम हैं हवा में, सुगन्ध में, उजाले में, पानी में,
किताबों में, विचारों में, सांसों की रवानी में
संघर्ष की कहानी में अब हम हैं ज़िन्दगानी में
हम हैं नये युग के स्पार्टाकस
अब कैसे चढ़ा पाओगे हम को किसी भी सूली पर

मुकेश मानस की यह समझ इतिहास की समझ से पैदा हुई है और यह समझ उन्हें इस घोषणा की ओर ले जाती है कि -

जहां वेदों और स्मृतियों की भेड़िया धसान है
जहां जात ही इन्सान की एकमात्र पहचान है
और ऊंची जात का हैवान भी महान है
हम ऐसे देश के वारिस नहीं हैं.

इस कविता के अगले बन्द पूंजी के नंगे नाच और अन्याय के एक हिंसक साम्राज्य के साथ लोकतन्त्र के भेड़ियों का ज़िक्र करते हुए ऐसे देश के वारिस होने से इनकार की टेक बरक़रार रखते हैं. इनमें सबसे सुथरी कविताएं हैं - "वर्तमान हैं हम" और "आने वाले वक़्त में." "वर्तमान हैं हम" में कविता अतीत में झांकते हुए आग्रह करती है कि -

इतिहास वहां से शुरू करो
जहां हम थे अपने समूचे जिस्म और पूरे व्यक्तित्व के साथ
जिन्हें हर लिया था तुमने अपनी कुटिलताओं से

और इस आग्रह से शुरू करके वह इस इतिहास का जायज़ा लेती है जहां गर्दनों से सिर उतारे गये थे, "काट लिये गये थे हाथ उंगलियां और अंगूठे." और फिर साफ़-साफ़ कहती है कि "हम इस इतिहास से निकाले गये नायक हैं, मगर हम भुला चुके इतिहास, बीत गये इतिहास से कब कुछ नहीं हासिल" और अन्त में घोषित करती है - "अब वर्तमान हैं हम, इतिहास नहीं / शक्तिमान हैं हम, उपहास नहीं."

यह सिर्फ़ दलित-उत्पीड़ित जनों का दुखद लेखा-जोखा ही नहीं है, उनकी आकांक्षाओं का चिट्ठा भी है जिन्हें हासिल करने के लिए वे सन्नद्ध हैं. लेकिन कविता सिर्फ़ संघर्ष का अह्वान नहीं होती, वह स्वप्नों की भूमि भी होती है. यही वजह है कि "आने वाले वक़्त में’ शीर्षक कविता में भय से रहित लेकिन वाहनों से भरी सड़क, तोड़े जाने के दर से मुक्त फूलों से भरे बाग़, अध्यापक-विहीन मगर बच्चों से भरे स्कूल और अधिकारियों से नहीं सेवकों से चलने वाली सरकार की कामना करते हुए मुकेश मानस ऐसी दुनिया का स्वप्न देखते हैं "जिसमें सिर्फ़ नागरिक हों और राष्ट्र कोई न हो."
जातिवाद पर चोट करने वाली कविताओं का ज़िक्र करते हुए जहां यह निशानदही करने की ज़रूरत है कि जिस तरह हिन्दी कविता का यह पहलू हाल की युवा कविता का एक केन्द्रीय स्वर बना है और ऐसे रूप में बना है जैसा वह पिछले दौर की कविता में नज़र नहीं आता, वहीं उस ख़तरे की तरफ़ इशारा करना ज़रूरी है जहां कविता अपनी कविताई छोड़ कर प्रचार की तरफ़ बढ़ने लगती है. कबीर से ज़्यादा मुखर होने का दावा कम ही लोग कर सकते हैं, लेकिन अपने मुखरतम रूप में भी कबीर की कविता अपनी कविताई से किनाराकशी नहीं करती. वे सामाजिक प्रतिरोध के अलमबरदार तो हैं पर कविता को हाथ से छूटने नहीं देते. इस सिलसिले में जब मैं युवा कवि राज वाल्मीकि की कविताएं पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार एहसास हुआ कि वे कविता की हदों को लांघ कर प्रचार की हदें छू रही हैं. चाहे वह "मैं इसलिए आता हूं" जैसी कविता हो या "कब होगा" जैसी कविता या फिर "युद्धरत हूं मैं" जैसी कविता -- राज वाल्मीकि बेज़रूरत ही अम्बेडकर, फुले, बुद्ध और कबीर के नामों का उल्लेख करते हैं. दलित चेतना को व्यक्त करने या फिर उसे जगाने के लिए इस तरह की प्रचारपरक अभिव्यक्तियां कविता की शक्ति को कम करती हैं. इस में कोई शक नहीं है कि सारी कला प्रचार होती है लेकिन जैसा कि सुप्रसिद्ध जर्मन फ़िल्मकार फ़ासबिण्डर ने कहा था कि उनकी सबसे बड़ी कोशिश यह है कि उनका प्रचार कला बन जाये. इस सन्दर्भ में मैं पूनम तुषामड़ की कविता "यह नीला रंग" का ज़िक्र करना चाहता हूं. कविता पाठक को यह एहसास तो कराती है कि जिस आदमक़द मूर्ति का उल्लेख कविता में हो रहा है, वह अम्बेडकर की है, मगर वह कविता स्थूल व्यक्ति-चित्रण नहीं है. इसके विपरीत वह उस व्यक्ति के मुक्तिदायक विचारों के असर को रेखांकित करती है और यह भी कि कैसे विचार चेतना में जज़्ब हो कर उसके दायरे को विस्तृत करते हैं.
इसके साथ ही मेरा एक ज़रूरी सवाल यह भी है कि क्या जातिवाद पर अन्य कवि भी कुछ कह रहे हैं या यह पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की तरह सिर्फ़ दलित कविता की झोली ही में डाल दिया गया है ?

जातिवाद के अलावा जिस सवाल से हाल के वर्षों में कवियों का सरोकार रहा है, वह साम्प्रदायिकता है. ख़ास तौर पर जैसे-जैसे हमारे समाज में कट्टरपन्थी ताक़तों ने लोगों को बांटने की मुहिम तेज़ की है. एक पीढ़ी पहले के कवि एकान्त श्रीवास्तव ने अपनी शुरुआती कविता "नागरिक व्यथा" में स्पष्ट शब्दों में इसे चिह्नित किया था -- "मैं किस कोख से जन्म लूं कि हिन्दू, न मुसलमान कहाऊं." एक तरीक़े से इस कविता ने, जो साम्प्रदायिकता के साथ-साथ पर्यावरण, जातिगत भेद-भाव और सामान्य विषमता पर सवाल खड़े करती थी, पिछली सदी के आख़िरी दशक की कविता का एजेण्डा तय कर दिया था. लेकिन कुछेक उदाहरणों को छोड़ दें तो यह मुद्दा इधर की कविता में क्षीण हुआ है. अगर सईद अयूब या फ़रीद ख़ान की कविताओं में वह नज़र आता है तो उसके कारण स्पष्ट हैं, उनके विस्तार में जाने की ज़रूरत नहीं. ऐसे में यह तहक़ीक़ात ज़रूरी है कि साम्प्रदायिकता -- चाहे वह सीधे-सीधे हिन्दुत्ववादी एजेन्डे के रूप में आ रही हो या फिर सत्ताधारी वर्ग के दूसरे धड़े द्वारा "आतंकवाद" के बिल्ले से एक धर्म के अनुयायियों को कटघरे में खड़ा करके उनमें असुरक्षा का बोध पैदा करके उन्हें अपने धर्म के कट्टरपन्थियों की कठ्पुतलियां बनने पर मजबूर कर रही हो -- क्यों हमारे युवा कवियों के एजेण्डे में या तो शामिल नहीं है या फिर उनकी प्रमुख चिन्ता नहीं बन पा रही. या जहां वह है भी वहां वे उसे किस नज़रिये से देख कर चित्रित कर रहे हैं ?

९.

यहां यह कहना ज़रूरी जान पड़ता है कि हाल के वर्षों में समूची दुनिया में जो परिवर्तन हुए हैं -- सोवियत संघ के प्रत्याशित पतन से ले कर दुनिया के बराबर एक-ध्रुवीय होते जाने तक, एक तरफ़ पूंजी और पूंजीवाद के संकट और दूसरी तरफ़ आवारा पूंजी के नंगे नाच तक, सारी दुनिया को एक गांव बनाने की मुहिम से ले कर सारे गांवों को एक-दूसरे से अलग-अलग कर देने की साज़िश तक, देश के भीतर दमन और शोषण और भ्रष्टाचार के साथ-साथ बढ़ते हुए जातिवाद और साम्प्रदायिकता की प्रवृत्तियों तक और आदिवासी और दलित-शोषित समाज के ख़िलाफ़ सत्ताधारी वर्ग के खुले युद्ध तक -- इस सब का एहसास युवा कवियों में कभी मुखर तो कभी खामोशी से व्यंजित होता रहता है और जहां यह सब वाचाल तरीक़े से गुरेज़ करते हुए व्यक्त होता है वहीं कविताओं की ताक़त का एहसास हमें होता है.

आज से लगभग चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले, जब नयी कविता के घटाटोप और अकविता की विचारशून्य अराजकता से बाहर आ कर हिन्दी कविता ने अपनी पुरानी प्रतिज्ञाओं को नये सिरे से परिभाषित किया था तब से वह वादों और दायरों की गिरोहबन्दियों से निकल कर इन्हीं प्रतिज्ञाओं के बल पर अपनी परख कराती आयी है. ये प्रतिज्ञाएं क्या थीं ? दमन और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में साझेदारी, यथास्थिति से कभी समझौता न करने का संकल्प, सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी और वास्तविकता को पहचानने और उसे व्यक्त करने का आत्मसंघर्ष. चूंकि हिन्दी का जन्म और विकास ही वंचितों की वाणी और दीन-दलितों की आवाज़ के तौर पर हुआ है, इसलिए हिन्दी कविता की जिन प्रतिज्ञाओं का ज़िक्र ऊपर किया गया, वे अपने आप में एक कसौटी बन जाती हैं.
यह ठीक है कि जैसे-जैसे हमारे देश में और विशेष रूप से हिन्दी पट्टी में सांस्कृतिक संकट बढ़ा है, साहित्यकार सनद, पुरस्कार और सत्ता के दूसरे ताम-झाम की तरफ़ आकर्षित हो कर इन प्रतिज्ञाऒं से दूर गये हैं या इन प्रतिज्ञाओं को ही निरर्थक बता कर किन्हीं ’शाश्वत’ मूल्यों की तलाश करने लगे हैं, हिन्दी कवियों का एक बड़ा तबक़ा विपथगामी हुआ है. ऐसे में मुकुल सरल जैसे कवि हमें ढाढ़स बंधाते हैं कि साठ के दशक के अन्त में और नक्सलबाड़ी की महान उभार से जो चेतना जन्मी थी, जिसने हमें अपनी पुरानी जुझारू परम्परा से जोड़ कर हमें ऊपर बतायी गयी प्रतिज्ञाओं को फिर से अपने घोषणा-पत्र के रूप में सामने रखने की सलाहियत दी थी, वह ग़लत नहीं थी. इसलिए अन्त में यह भी कहना ज़रूरी जान पड़ता है कि इधर की कविता में दो चीज़ों का अभाव खटकता है. पहली तो है कविता से कवितापन का कम होना. बाज़ वक़्त कविता ख़राब गद्य के निकट जा पहुंचती सी लगती है. हमेशा ऐसा होता हो, या सभी कवियों के साथ ऐसा होता हो, ऐसी बात नहीं है, मगर यह ख़तरा आज के नये कवियों के सामने मौजूद है, और मेरा ख़याल है कि उन्हें निराला की हिदायत याद कराने की ज़रूरत है कि कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से मुक्त होने में है, छन्दों से मुक्त होने में नहीं और छन्द कविता की साधना के लिए आवश्यक क़वायद यू अभ्यास है. साथ ही यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि जब मुक्तिबोध कहते हैं -

"कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता
मुक्ति के मन को, जन को.

या
फिलहाल तस्वीरें इस समय हम नहीं बना पायेंगे
अल्बत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे. हम धधकायेंगे.
मानो या मत मानो
इस नाज़ुक घड़ी में
चन्द्र है सविता है
पोस्टर ही कविता है.

तब वे अपने विचारों का प्रचार करते हुए कविता को कहीं भी हाथ से छूटने नहीं देते. इसीलिए वे भरोसे के साथ कह सकते हैं - "नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है......गहन-गम्भीर छाया आगमिष्यत की लिये, वह जन चरित्री है......तुम्हारे कारणों से जगमगाती है व मेरे कारणों से सकुच जाती है." कवि के कारणों से सकुच जाने वाली कविता और जनता के कारणों से जगमगाने वाली कविता - इन दोनों ही के उदाहरण आज की कविता में मौजूद हैं. सवाल तो वही है जो मुक्तिबोध ने "मानव-पुण्य धारा" यानी जनता की ओर से सामने रखा था - "बशर्ते तय करो किस ओर हो तुम अब / सुनहले ऊर्ध्व-आसन के निपीड़क पक्ष में अथवा कहीं उससे लुटी-टूटी अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन."

इसी से जुड़ी दूसरी कमी जो खटकती है, वह है इर्द-गिर्द की दुनिया के चित्र उकेरते हुए महज़ उन्हें दर्ज भर कर लेने पर सन्तुष्ट हो जाना जबकि कविता से यह उम्मीद भी है कि वह सामाजिक परिवर्तन की कार्रवाई का एक औज़ार भी बने. उसका राजनैतिक तेवर कुछ और धारदार हो. इस नज़र से देखने पर यह सवाल बार-बार उठता है कि वे कौन-सी वजहें हैं जिन से युवा कविता में राजनैतिक स्वर क्षीण हुआ है ? क्या कारण है कि अशोक पाण्डेय जैसे समर्थ कवि की कविताएं अक्सर फ़िकरेबाज़ी की हदों को छूने लगती हैं ? या फिर गिरिराज किराडू में कला इतनी है कि कई बार असली सामाजिक परिदृश्य ही आंख से ओझल हो जाता है और कविता सिर्फ़ खिलवाड़ बन जाती है और कौतूहल उपजाने लगती है ? महज़ कुछ राजनैतिक घटनाओं या सामाजिक-आर्थिक प्रवृत्तियों का नामोल्लेख कविता को राजनैतिक नहीं बनाता. राजनीति का सवाल पक्षधरता से जुड़ा है, यह तय करने के सवाल से जुड़ा है कि किस ओर हो तुम. युवा कविता में यह उभय-सम्भव की स्थिति क्यों है. ऐसा मृत्युंजय या मुकुल सरल या मुकेश मानस या फिर निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन की कविताओं में इसलिए नहीं है कि उनकी पक्षधरता साफ़ है.
१०.
इसी सिलसिले में थोड़ा सा विषयान्तर करते हुए मैं उन्नीसवीं सदी के दो अंग्रेज़ व्यक्तित्वों का ज़िक्र करना चाहता हूं जो दोनों के दोनों सामाजिक परिवर्तन की भावना के तहत काम कर रहे थे मगर दो भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचे थे. पहले थे चार्ल्स बैबेज, जिन्हें कम्पयूटर का जनक कहा जाता है, हालांकि वे अपने जीवन में एक अत्यन्त कच्ची गिनती की मशीन से आगे नहीं बढ़ पाये थे. बैबेज की मूल प्रेरणा तत्कालीन सामाजिक विषमता और आम दुर्दशा से उपजी थी. मूलत: विचारक होने के नाते वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर ग़रीबी और आर्थिक विपन्नता के आंकड़े क्रमबद्ध रूप में इकट्ठे किये जायं तो उनके प्रचार-प्रसार से सामाजिक परिस्थितियों में तब्दीली सम्भव हो जायेगी. जैसा कि बैबेज के एक समर्थक ने कहा, "मनुष्य की जीवन-स्थितियों की पूरी और सही जानकारी का मतलब है उन परिस्थितियों को जन्म देना जिनमें इन स्थितियों को बदला जा सकेगा." लेकिन बैबेज के ही समकालीन उपन्यासकार जार्ज गिसिंग, जो १८७१ में बैबेज की मृत्यु के समय महज़ चौदह बरस के थे, आगे चल कर बैबेज के विचारों की समीक्षा करने वाले थे एक बिलकुल ही अलग निष्कर्ष पर पहुंचे थे. उनका मानना था कि महज़ आंकड़ों के सबूत के बल पर प्राप्त जानकारी न तो जानकार बना सकती है न बोध ही पैदा कर सकती है.यह एक मध्यवर्ती अवस्था है जिसमें जानकारी हासिल करने वाला यथार्थ से एक दूरी पर रहता है और परिवर्तन का औज़ार नहीं बन सकता. उसके लिए उसे आगे बढ़ कर वास्तविकता से सीधा सम्पर्क करना होगा. गिसिंग ने भविष्य के एक ऐसे समाज की भी कल्पना की जिसमें सारी आबादी बैबेज के संगणकों यानी कम्प्यूटरों की अभ्यस्त तो होगी, मगर परिवर्तन से दूर हो जायेगी. क्या आज जब हम सूचना और जानकारी से घिरे हुए हैं कुछ वैसी ही आशंका हमें नहीं होती ? कविता में महज़ छवियां अंकित करना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उससे एक क़दम और आगे बढ़ कर इन छवियों को उत्प्रेरकों में तब्दील करने का काम भी करना होगा. और इसके लिए जैसा कि प्रेमचन्द ने कहा था, हुस्न का एक नया मेयार -- एक नया सौन्दर्य-बोध भी विकसित करना होगा.
११.
जैसा कि मैंने शुरू ही में कहा था कि युवा कविता की हरी-भरी वसुन्धरा का पूरा जायज़ा एक लेख में सम्भव नहीं है, न एक व्यक्ति के बस की बात है. ज़ाहिर इस में कई नाम छूट गये हैं जिनकी मैं चर्चा करना चाहता थ. मसलन आस्तीक वाजपेयी की कविता ओं "ऐसा ही होता है" और "तथास्तु" की जिनमें हमारे पौराणिक प्रतीकों का इस्तेमाल ख़ूबी के साथ किया गया है. उन्की कविताओं में एक छटपटाहट है, प्रश्नाकुलता है, मगर अवसाद भी है, जो शायद दूर होने की ख़ातिर एक सही राजनीति की मांग कर रहा है. मैं अरुण आदित्य की कविता "इण्टर्व्यू" का भी उल्लेख करना चाहता था जिसमें इण्टर्व्यू में पूछा गया सवाल "आपकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा स्वप्न क्या है ?" इस सच्चाई के तरफ़ ले जाता है कि --

इस देश में हैं ऐसे मार तमाम लोग
दूसरों के सपनों को चमकाते हुए
जिन्हें मौका ही नहीं मिलता
कि सोच सकें अपने लिए कोई सपना

इसी तरह मैं और भी बहुत से युवा कवियों का ज़िक्र करना चाहता था जिनमें अपार सम्भावनाएं हैं जैसे मंजरी श्रीवास्तव, ओमलता शाक्य, मनोज कुमार झा, हरप्रीत, सन्दीप गौड़ या विपिन चौधरी, पर इस लेख की एक सीमा है और मेरी क़ूवत की भी. उम्मीद करता हूं कि आगे चल कर इसकी भरपाई करने का मौक़ा मुझे मिलेगा. बतौर नमूना भरपाई मैं यहां चित्रकार-कवि शिवकुमार गांधी की एक कविता पूरी-की-पूरी उद्धृत कर रहा हूं, गो उनकी निस्बतन लम्बी कविता "महाविद्यालय" में उनकी चाक्षुष ख़ूबियां ज़्यादा उजागर हुई हैं. इस कविता का कोई शीर्षक नहीं है --

उसने कहा मुझसे ले चलो अपने शहर
जो कहोगे वही करूगां
फिर पकडायी चाय जो गैस के
चूल्हे पर बनी थी
मैंने कहा मजाक में-
जगह बदल लेते हैं हम
और फिर वैसे भी शहर खुद ही तो आ रहा है
तुम तक

उसने कहा वहां छत पर बैठना शाम में
अच्छा लगता है रोशनियों के बीच और फिर हवा तो आती ही है
एक कारखाने में काम करता था उसका भतीजा
जिसके साथ किसी छत पर बैठा था वह एक दिन
इस शहर में रोशनियों के बीच
और उस दिन भी हवा तो आयी ही थी

तालाब किनारे चांद को देखता लेटा हुआ
शाम में मैं खुद कितने दिन काट लूगां यहां
तालाब अभी भरा है फिर खाली होगा
और फिर भरेगा व खाली होगा
अगली बार
पता नहीं भरे कि नहीं

और मैं कहूंगा किसी से ले चलो अब तो मुझे
अपने साथ
जो कहोगे वह कर ही लूंगा.

अन्त में इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि युवा कविता में अभी कुछ अनगढ़ता भी नज़र आ सकती है. इतना ही नहीं, सभी नये लिखने वालों की तरह हमारे युवा कवि भी अभी कई तरह के सुरों को आज़मा कर अपना ख़ास अन्दाज़ हासिल करने की कोशिश में जुटे हुए हैं. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि वे अपनी ’करत’ से इस सुर को साधने में सफल होंगे और उनकी पहली-पहली कविताओं से जो आशाएं बंधती हैं उन्हें अगले मुक़ाम तक पहुंचायेंगे. अन्त में प्रसिद्ध लातीनी अमरीकी कवि निकानोर पार्रा की एक कविता उद्धृत कर रहा हूं जो उन्होंने युवा कवियों को सम्बोधित की है --

चाहे जैसा लिखो,
जो भी शैली तुम्हें पसन्द हो, अपना लो
बहुत ज़्यादा ख़ून बह चुका है
पुल के नीचे से
यह मानते रहने के लिए
कि सिर्फ़ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
शर्त बस यही है
तुम्हें बेहतर बनाना है कोरे पन्ने को
हम उम्मीद करते हैं कि युवा कवि ऐसा ही करेंगे

आमीन.

२९ अक्तूबर२०११ - १० जनवरी २०१२

















जयपुर साहित्योत्सव : पैसे का खेल

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प्यारे मित्रो,
एक लम्बी ख़ामोशी के बाद एक बार फिर मैं आपकी महफ़िल में हाज़िर हूं. इधर बीच कई तरह की उलझनें रहीं, 28 दिसम्बर को मज़े की मोटर साइकिल दुर्घटना हो गयी. शायद पीड़ा का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ था या शायद सेवा कराने का. जो भी हो, नये साल का पहला पखवाड़ा काफ़ी कष्ट में बीता. पर जैसा कि संगीतकार-विचारक कुमार गन्धर्व कहते थे, दुख हाथी की चाल आता है और चींटी की चाल जाता है, पर जाता ज़रूर है. सो, दुख-भरे दिन लगभग बीत चुके हैं. ज़माने ने एक करवट ली है, आज ही सुप्रसिद्ध ब्लोग "जानकी पुल डाट काम" संचालित करने वाले मेरे मित्र और हिन्दी के कथाकार प्रभात रंजन ने याद दिलाया कि मुझे डुबकी मारे बहुत दिन हो गये, लिहाज़ा मैं भी पिछला खाता साफ़ करके नयी बही के साथ उपस्थित हूं. नवम्बर से कलकत्ता के एक नये अख़बार "प्रभात वार्ता" के लिए एक स्तम्भ लिखना शुरू किया है. उसकी एक बानगी अपको इस बार मिलती रहेगी, मगर सबसे पहले जयपुर में हाल ही में सम्पन्न हुए साहित्योत्सव की चर्चा. तो लीजिये पेश है --


जयपुर साहित्योत्सव : पैसे का खेल

ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन-सा दयार है, हद-ए-निगाह तक जहां ग़ुबार-ही-ग़ुबार है.

हालांकि घर से चलने से पहले ही कुछ-कुछ अन्दाज़ा था कि इस बार का जयपुर साहित्योत्सव पहले से काफ़ी अलग साबित होने वाला है, मगर वह इस क़दर अजीबो-ग़रीब होगा इसका अनुमान किसी को नहीं था, यहां तक आयोजकों को भी नहीं. बेसाख़्ता मेरे दिमाग़ में "उमराव जान" की ये पंक्तियां कौंध उठीं.
अभी आयोजन में कई दिन बाक़ी थे कि भारत में जन्मे अंग्रेज़ी के लेखक सलमान रुशदी अचानक ही उस समय चर्चा में आ गये जब देवबन्द के उलूम की ओर से इस आयोजन में उनकी शिरकत पर विरोध किया गया. ज़ाहिर है, इस विरोध के पीछे उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव थे, क्योंकि रुशदी की किताब "शैतानी आयतें" पर उठे विवाद और उनके खिलाफ़ जारी किये गये फ़तवे तो कभी के दब-दबा गये थे. ख़ुद सलमान रुश्दी भी इधर कुछ ख़ास चर्चा में नहीं थे. देवबन्दियों का विरोध भी जनता के एक हिस्से की जनतान्त्रिक कार्रवाई ही थी. यही नहीं, भारत सरकार ने भी यह साफ़ कर दिया था कि रुशदी को बिना रोक-टोक हिन्दुस्तान आने का अधिकार है और वे कई बार यहां आ भी चुके हैं. लेकिन चूंकि रुशदी की भारत यात्रा पर विरोध देवबन्दियों की तरफ़ से हुआ था, इसलिए मामले ने कुछ और ही रंगत अख़्तियार कर ली और ऊपर से रुशदी ने यह कह कर उसे और भी उलझा दिया कि उन्हें विश्वस्त सूत्रों ने बताया है कि मुम्बई के किसी डौन ने उन्हें मारने की सुपारी दी है. हालांकि बाद में यह ख़बर रुशदी ही की उड़ायी हुई जान पड़ी, लेकिन इसका प्रकाशित-प्रसारित होना था कि सुरक्षा-व्यवस्था हरकत में आ गयी और इस आयोजन के शुरू होने से पहले ही सबसे बड़ा सवाल यह बन गया कि सलमान रुशदी उत्सव में भाग लेंगे कि नहीं. उद्घाटन वाले रोज़ तक कभी यह घोषणा होती कि वे आ रहे हैं, कभी यह कि वे पहले नहीं दूसरे दिन आयेंगे. आख़िरकार जब यह पता चल गया कि वे नहीं आ रहे तब भी उनकी छाया समारोह पर मंडराती रही क्योंकि उद्घाटन की शाम को चार लेखकों ने, जो रुश्दी ही की तरह अंग्रेज़ी में लिखते हैं और जिनमें से दो अमरीका में रहते हैं, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के पक्ष में और रुशदी को न आने देने के विरोध में "शैतानी आयतों" के कुछ अंश सार्वजनिक रूप से पढ़ कर सुनाये. ज़ाहिर है, किताब पर अभी तक पाबन्दी लगी हुई है और लेखकों के इस क़दम ने न केवल उनके लिए, बल्कि आयोजकों के लिए भी ख़ासी परेशानी पैदा कर दी और उत्सव की एक निदेशक हड़बड़ा कर क़रीब ढाई सौ लेखकों को यह ईमेल भेजने पर मजबूर हुईं कि वे जो भी करें संविधान और क़ानून की हद में रह कर करें. विरोध प्रकट करने वाले चारों लेखकों को तुरत-फुरत जयपुर से रवाना करना पड़ा सो अलग. उत्सव के अन्तिम दिन आयोजकों ने रुश्दी की विडियो कौनफ़रेन्स कराने का जो बन्दोबस्त किया था, वह कुछ मुस्लिम संगठनों के विरोध के चलते रद्द करना पड़ा. एक औसत-से लेखक को मीडिया और राजनीति किस तरह हीरो बना सकती है, रुश्दी इसकी ताज़ा मिसाल हैं, क्योंकि वे पहले भी जयपुर साहित्योत्सव में आ चुके हैं और किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी. दिलचस्प बात यह भी है कि तमाम तरह की स्वाधीनताओं की वकालत करने और पश्चिमी इशरत-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले सलमान रुश्दी ने कभी दमन और उत्पीड़न के शिकार लोगों के पक्ष में आवाज़ बुलन्द नहीं की. न तो कश्मीरियों के पक्ष में, न पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों और आदिवासियों के पक्ष में. ऐसी हालत में हमेशा की तरह इस बार भी आख़िरी बाज़ी रुशदी के हाथ रही -- फिर से चर्चित होने का सुख और किताबों की बिक्री में आयी उछाल से बढ़ी हुई आमदनी.
बहरहाल, इस शुरुआती हंगामे को अलग करके देखें तो पांच दिन और 136 सत्रों में फैले इस आयोजन की प्रकृति, स्वरूप और प्रभाव के बारे में कई सवाल उठते हैं. पहला सवाल तो यही है कि इस आयोजन को कौन करा रहा है और किस उद्देश्य से. अगर आयोजकों के बयानों पर जायें तो सन 2006 में शुरू हुआ यह आयोजन प्रमुख रूप से कला, संगीत और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था, ख़ास तौर पर साहित्य को. लेकिन जो देखने में आया वह ऐसा मंज़र था जिसमें गम्भीर साहित्यकार हाशिये पर थे और गुलज़ार, जावेद अख्तर, कपिल सिब्बल, अनुपम खेर, शशि थरूर, स्वामी अग्निवेश, चेतन भगत, बरखा दत्त, कबीर बेदी, अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे, कवि सम्मेलनों में समां बांधने वाले कवि अशोक चक्रधर, फ़िल्मी गीतकार प्रसून जोशी और नये गुरु दीपक चोपड़ा जैसी सेलेब्रिटियां केन्द्र में. ऐसा लगता था कि यह साहित्य और संस्कृति का पेज थ्री है. चूंकि जानी-मानी शख्सियतों के प्रति लोगों का सहज आकर्षण होता है, इसलिए उत्सव में शामिल होने वाले श्रोताओं की एक बड़ी संख्या तो इसी से खिंच कर चली आयी थी. लेकिन इससे भी बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो महज़ शनिवार-इतवार को थोड़ा रौनक़-अफ़रोज़ करने की ख़ातिर इस मेले में चले आये थे. एक समय तो समारोह में उमड़ी चली आ रही भीड़ ने बाहर सड़क पर आम आवा-जाही को भी बाधित कर दिया था. इन लोगों को न तो कला-संस्कृति से कुछ लेना-देना था, न वहां चल रहे कार्यक्रमों से. वे यहां-वहां मंडराते हुए तितलियों की तरह कभी इस सत्र पर पल भर रुकते, कभी उस कार्यक्रम में झांकते, शहर के इस पंच सितारा विरासती होटल डिग्गी पैलेस के परिसर में महंगी कौफ़ी-चाय और पेस्ट्री से ले कर इडली-दोसे और सैण्ड्विच उड़ाते हुए, सर्दियों की गुनगुनी धूप का मज़ा ले रहे थे. इतवार को तो ऐसा नज़ारा था कि बी.बी.सी. की पूर्व पत्रकार-प्रसारक रमा पाण्डे को कहना पड़ा कि यह उत्सव अब उत्सव नहीं रहा, भीड़ बन गया है.
इस बार के आयोजन की थीम भक्ति और हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं थी, मगर उन पर भी ज़्यादातर चर्चा अंग्रेज़ी में हो रही थी. कहा जाये कि अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का बोलबाला था. वैसे भी, जो लेखक और प्रतिभागी बुलाये गये थे, वे उन्हीं लोगों में से थे जिनसे ईमेल और मोबाइल से सम्पर्क किया जा सकता था. इसलिए अगर उत्सव में घूमते समय कानों में उच्चाकांक्षी मध्यवर्ग द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली अंग्रेज़ी के टुकड़े पड़ रहे थे तो इसमें आश्चर्य कैसा. सारा आयोजन ही अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत में रंगा हुआ था -- प्रचार सामग्री से ले कर संचालन और दूसरी आयोजकीय कार्रवाइयों तक. ऐसे में बेचारे हिन्दी और देसी भाषाओं के लेखकों की क्या बिसात. वे तो जैसे प्रतीक स्वरूप वहां बुला लिये गये थे.
इसके अलावा एक ही समय में चल रहे चार-चार कार्यक्रमों ने भी इस साहित्य समारोह को तमाशे में बदल दिया था. यह ठीक है जिन लोगों की किसी ख़ास कार्यक्रम में दिलचस्पी थी, वे तो उसी कार्यक्रम में आदि से अन्त तक मौजूद रहते, मगर जो भारी भीड़ उमड़ आयी थी उसका भी एक हिस्सा इन सत्रों में जगह छेंक लेता और फिर बीच ही में गम्भीर श्रोताओं में खीज पैदा करता हुआ बाहर निकल आता, बिना यह सोचे कि अपनी इस ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत से उन्होंने कुछ लोगों को कार्यक्रम से वंचित कर दिया है.
यों, अगर कार्यक्रमों पर नज़र डालें तो उनमें से कुछ बहुत मौज़ूं थे. सम्पादक-पत्रकार विनोद मेहता, पाकिस्तान से आये कवि मुहम्मद हनीफ़, सूफ़ी कवि-गायक मदन गोपाल सिंह, तेलुगू की दलित लेखिका गोगू श्यामला और पंजाबी कवि नवतेज भारती को सुनना ताज़गी-भरा अनुभव था. यहां तक कि दुख दरिद्रता के सरल उपाय बताने वाली अमरीकी मीडिया शख्सियत ओप्रा विन्फ़्रे ने भी कुछ समझदारी की बातें कहीं. भाषा, समाज और साहित्य के सवालों के इर्द-गिर्द बुने गये इन कार्यक्रमों को अगर सूझ-बूझ के साथ सजाया गया होता तो उनका प्रभाव पड़ सकता था. लेकिन अपने कुल स्वरूप में यह आयोजन बिखरा-बिखरा बन कर रह गया. हां, प्रतिनिधियों के तौर पर आये जिन लोगों की दिलचस्पी उस भव्य भोजन और विदेशी मदिरा पर थी जो नदी की तरह वहां बह रही थी या बहायी जा रही थी, उनके लिये आयोजकों ने सटीक इन्तज़ाम कर रखा था. पांच सितारा होटलों में ठहराने से ले कर लाने-ले जाने और महंगे उपहारों समेत दूसरी सभी सुविधाओं का बन्दोबस्त करने तक.
इसी को देख कर बारम्बार मन में सवाल उठता था कि जिस देश में भुखमरी और कुपोषण का दौर-दौरा है, विषमता ने महामारी की-सी सूरत अख़्तियार कर ली है, वहां ऐसा भव्य-दिव्य आयोजन किस तुफ़ैल में हो रहा है और इसके लिए पैसा किसने जुटाया है. और यही इस आयोजन का सबसे अंधेरा पक्ष कहा जा सकता है. शीर्ष पर तो बड़ी-बड़ी निर्माण परियोजनाओं के ठेके लेने वाली डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी है, जिसने पिछले साल से दक्षिण एशियाई साहित्य के लिए 50 हज़ार डालर का पुरस्कार भी घोषित कर रखा है जो इस साल, श्रीलंकाई तमिल लेखक शेहन करुणातिलक को उनके पहले उपन्यास "चाइनामैन" पर दिया गया. 1979 में स्थापित डी.एस. कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने पिछले सात वर्षों में अभूतपूर्व प्रगति की है और कौमनवेल्थ खेलों के घोटाले में भी बड़ी हद तक लिप्त है. लेकिन इस कम्पनी के अलावा इस आयोजन के पीछे रियो टिण्टो और शेल जैसे बहुराष्ट्रीय निगम भी हैं जिन्होंने खदान और तेल उत्खनन के क्षेत्र में लगातार मानवाधिकारों का हनन किया है.
शेल पर तो नाइजीरिया के फ़ौजी शासकों द्वारा वहां के अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यकार, प्रसारक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा को फांसी की सज़ा दे कर मार डालने का भी आरोप है जो ओगोनीलैण्ड में पर्यावरण की क़ीमत शेल की निर्मम मुनाफ़ाखोरी का विरोध कर रहे थे. रियो टिण्टो ब्रिटिश-औस्ट्रेलियाई कम्पनी है, जो तीसरी दुनिया के देशों की खनिज सम्पदा को हासिल करने की फ़िराक़ में रहती है और अब उसकी नज़र हिन्दुस्तान पर है. यही वजह है कि उत्सव में आये विदेशियों में अंग्रेज़ और औस्ट्रेलियाई बहुतायत में थे. रही कोकाकोला कम्पनी तो उसका कच्चा-चिट्ठा सब जानते ही हैं. इन चौधरियों के नीचे छोटे-बड़े, देसी-विदेशी ढेरों कार्पोरेट घरानों के नाम हैं -- टाटा स्टील और आर.पी.-संजीव गोयनका समूह से ले कर बैंक औफ़ अमरीका और ग्लेनलिवेट शराब बनाने वाली कम्पनी तक.
कहना न होगा कि यह उस भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था और लुटेरी पूंजी का सांस्कृतिक मुखौटा है, हमारे देश में जिसकी शुरुआत उदारीकरण के युग में नयी आर्थिक नीतियों से हुई थी और जो अब साहित्य-संस्कृति के माध्यम से अवाम में नहीं, तो कम-से-कम उस ख़ास वर्ग में स्वीकृति चाहता है जो उसकी चालों को समझने की क्षमता भी रखता है, और उससे लाभान्वित भी होता है. इसी वर्ग को अपने पाले में लाने और रखने की एक कोशिश यह उत्सव है. अकारण नहीं था कि एक ओर "अनकही कहानियां : माओवादी गुरिल्ले और भारतीय गणतन्त्र" वाले सत्र में बढ़ती हुई हिंसा-प्रतिहिंसा की छान-बीन थी, दूसरी ओर स्टीवन पिंकर यह साबित करने पर जुटे थे कि कैसे "हिंसा का ग्राफ़ लगातार नीचे गिरता चला गया है." ओसामा से ओबामा तक, इस्रायल से फिलिस्तीन तक और अफ़्रीका से ले कर लातीनी अमरीका तक -- चर्चा के केन्द्र में सिर्फ़ साहित्य ही नहीं, राजनीति भी थी.
यह भी एक विडम्बना ही कही जायेगी कि इस बार के समारोह का उद्घाटन भूटान की राजमाता आशी दोरजी वांग्मो वांग्चुक ने किया जो देश कि अपने यहां जनतन्त्र की मांग करने वालों को सख़्ती से कुचलने और राज शाही को बनाये रखने के लिए हर हर्बा आज़माने के लिए कुख्यात है.
लेकिन सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने बताया कि मूल रूप में यह आयोजन जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन द्वारा शुरू किया गया था जो राजस्थानी दस्तकारी को बढ़ावा देने लिए श्रीमती फ़ेथ सिंह ने स्थापित की थी. दस्तकारी के ख़रीदारों को इस प्रान्त और देश का परिचय देने के लिए एक छोटा-मोटा सांस्कृतिक आयोजन किया जाता था. उसी आयोजन को हथिया कर नयी व्यावसायिक सूझ-बूझ के साथ जयपुर साहित्य समारोह नींव रखी गयी और धीरे-धीरे जयपुर विरासत फ़ाउण्डेशन तो महज़ एक स्टाल में सिमट गयी, जबकि डिग्गी पैलेस पर नवधनाड्य सांस्कृतिक आयोजकों का क़ब्ज़ा हो गया. हैरत नहीं कि इस पंच सितारा साहित्योत्सव के बारे में एक प्रतिनिधि की टिप्पणी थी कि यह आयोजन पैसे का खेल, साहित्य और बाज़ार का मेल और सेलेब्रिटियों की रेलमपेल ही है.

२३-१-२०१२

सीमा आजाद के बहाने विरोध की आवाज को कुचलने की साजिश

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सीमा आजाद के बहाने विरोध की आवाज को कुचलने की साजिश






नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद और उनके पति विश्व विजय को देशद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप मंे गैर कानूनी गतिविधि निवारण कानून (यूएपीए) के विभिन्न प्रावधानों के तहत इलाहाबाद की एक निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा देकर एक बार फिर इस बात की पुष्टि की है कि यह व्यवस्था जनतांत्रिक विरोध की हर आवाज को कुचलने पर आमादा है। आठ जून को उम्रकैद की सजा का आदेश जारी करते हुए इन दोनों लोगों पर 70 हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। इन पर आरोप है कि ये दोनों भूतपूर्व छात्र नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सदस्य हैं और ‘गैर कानूनी गतिविधियों’ में शामिल है।


सीमा आजाद और विश्व विजय को 6 फरवरी 2010 को उत्तर प्रदेश में स्पेशल टास्क फोर्स ने इलाहाबाद में उस समय गिरफ्तार किया जब ये लोग दिल्ली से विश्व पुस्तक मेला देखने के बाद लौट रहे थे। एसटीएफ का दावा था कि इनके पास से माओवादी साहित्य बरामद किया गया है और ये दोनों प्रतिबंधित माओवादी पार्टी से संबद्ध हैं। एसटीएफ ने इस मामले को उत्तर प्रदेश के आतंकवाद विरोधी स्क्वैड को हस्तांरित कर दिया।


सीमा आजाद द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की संपादक तथा पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) उत्तर प्रदेश के संगठन सचिव के बतौर नागरिक अधिकार आंदोलनों से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनके पति विश्व विजय छात्र आंदोलन और इंकलाबी छात्र मोर्चा के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। सीमा आजाद ने अपने लेखन व पत्रकारिता के जरिए और विश्व विजय ने अपनी राजनीतिक सक्रियता के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों पर हो रहे दमन के खिलाफ लगातार आवाज उठायी। इन दोनों का कार्य क्षेत्र इलाहाबाद व कौशाम्बी जिले का कछारी क्षेत्र रहा है जहां माफिया, राजनेता व पुलिस की मिलीभगत से अवैध तरीके से बालू का खनन किया जा रहा है और इस प्रक्रिया में काले धन की कमाई के साथ-साथ मजदूरों का भीषण दमन और शोषण जारी है। इन दोनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने पुलिस-माफिया-राजनेता गठजोड़ के खिलाफ आवाज उठायी जिससे वे सत्ता की आंख की किरकिरी बन गए थे। ये दोनों युवा जिन गतिविधियों और क्रियाकलाप में लगे थे उन्हें न तो किसी भी तरीके से गैर कानूनी कहा जा सकता है और न उन्होंने कभी कोई ऐसा काम किया जो भारतीय संविधान द्वारा अपने नागरिकों को दिए गए अधिकारों के दायरे से बाहर हो। सीमा आजाद की पत्रिका ‘दस्तक’ ने उस गंगा एक्सप्रेस-वे योजना पर एक विस्तृत जांच की थी जिससे हजारों किसानों के उजड़ने का खतरा था। इसने आजमगढ़ के मुस्लिम युवकों की अंधाधंुध गिरफ्तारी और उत्पीड़न पर एक लंबी रपट प्रकाशित की थी। इन दोनों राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और अभी का फैसला पूरी तरह दुर्भावना से प्रेरित है और उन लोगों को सबक सिखाने के लिए है जो सरकारी तंत्र की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाते हैं और उत्पीड़ित लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं।


हम इस फैसले की घोर निंदा करते हैं और आम जनता से अपील करते हैं कि वह मामले की तह तक जाय और सरकार के इस जनविरोधी चेहरे को बेनकाब करे। हम अंग्रेजों द्वारा बनाए गए उस कानून को समाप्त करने की भी मांग करते हैं जिसके तहत आए दिन सामाजिक कार्यकर्ताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है और सालों-साल बगैर मुकदमा चलाए जेलों में रखा जाता है। यही स्थिति विनायक सेन, प्रशांत राही और अरुण पेरेरा की हुई। ऐसी ही हालत में भारत की जेलों में सैकड़ों हजारों युवकांे को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए बंद रखा गया है। सीमा आजाद और विश्व विजय का मामला सभी जनतंत्रप्रेमी लोगों के लिए एक चुनौती है जिसका मुकाबला डट कर किया जाना चाहिए।

AN APPEAL FOR THE RELEASE OF SEEMA AZAD AND VISHWAVIJAYA

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AN APPEAL FOR THE RELEASE OF SEEMA AZAD AND VISHWAVIJAYA




Dear Friends,


as you must have come to know, Seema Azad, a young journalist and organising secretary of  the human rights organisation PUCL was arrested along with her husband Vishwavijaya on 6th February 2010 and charged with almost the same sections with which Dr,. Binayak Sen was charged, that is, being a member of the Communist Party of India (Maoist) and waging war against the State, besides some other sections. 


While Dr. Binayak Sen was released, Seema and Vishwavijaya have been awarded a life sentence along with fines. This is probabaly one of the rarest cases where a verdict of life imprisonment has been given to persons charged under these sections. Obviously the Manmohan Singh government is out to wreak vengeance on those who do not agree with their policies. It is to be noted that their is no evidence that Seema Azad and Vishwavijaya at any time indulged in activities involving arms or explosives. Their only supposed "crime" was of opposing the policies of the government through their registered bi-monthly "Dastak" or by publishing booklets against the Ganga Expressway or Operation Greenhunt.    


We are giving below a factual list of the contradictions, anomalies and concoctions by the State in order to convict and sentence Seema Azad and Vishwavijaya at any cost : 


1. It has been clearly mentioned in the judgement (page-57) that the material recovered during the remand and sealed was opened in police station without any court permission for ‘study purpose’. But unfortunately the court did not find anything objectionable in this process !!!


2. This is also worth noting that twice the remand was refused. And when finally the remand was given it was illegal as it contravened all regulations laid rown by law for the remand of an arrested person. Why did the court allow this blatant illegality ? Was it because the tailored or concocted evidence which the police produced after the FIR had been filed could only be submitted after the so called recovery during remand ? 


3. Seema’s mobile call details which were produced in the court are only till 5th Feb, 2010. There was no mention of the calls made or received on 6th Feb, 2010 which was the date of arrest. Now the question is – why call details were tailored intentionally? If call details of 6th Feb would have been provided in the court then it would have supported the fact that Seema & VishwaVijay were arrested immediately after Seema arrived in Allahabad from New Delhi Rewa express at 11.45 am on 6th Feb (much before Heeramani's arrest at 14.30 pm on 6th Feb). Why police is cooking up the story that they arrested Seema & VishwaVijay at 9.30 pm on 6th Feb after Heeramani provided the information about Seema & VishwaVijay to the  police. Also what was the compulsion for the police to intentionally hide the call records of 6th Feb 2010?


4. There were many contradictory statements given by the Police witnesses about the place of arrest in the court which has been mentioned in the judgement also (page-58). Judgement says that these are ‘minor contradictions’ so they can be ignored!!!


5. When asked by the court whether police had found any objectionable call detail/phone number/message in Seema’s mobile, police simply said – ‘No’. But the judgement quotes several locations of Seema’s mobile phone on different dates, such as,  Lucknow , Barabanki (30-31.08.09), Varanasi (4.10.09), Kanpur, Fatehpur (21-22.11.09)(12-13.01.2010), Mirzapur(4.10.09), Itawa, Khurja and Himachal pradesh(22-23-24.01.2010) (page-55). Are these locations ‘suspicious locations’ ? If so by which logic?


6. Why police did not produce Seema’s mobile during the time of arrest? Why did they produce her mobile after remand (after more than 5 months of the arrest).


7. Why there is no signature of the independent witnesses on the ’26 page letter’ which police is claiming to have recovered from Seema’s house during remand (after 5 month of arrest). Seema’s neighbours and Seema’s father were present during the remand then why their signature were not taken on the so called ‘recovery’?


8. The last witness was examined in the lower court in the first week of Feb 2012. Why was the case dragged  till mid April inspite of the Supreme Court instruction not to delay the case and hear it on a day-to-day basis ? Why was Justice Anil Kumar (who had heard the entire proceedings of the case) transferred before he could deliver a verdict? In May, the case was transferred to another judge (Sunil Kumar Singh) who finally delivered the verdict of life imprisonment!!!


9. Another thing worth noting. The verdicy has taken into account a letter written to Annu alias Kanchan as evidence of Seema's involvement with the Maoists because Annu alias Kanchan along with her husband Gopal Mishra was arrested on the same charges in Delhi. Strangely the Delhi Courts have allowed the bail of Kanchan and her husband, while Seema and Vishwavijaya were not only not allowed any bail, but they were convicted of the same offence. 


It is clear from the above facts that the State has decided to stifle all forms of protest. The Indian Government has done away with all norms of democracy and the draconian verdict against Seema Azad and Vishwavijay has been given to set an example before the people that whosoever will criticise or protest against the State will have to suffer the same fate as has been meted out to Seema Azad and Vishwavijaya.


It is our firm belief and understanding that keeping silent at this juncture will only strengthen the hands of executioners and oppressors.


We would like to appeal to all of you to raise this matter in all the forums with which you are associated and also by any other suitable means which you can think of. And also forward this appeal to all those who in your view can help us widen the scope and effect of this campaign to rally support for Seema Azad and Vishwavijaya.




Neelabh                     Seemant            Sangita
(Brother and sister-in-law of Seema)



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